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गुजरात चुनाव 2017: यहां हिंदुत्व का इतिहास आपकी सोच से ज्यादा पुराना है

90 के दशक के उत्तरार्द्ध में गुजरात का पत्रकारीय विवरण हिंदुत्व की प्रयोगशाला के रूप में होता था. लेकिन उससे पहले? यहां हम गुजरात में हिंदुत्व की शुरुआत और उसके उभार की तथ्यपरक जानकारी दे रहे हैं

Ashish Mehta

अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कुछ पत्रकारों की नजर से देखें तो शायद गुजरात की खोज साल 2002 में हुई. उनके पाठक-दर्शक शायद इस पर विश्वास भी करते हैं. लेकिन यह सही नहीं है; इसे अलग तरीके से समझने की जरूरत है: गुजरात की राजनीति के दो युग हैं, मोदी से पहले और मोदी के बाद.

हम इस पर भी दूसरी तरह से विचार करें. मोदी को अक्टूबर, 2001 में (क्योंकि केशुभाई पटेल के मुख्यमंत्री रहते स्थानीय निकाय और उप चुनावों में बीजेपी की लोकप्रियता गिर रही थी) अचानक गुजरात लाए जाने से बहुत पहले बीजेपी और हिंदुत्व यहां पहुंच चुके थे. बीजेपी साल 1995 में राज्य में पहली बार सत्ता में आई. पटेल पार्टी का चेहरा और मुख्यमंत्री भी थे. शंकर सिंह वाघेला लोकसभा में थे, लेकिन वो भी उतने ही बड़े नेता थे. और पर्दे के पीछे राज्य इकाई के संगठन सचिव नरेंद्र मोदी थे, जो रणनीतिकार के साथ किंगमेकर भी थे.


90 के दशक के उत्तरार्द्ध में गुजरात का पत्रकारीय विवरण हिंदुत्व की प्रयोगशाला के रूप में होता था. लेकिन उससे पहले? यहां हम गुजरात में हिंदुत्व की शुरुआत और उसके उभार की तथ्यपरक जानकारी दे रहे हैं. इसमें निजी याद्दाश्त और गूगल एक हद से ज्यादा मदद नहीं कर सकते, इसलिए मैंने शानदार किताब ’द शेपिंग ऑफ मॉडर्न गुजरात‘ (पेंगुइन, 2005) से बहुत सारी जानकारियां जुटाईं हैं. यह किताब अच्युत याज्ञनिक और सुचित्रा सेठ ने लिखी है. (भूल-चूक की जिम्मेदारी मेरी है.)

* गुजरात में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच तनावपूर्ण रिश्तों का लंबा इतिहास रहा है. तनाव के कुछ अहम पड़ावों पर नजर: मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा सोमनाथ मंदिर को तहस-नहस करने से जुड़े तथ्य और मिथक. ब्रिटिश शासन से पहले और इस दौरान हुए कई दंगे. पाकिस्तान के साथ लगती सीमा. जूनागढ़ का मामला, जहां का शासक अपने राज्य को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था.

* गुजरात में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की मौजूदगी 1940-41 से ही रही है. एक दशक बाद यहां भारतीय जनसंघ पहुंचा. लेकिन स्वतंत्रता संग्राम और आजादी के बाद के कुछ दशकों तक कांग्रेस की दमदार मौजूदगी के चलते वो कुछ खास नहीं कर पाए. ‘लोकप्रिय महागुजरात’ आंदोलन के बाद 1960 में बांबे राज्य से गुजरात को अलग प्रदेश बनाया गया. इस आंदोलन में दक्षिणपंथियों ने भी हिस्सा लिया था. हालांकि नया राज्य बनने के बाद लोगों ने खुशी-खुशी कांग्रेस का समर्थन किया.

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* कच्छ सीमा के पास पाकिस्तान द्वारा गुजरात के दूसरे मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता के हेलीकॉप्टर को मार गिराया गया. इसमें उनकी मौत हो गई. जाहिर तौर पर ये चूक थी, लेकिन युद्ध के समय में इस घटना से पड़ोसी देश के खिलाफ नाराजगी बढ़ी. कुछ लोगों ने इस नाराजगी को अल्पसंख्यक समुदाय तक बढ़ा दिया.

* 1969 में अहमदाबाद में दंगे हुए. आजादी के बाद यह सबसे वीभत्स दंगों में एक थे. इस घटना ने भी दोनों समुदायों के बीच खाई को और चौड़ा किया.

*60 के दशक में आरएसएस और जनसंघ के नेताओं ने कई बड़ी रैलियां की.

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चुनाव में प्रदर्शन

पहला विधानसभा चुनाव- 1962 (कुल सीटें: 154)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 113, स्वतंत्र पार्टी: 26 [जनसंघ ने 26 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन एक भी सीट नहीं मिली]

विधानसभा चुनाव, 1967- (कुल सीटें: 168)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 93, स्वतंत्र पार्टी: 66 [जनसंघ ने 16 सीटों पर चुनाव लड़ा, एक सीट जीती]

विधानसभा चुनाव, 1972- (कुल सीटें: 168)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 140, एनसीओ: 16 [जनसंघ ने 99 सीटों पर चुनाव लड़ा, तीन सीटों पर जीत]

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* 1974 में नवनिर्माण आंदोलन शुरू हुआ. इसकी अगुवाई अहमदाबाद के इंजीनियरिंग छात्र कर रहे थे. छात्र हॉस्टल मेस चार्ज बढ़ने से नाराज थे. जल्द ही आंदोलन पूरे राज्य में फैल गया. लोगों ने महंगाई, इंदिरा गांधी, मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल (“चिमन चोर”), भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ अपना गुस्सा दिखाया. जनसंघ की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को इसमें मौका दिखा और वह प्रदर्शनकारियों के साथ हो गई.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

* ‘नवनिर्माण’ को 70 के मध्य के दशक के नाटकीय घटनाक्रम की शुरुआत माना जाता है: इनमें जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति का आह्वान, देश में आपातकाल लगना और नागरिक प्रतिरोध आंदोलन शामिल हैं. आरएसएस ने नागरिक आजादी के समर्थक संगठनों के साथ हाथ मिलाकर लोकतंत्र की हत्या का विरोध किया. (गुजरात में, आपातकाल के खिलाफ जेपी के प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहे संगठन में आरएसएस का प्रतिनिधित्व युवा नरेंद्र मोदी कर रहे थे. इस दौर के संस्मरणों पर उन्होंने ‘संघर्ष मा गुजरात’ किताब भी लिखी.)

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* आरएसएस/जनसंघ को जल्द ही पता चल गया कि वो किस चीज में कमजोर हैं: शहरी, ‘ऊंची जाति’ और मध्यवर्ग में स्वीकार्यता.

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चुनाव में प्रदर्शन

विधान सभा चुनाव, 1975 (कुल सीटें: 182)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 75 (जनसंघ ने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा, उसे 18 सीटें मिली)

विधान सभा चुनाव, 1980

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 141 (भारतीय जनता पार्टी: 9)

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* 80 का दशक राज्य की राजनीति मे अहम बदलावों वाला साबित हुआ. (जाति और सांप्रदायिक समीकरणों पर अधिक जानकारी के लिए कृपया माधव सिंह सोलंकी की प्रोफाइल यहां देखें. संक्षेप में, कांग्रेस पटेलों और दूसरी ऊंची जातियों से दूर हो गई और उसने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिमों (‘KHAM’) को अपने पाले में किया. वास्तव में, पार्टी ने शिक्षा और नौकिरियों में आरक्षण का दायरा बढ़ा दिया. उसने इसका फायदा नई जातियों को दिया जो बाद में ओबीसी कहलाईं. ऊंची जातियां इससे खुश नहीं थी. इसके खिलाफ 1982 में 'अभिभावकों' की अगुवाई में अचानक आंदोलन शुरू हो गया. एबीवीपी और बीजेपी ने तुरंत इसे समर्थन दिया.

* माधव सिंह सोलंकी ने 1985 के विधानसभा चुनाव से पहले आरक्षण की व्यवस्था को और विस्तार दे दिया. इसके बल पर कांग्रेस ने रिकॉर्ड 149 सीटें जीती. जल्द ही आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हो गया. रहस्यमयी तरीके से आंदोलन सांप्रदायिक हो गया और अहमदाबाद समेत दूसरे शहर इसकी आग में जलने लगे. सांप्रदायिक खाई और चौड़ी हो गई और बीजेपी पेटलों, बनिया और ब्राहमणों की ऐसी पार्टी बनकर उभरी, जिसपर ये जातियां भरोसा कर सकती थी.

* इस दौरान कई यात्राएं निकली, पूरे दशक धार्मिक प्रचार चलता रहा. इनमें से चार विश्व हिंदू परिषद ने नकाली:

1983 में गंगाजल यात्रा,

1987 में राम-जानकी धर्म यात्रा,

1989 में रामशिला पूजन (याज्ञनिक और सेठ ने इसे 'स्वतंत्रता संग्राम के बाद का सबसे प्रभावी लामबंदी' बताया), और

1990 में राम ज्योति और विजयादशमी विजय यात्रा

*इसी कड़ी में 1990 में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा सोमनाथ से अयोध्या तक निकाली गई यात्रा भी शामिल है. इन यात्राओं ने राजनीतिक रूप से हिंदुओं की लामबंदी में बहुत मदद की.

कारवां डेली से साभार

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चुनाव में प्रदर्शन

1983- पहली विजय, राजकोट नगर निगम

1984 का लोकसभा चुनाव

भारत में बीजेपी ने महज दो सीटें जीतीं. इनमें से एक सीट मेहसाणा की थी (डॉ एके पटेल)

विधानसभा चुनाव, 1985

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 149, बीजेपी: 11

1987- दूसरी विजय: अहमदाबाद नगर निगम

1989 लोकसभा चुनाव (कुल: 26 सीटें)

बीजेपी: 12

विधान सभा चुनाव, 1990

बीजेपी: 67 + जनता दल: 70, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 33

1991 का लोकसभा चुनाव

बीजेपी: 20

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* इन संख्याओं से पता चलता है कि इस दशक के अंत तक गुजरात में बीजेपी ने अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करा ली थी. बीजेपी के समर्थन से बनी चिमनभाई पटेल की जनता दल सरकार महज कामचलाऊ व्यवस्था थी. 1995 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने जोरदार जीत दर्ज की. इसके बाद की बातें समकालीन इतिहास है.

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* निश्चित रूप से बीजेपी की किस्मत में उतार-चढ़ाव भी आता रहा है. बीजेपी की पहली सरकार बनने के तुरंत बाद शंकरसिंह वाघेला ने बगावत कर दी. पार्टी दो हिस्सों में टूट गई– यह कैडर आधारित और अनुशासन के लिए पहचानी जाने वाली पार्टी में असामान्य घटना थी. कैडरों ने इसका स्वाद चखा और मोदी के शुरुआती सालों में भी केशुभाई पटेल की अगुवाई में कुछ बगावतें हुईं.

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चुनाव में प्रदर्शन

विधानसभा चुनाव, 1995

बीजेपी: 121, कांग्रेस: 45

विधानसभा चुनाव, 1998

बीजेपी: 117, कांग्रेस: 53

विधानसभा चुनाव, 2002

बीजेपी: 127,कांग्रेस: 51

विधानसभा चुनाव, 2007

बीजेपी: 117, कांग्रेस: 59

विधानसभा चुनाव, 2012

बीजेपी: 116, कांग्रेस: 60

(आशीष मेहता governancenow.com के संपादक हैं)