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कभी महाबली रहे लालू चारा घोटाले के कारण खोते गए जनसमर्थन

अब दूसरी बार सजायाफ्ता होने पर उनका जन समर्थन कितना घटता या बढ़ता है, यह देखना दिलचस्प होगा. इस बार एक और फर्क आया है. लगभग पूरा लालू परिवार कानूनी परेशानियों में है

Surendra Kishore

सन् 1996 में चारा घोटाले के प्रकाश में आने के बाद से लालू प्रसाद का जन समर्थन लगातार घटता गया है. कभी उनके दल की सीटें बढ़ीं भी तो वह चुनावी गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों के बल पर न कि आरजेडी की खुद की ताकत के कारण.

जनसमर्थन पहले से तो घट ही रहा था लेकिन सन 2013 में लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में पहली बार सजा हो जाने के बाद आरजेडी का जनसमर्थन और भी घट गया. इस बार की सजा के बाद इस फैसले का राजनीतिक असर क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा.


लेकिन एक बात तय है कि सामाजिक स्तर एम-वाई गठबंधन आम तौर पर लालू प्रसाद के दल के साथ ही रहेगा, ऐसा राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है. हालांकि सिर्फ एम-वाई यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़ किसी राजनीतिक दलीय गठबंधन को सत्ता दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है. हां, यह गठबंधन अन्य समुदायों में प्रतिक्रिया पैदा जरूर करता है. जहां बीजेपी मुकाबले में हो तब तो यह और भी अधिक.

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लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि लालू प्रसाद के परिवार में उनके राजनीतिक उत्तराधिकार की समस्या आरजेडी को आगे भी परेशान करती रहेगी. वैसे अपनी ओर से लालू प्रसाद ने अपने छोटे पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी जरूर घोषित कर दिया है. छोटे पुत्र अपेक्षाकृत अधिक योग्य भी हैं.

1990 के बाद मिली थीं बड़ी संख्या में सीटें

1990 के मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में लालू प्रसाद के दल को 1991 के लोकसभा चुनाव में बिहार में बड़ी संख्या में सीटें मिली थीं. खुद लालू के दल जनता दल को बिहार में 54 में से 31 सीटें मिल गयी थीं. उनके सहयोगी दलों को भी कुछ सीटें मिली थीं. उन दिनों लगभग पूरा पिछड़ा समुदाय लालू के साथ था.

सन् 1990 में जब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने थे तब उनके दल को बिहार विधानसभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं था. बीजेपी के समर्थन से उन्हें बहुमत हुआ था.

पर 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद को अकेले विधानसभा में बहुमत मिल गया. इसका पूरा श्रेय सिर्फ लालू को मिला था. श्रेय मिलना सही भी था. उन्होंने कमजोर पिछड़ों को भी सीना तान कर चलना सिखाया था. 1996 के लोकसभा चुनाव में भी बिहार में लालू के दल को 22 सीटें मिलीं. 1998 के लोकसभा चुनाव में भी लालू दल को 17 सीटें मिल गई थीं. पर 1999 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद के दल यानी आरजेडी को सिर्फ 7 सीटें मिलीं. यानी जनसमर्थन का क्षरण शुरू हो गया.

10 सालों में बहुत कुछ बदला

इस बीच चारा घोटाले में विचाराधीन कैदी के रूप में लालू जेल में रह चुके थे.

बिहार विधानसभा का चुनाव सन 2000 में हुआ. लालू के दल को खुद का बहुमत नहीं मिला. पर कांग्रेस के समर्थन से राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं.

याद रहे कि जेल जाने से पहले 1997 में ही लालू अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा चुके थे. 1997 में पार्टी भी टूट चुकी थी.

1994 में उनसे नीतीश कुमार अलग होकर समता पार्टी बना चुके थे.

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बाद में समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल का आपस में विलय हो गया. जेडीयू बना. इस दल ने बीजेपी से तालमेल करके बिहार में लालू के खिलाफ एक मजबूत विकल्प खड़ा कर दिया.

सन 2004 में राम विलास पासवान के साथ गठबंधन बनाकर लालू लोकसभा की 22 सीटें जीत चुके थे. पर सन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू के दल के हाथों से सत्ता निकल गई. 2005 में नीतीश कुमार बीजेपी के समर्थन से मुख्य मंत्री बने. बीच में कुछ महीनों के लिए जीतन राम मांझी को नीतीश ने मुख्यमंत्री बनवा दिया था. पर बाद में खुद नीतीश मुख्यमंत्री बन गए.

अब हालात होंगे और मुश्किल

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और नीतीश के साथ गठबंधन के कारण लालू को विधानसभा में सबसे अधिक सीटें यानी 80 सीटें जरूर मिल गयी, पर वे सीटें लालू की ताकत को प्रतिबिंबित नहीं करती.

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अब लालू नीतीश कुमार से अलग हैं. अब उन्हें किसी अगले चुनाव में कितनी सीटें मिलती हैं, यह देखना बाकी है. हां, एक संकेतक जरूर हैं. सन 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू और राम विलास पासवान मिलकर चुनाव लड़े थे. इन्हें 243 सीटों में से सिर्फ 25 सीटें मिली थीं.

अब दूसरी बार सजायाफ्ता होने पर उनका जन समर्थन कितना घटता या बढ़ता है, यह देखना दिलचस्प होगा. इस बार एक और फर्क आया है. लगभग पूरा लालू परिवार कानूनी परेशानियों में है. और 2010 की अपेक्षा एक सकारात्मक फर्क जरूर आया है. कांग्रेस अब लालू के साथ रहेगी. पर कांगेेस की अपनी ताकत बहुत ही कम है.