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लालू यादव के साथ 'दागदार' दोस्ती अब कैसे निभाएंगे नीतीश?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने अब नीतीश कुमार के लिए समस्याएं बढ़ा दी हैं

Sanjay Singh

भारतीय राजनीति में लालू प्रसाद यादव अनूठी खासियत वाली शख्सियत हैं. 1000 करोड़ रुपए के चारा घोटाले के वह दोषी हैं. उन्हें पांच साल जेल काटने की सजा सुनाई जा चुकी है और इस समय वह जमानत पर बाहर हैं. फिर भी वह बिहार में नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव सरकार पर हावी हैं.

लालू खुलेआम जेल में बंद मोहम्मद शहाबुद्दीन की पसंद का पूरा ख्याल रखते हैं. बिहार के बाहर कांग्रेस पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करते हैं और 2019 में होने वाले आम चुनावों के लिए एक काल्पनिक बीजेपी विरोधी भव्य गठबंधन की इमारत के प्रमुख वास्तुकारों में से एक हैं.


सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ताकतवर राजद प्रमुख लालू प्रसाद को जबरदस्त झटका लगा है. अदालत ने न सिर्फ आपराधिक साजिश के आरोप को फिर से बहाल करने, बल्कि चारा घोटाले के बाकी पांच मामले में उनके खिलाफ मामला चलाने का आदेश दे दिया है. उनके लिए हरेक मामले की सुनवाई प्रक्रिया अलग होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट के 2014 के फैसले पर सख्त रुख अख्तियार करते हुए उस फैसले को पूरी तरह उलट दिया है. खास बात ये है कि इससे पहले झारखंड हाईकोर्ट ने कहा था कि चूंकि एक मामले में लालू को दोषी ठहराया जा चुका है, लिहाजा उसी तरह के अन्य मामलों में उन पर अलग-अलग आरोप नहीं लगाए जा सकते हैं.

लालू के लिए समस्या यह है कि पहले से ही वह एक ऐसे ही मामले में दोषी ठहराए जा चुके हैं. ऐसे में उन्हें उसी तरह के अन्य मामलों में दोषी ठहराए जाने की संभावना बहुत बढ़ गई है. सीबीआई की विशेष अदालत सितंबर 2013 में उन्हें झारखंड के चाईबासा (घोटाले के समय बिहार का हिस्सा) से धोखाधड़ी से पैसे की निकासी मामले में दोषी ठहरा चुकी है. राजकोष से होने वाली वह निकासी चारा घोटाले के 1000 करोड़ रुपये का ही हिस्सा थी. यह निकासी तब हुई थी, जब लालू बिहार के मुख्यमंत्री थे.

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लालू का नाम हमेशा के लिए इतिहास में एक ऐसे शख्स के रूप में दर्ज हो गया, जिसे भ्रष्टाचार के मामले में पांच साल की लगातार कैद की सजा के कारण 15वीं लोकसभा की सदस्यता गंवानी पड़ी थी.

लालू के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मायने गंभीर हैं. इसका दोहरा प्रभाव होगा- कानूनी और राजनीतिक. हालांकि कानूनी लड़ाई तथ्यों, सबूतों और वैधता के आधार पर अदालतों में लड़ी जाएगी. लेकिन आरजेडी प्रमुख के मामलों को जिस बात ने सबसे ज्यादा जटिल बना दिया है, वह यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के लिए नौ महीने की एक समयसीमा तय कर दी है, जिसमें ये सुनवाई पूरी होनी है और फैसले भी आने हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से लालू के अलावे जिन लोगों को परेशानी हो सकती है, उनमें उनके उपमुख्यमंत्री बेटे तेजस्वी, उनके मंत्री-पुत्र तेज प्रताप, सांसद (राज्यसभा) बेटी मीसा भारती, उनकी पूर्व मुख्यमंत्री और एमएलसी पत्नी राबड़ी देवी और उनकी पार्टी के दूसरे मंत्री और विधायक हैं. मगर उनकी परेशानियों से कहीं ज्यादा इस फैसले का राजनीतिक मतलब है.

बिहार में आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस गठबंधन के पीछे की ताकत लालू प्रसाद यादव ही हैं. हालांकि, बिहार विधानसभा चुनाव 2015 के लिए नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री का चेहरा थे. लेकिन वास्तव में वह लालू प्रसाद यादव और उनके मजबूत मुस्लिम-यादव सामाजिक गठजोड़ की ताकत ही थी, जो इस गठबंधन को सत्ता में ले आई थी.

नीतीश लालू को अपना बड़ा भाई कहा करते थे और आरजेडी के साथ अपने अनैतिक और अपवित्र गठबंधन का औचित्य इसलिए वो ठहराते थे, क्योंकि नीतीश कुमार उभरते हुए नरेंद्र मोदी और बीजेपी की सांप्रदायिक ताकत से देश को बचाना चाहते थे.

नीतीश की सत्ता में वापसी हुई, लेकिन इस गठबंधन ने राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेले जा चुके लालू, उनके परिवार और उनकी प्राइवेट लिमिटेड पार्टी आरजेडी को फिर से जिंदा कर दिया.

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सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने अब नीतीश कुमार के लिए समस्याएं बढ़ा दी हैं. हालांकि, नीतीश ने यह साबित कर दिया है कि वे असली राजनीतिज्ञ हैं. क्योंकि उनके सभी कार्य जहां सत्ता की शक्ति से तय होते हैं, वहीं महीने भर से भी कम समय से लालू से संबंधित सारी उल्टी खबरें भी सामने आती रही.

इनमें लालू और उनके परिवार का भूमि अधिग्रहण मामला, 200 करोड़ रूपए के अनुमानित मूल्य के विशाल मॉल का निर्माण और पटना के वनस्पति उद्यान को भरने के लिए उसी मॉल से खोदी गयी मिट्टी के लिए सरकार द्वारा भुगतान, मंत्रिपरिषद की उम्मीदवारी के लिए कांति सिंह और रघुनाथ झा द्वारा लालू को जमीनी संपत्ति भेंट किया जाना, बीयर और शराब की भट्ठी का कथित अधिग्रहण, सिवान जिला एसपी को जेल में बंद डॉन शहाबुद्दीन के इशारों पर काम किये जाने का निर्देश, आरजेडी मंत्रियों और विधायकों के जरिए व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए अपने कार्यालय और निवास का उपयोग शामिल हैं.

नीतीश ने अब तक इन आरोपों पर किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. उनकी चुप्पी रणनीतिक हो सकती है, क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनकी अगुवाई वाली सरकार के अस्तित्व की चाबी लालू प्रसाद यादव के हाथ में है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अहमियत को देखते हुए ऐसा लगता है कि नीतीश उचित समय पर प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर जरूर होंगे. अगर उनकी तरफ़ से किसी तरह की कार्रवाई या प्रतिक्रिया नहीं होती है, तो ये चर्चा जोर पकड़ सकती है कि मनमोहन सिंह की तरह नीतीश ने भी अपने सहयोगी की तरफ़ से लगातार होते भ्रष्टाचार को लेकर अपनी आंखें मूंद ली हैं.

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इस समय नीतीश की 'सुशासन बाबू' की छवि को गंभीर खतरा है. आरजेडी प्रमुख की तरफ़ से पार्टी के कई सहयोगियों पर लगातार पड़ते दबाव और खींचतान से वो असहज महसूस करने लगे हैं.

पिछले साल सितंबर-अक्टूबर में जब माफिया डॉन शहाबुद्दीन को जेल से रिहा किया गया था, तो भागलपुर जेल से 1000 से अधिक एसयूवी गाड़ियों का काफिला जुलूस निकालते हुए शहाबुद्दीन के जन्म स्थान सीवान तक गया था.

नीतीश को नीचा दिखाते हुए उन पर तंज कसा गया था और शहाबुद्दीन ने उन्हें "मजबूरी का एक नेता (मुख्यमंत्री)" कहा था. उन दिनों नीतीश की जेडीयू और लालू की आरजेडी दोनों ही गठबंधन को लेकर अन्य राजनीतिक पार्टियों के साथ गठजोड़ पर विचार करने लगे थे और सरकार बनाने के विकल्प की संभावना तलाशनी शुरू कर दी थी. हालांकि समस्या दोहरी थी. एक तरफ कांग्रेस नीतीश को नजरअंदाज कर लालू पर दांव नहीं लगाना चाह रही थी, दूसरी तरफ़ विधानसभा की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि बिना बीजेपी या फिर आरजेडी या जेडीयू की टूट के वैकल्पिक सरकार की संभावना दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी.

243 सीटों वाले बिहार विधानसभा में आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है. इसके बाद जेडीयू के पास 71 सीटें और कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं. जबकि बीजेपी के पास 53 सीटें हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई अदालत को मुकदमा समाप्त करने और फैसले देने के लिए जो 9 महीने की निर्धारित समय सीमा दी है, वह 9 महीने बिहार में संभावनाओं से भरे होंगे. लेकिन उभरती हुई स्थितियों पर प्रतिक्रिया देने की जिम्मेदारी लालू पर कम और नीतीश पर ज्यादा होगी.