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चुनावी चंदे पर अलग-अलग सरकारों का एक ही राग

इस देश के राजनीतिक दलों को मिले विदेशी चंदे के बारे में भारत के केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित नहीं किया जाएगा.

Surendra Kishore

बीते 17 दिसंबर को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनावों में पार्टियों की फंडिंग पर संसद में बहस चाहते हैं. लेकिन शाह और मोदी चाहे जो कहें वो कर वही रहे हैं जो सालों पहले कांग्रेस के सरकार ने किया था.

विदेशी चंदे के बारे में जो बात 1967 में तत्कालीन गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने संसद में कही थी, उसी तरह की बात केंद्र सरकार ने 2015 में सुप्रीम कोर्ट में कही है.


चव्हाण ने कहा था कि ‘इस देश के राजनीतिक दलों को मिले विदेशी चंदे के बारे में भारत के केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित नहीं किया जाएगा. क्योंकि इसके प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों को हानि होगी.’

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2015 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि ‘भारत सरकार राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाने का विरोध करती है.’

याद रहे कि राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाने में जब केंद्रीय सूचना आयोग ने खुद को असमर्थ पाया तो इसको लेकर एक जनहित याचिका दायर की गई. उसी याचिका के संदर्भ में केंद्र सरकार ने अपना पक्ष अदालत में रखा. अधिकतर प्रमुख दलों की भी ऐसी ही राय रही है.

नरेंद्र मोदी को रोक कौन रहा है ? 

यानी पिछले पचास साल से सरकारों और सत्ताधारी दलों का रवैया इस मामले में कमोबेश एक ही रहा है. यानी राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता नहीं लाने को लेकर लगभग आम सहमति रही है.

अपवादों की बात और है. अपवाद प्रभाव नहीं डाल सकते. नतीजतन राजनीतिक भ्रष्टाचार बढ़ता गया. उसने प्रशासन को भ्रष्ट बनाया. फिर बाकी क्षेत्रों में गिरावट आनी ही थी.

जिस तरह लगभग सभी राजनीतिक दलों के सांसद एकमत से अपने वेतन भत्तों में समय-समय पर भारी वृद्धि करते जाते हैं, उसी तरह अपवादों को छोड़कर सारे दल सर्वसम्मति से चुनावों में काले धन के इस्तेमाल में बढ़ोत्तरी करते जा रहे हैं.

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इस बीच प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार दुहराते रहते हैं कि ‘मैं चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के पक्ष में हूं.’ पर पता नहीं इस काम में उन्हें दिक्कत कहां आ रही है! अपनी दिक्कत वह देश को क्यों नहीं बताते?

पर इंदिरा सरकार ने ऐसा किया क्यों?

खैर, बात 1967 की जाए !

तत्कालीन केंद्र सरकार ने यदि उसी समय पारदर्शिता की दिशा में निर्मम कार्रवाई कर दी होती तो आज राजनीति में काले धन के बढ़ते प्रभाव की जैसी घातक स्थिति है, वह नौबत नहीं आती.

साल 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गई थी. याद रहे कि कुछ ही सप्ताह के भीतर दल बदल के कारण दो अन्य प्रमुख राज्यों की कांग्रेसी सरकारें भी गिर गयी थीं. वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें  बन गयीं थीं.

लोक सभा में भी कांग्रेस का बहुमत कम हो गया था. उसके बाद प्रतिपक्ष कांग्रेस के कुछ सांसदों को तोड़ने की कोशिश में भी लग गये थे. तब तक लोक सभा व विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे.

इस अभूतपूर्व हार पर तत्कालीन  इंदिरा  सरकार चिंतित हो उठी. पहले से ही उसे अपुष्ट खबरें मिली थीं कि इस चुनाव में विदेशी धन का इस्तेमाल हुआ है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद एक नया सिलसिला शुरू हुआ था.

दुनिया के कुछ प्रमुख देशों की सरकारें खास तौर पर एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के देशों में जनमत अपने पक्ष में बनाने  के लिए धन का सीधा इस्तेमाल शुरू किया. बड़े देशों  के सैद्धांतिक एजेंट हर जगह मौजूद थे. सरकार ने केंद्रीय गुप्तचर विभाग को विदेशी चंदे की जांच का भार दिया.

जांच रिपोर्ट सरकार को सौंप दी गयी. पर, रिपोर्ट को सरकार ने दबा दिया क्योंकि वह रिपोर्ट सरकारी दल के लिए भी असुविधाजनक थी.

क्या हुआ जब रिपोर्ट सामने आ ही गई

उस रिपोर्ट को बाद में ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने छाप दिया.

उस अखबार की खबर के अनुसार एक खास राजनीतिक दल को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दलों ने विदेशी चंदा स्वीकार किया था.

गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी और कम्युनिस्ट दूतावासों ने राजनीतिक दलों को  पैसे दिये. उन दिनों विश्व के दो खेमों के बीच शीत युद्ध जारी था. एक खेमे का नेतृत्व अमेरिका और दूसरे खेमे का नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था.

साल 1967 के चुनाव में तो एक बड़े नेता के क्षेत्र में दोनों प्रमुख देशों ने दो प्रमुख परस्पर विरोधी उम्मीदवारों के पक्ष में अलग अलग पैसे लगाये.

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न्यूयार्क टाइम्स की इस सनसनीखेज रिपोर्ट पर 1967 कें प्रारंभ में लोक सभा में गर्मागर्म चर्चा हुई. परिणामस्वरूप इस देश के अखबारों में भी इस खबर को बाद में काफी कवरेज मिला.

संसद में स्वतंत्र पार्टी के एक सदस्य ने गृह मंत्री से पूछा कि क्या वे गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित करने की तकलीफ उठाएंगे ताकि राजनीतिक दलों को जनता के बीच सफाई पेश करने का मौका मिल सके?

रिपोर्ट के प्रकाशन से मना करते हुए  चव्हाण ने यह जरूर कहा था कि केंद्र सरकार चुनाव आयोग की मदद से संतानम समिति के उस सुझाव पर विचार कर रही है. इस समिति ने कहा था कि  जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों को हर संभव स्त्रोतों से प्राप्त होने वाली धन राशि की जांच हो.

इस देश का दुर्भाग्य ही रहा है कि संतानम समिति की रपट को लागू करने की आज भी जनता आस लगाए बैठी हुई है.

इस बीच राजनीति में काले धन का इस्तेमाल दिन प्रति दिन बढ़ते जाने की ही खबरें देश के विभिन्न हिस्सों से आती रहती हैं.चुनाव में काला धन के बढ़ते असर से राजनीति की शुचिता प्रभावित हो रही है. भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. विशेषज्ञ बताते हैं कि भष्ट्राचार ने विकास की गति को धीमा कर दिया है. इसे प्रधान मंत्री भी मानते हैं.