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जब इंदिरा की इच्छा के खिलाफ कट गया कृष्ण मेनन का टिकट

माना जाता है कि केंद्रीय मंत्री एस के पाटील के विरोध के कारण मेनन का टिकट कटा.

Updated On: Jan 12, 2017 02:17 PM IST

Surendra Kishore Surendra Kishore
वरिष्ठ पत्रकार

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जब इंदिरा की इच्छा के खिलाफ कट गया कृष्ण मेनन का टिकट

कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति ने 1967 में पूर्व रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन का टिकट काट दिया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उन्हें टिकट देने के पक्ष में थीं. याद रहे कि मेनन उत्तर बंबई लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर 1957 और 1962 में चुने गए थे.

साल 1967 के आम चुनाव से ठीक पहले बंबई के दो लाख मतदाताओं ने कांग्रेस हाईकमान से लिखित अपील की थी कि वह मेनन को उत्तर पूर्व बंबई लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाए. मेनन की उम्मीदवारी को लेकर एस के पाटील के विरोध को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया गया था. इस अपील को ठुकरा कर कांग्रेस ने उत्तर-पूर्व बंबई लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने पूर्व आईसीएस अफसर एस जी बर्वे को टिकट दे दिया. मेनन निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े, लेकिन बर्वे से एक लाख 31 हजार मतों से हार गए.

देशभर में यह आम धारणा बनी कि तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एस के पाटील के कड़े विरोध के कारण ही दिग्गज नेता मेनन का टिकट कटा. उधर, एस के पाटील भी उस साल के चुनाव में दक्षिण बंबई चुनाव क्षेत्र में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के जॉर्ज फर्नांडिस से हार गए थे. जॉर्ज तब ‘जाइंट किलर’ कहलाए.

कहते हैं कि एस के पाटील के प्रभाव में आकर बंबई कांग्रेस पार्टी ने वी के कृष्ण मेनन से सार्वजनिक रूप से यह अपील भी की थी कि वह टिकट की मांग न करें.

यह संयोग ही रहा कि 1967 में हार के बाद दोनों नेताओं ने बाद में उपचुनाव लड़ा. सन 1969 में मेनन पश्चिम बंगाल से उपचुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे और पाटील गुजरात से लड़कर सांसद बने. यानी दोनों ने बंबई छोड़ दिया. मेनन निर्दलीय लड़े और पाटील कांग्रेस के टिकट पर.

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वर्ल्ड बैंक के वाइस-प्रेसिडेंट के साथ एस के पाटील. (तस्वीर: फोटो डिविजन, भारत सरकार)

तब कांग्रेस में एक खास तरह का आंतरिक लोकतंत्र था. लोकतंत्र तब ‘क्षेत्रीय दादाओं के समूह का लोकतंत्र’ था. वे ही पार्टी पर हावी थे. आज की तरह नहीं जब अधिकतर दलों का लोकतंत्र एक सुप्रीमो के जरिए व्यक्त होता है.

1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद बंबई के दादा एस के पाटील और कलकत्ता के दादा अत्युल्य घोष थे. के कामराज मद्रास के थे. तब तमिलनाडु का नाम मद्रास ही था. हालांकि कामराज तो कांग्रेस अध्यक्ष भी थे. दल उन दिनों कैसे चलाए जाते थे, यदि आज की पीढ़ी उस इतिहास को पढ़े तो उसे आज के दमघोटू केंद्रीयकरण व नेताओं की तानाशाही पर हैरानी होगी. आज अधिकतर दलों में से प्रत्येक का कोई एक ही नेता आम तौर पर हर बड़ा फैसला करता है.

इंदिरा गांधी पहली बार 1966 में प्रधानमंत्री बनी थीं. कांग्रेस के भीतर की ताकतवर लॉबी, जिसे तब ‘सिडिकेंट’ कहा जाता था, की मदद से इंदिरा गांधी पीएम बनी थीं. सिंडिकेट ने इंदिरा जी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी मोरारजी देसाई को इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया क्योंकि सिंडिकेट के अनुसार, ‘वह जिद्दी हैं और हमारे कहे अनुसार नहीं चलेंगे.’

यानी इंदिरा गांधी का तब तक पार्टी से अलग अपना कोई वोट बैंक नहीं बन सका था. वह तब बना जब इंदिरा ने 1969 में गरीबी हटाओ का नारा देकर बैंक राष्ट्रीयकरण किया. ऐसे कुछ अन्य काम भी किए. लेकिन उससे पहले कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति में भी प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी का बहुमत नहीं था. तब तक संगठन का चुनाव भी मनोनयन के बदले लोकतांत्रिक तरीेके से हुआ करता था. 1971 के बाद ज्यादातर मामलों में मनोनयन होने लगा.

1967 में कांग्रेस केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्य डी पी मिश्र को छोड़कर कोई अन्य सदस्य खुलकर इंदिरा गांधी के साथ नहीं था. अन्य सदस्य इंदिरा जी से सौदेबाजी करते थे.

इंदिरा भी चाहती थीं कि राज्य विधानसभा की उम्मीदवारी को लेकर भले अन्य नेताओं की चले, लेकिन लोकसभा के मामले में उन्हीं की चले. ताकि, उन्हें अगली बार प्रधानमंत्री बनने के लिए उन्हें सिंडिकेट पर निर्भर नहीं रहना पड़े. मेनन के मामले में पाटील के अलावा मोरारजी देसाई और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डीपी मिश्र भी इंदिरा जी के विरोधी हो गए थे. मेनन पहले नेहरू और बाद में इंदिरा के कट्टर समर्थक थे. वह वामपंथी झुकाव के थे.

याद रहे कि 1967 तक देश में लोक सभा के साथ-साथ राज्य विधान सभाओं के भी चुनाव होते थे.

1967 की हार के बाद मेनन पूरी तरह कम्युनिस्टों की शरण में चले गए. पहले से ही कम्युनिस्टों के प्रिय मेनन को कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल से लोक सभा तक पहुंचवा दिया. सन 1969 में मिदनापुर क्षेत्र में उपचुनाव हुआ था जिसमें मेनन जीत गए. सन 1974 में उनका निधन हो गया.

मेनन के 1967 में टिकट कटने के साथ-साथ उनके 1969 में उप चुनाव जीतने तक की खबरें उन दिनों सुर्खियों में रहती थीं. इसके कई कारण थे. ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त के कार्यकाल में मेनन पर जीप घोटाले का आरोप लगा था. आजादी के बाद का वह पहला घोटाला होते हुए भी मेनन का उस कारण कुछ नहीं बिगड़ा.

उस घोटाले के जरिए आम जागरूक लोगों ने तत्कालीन हुक्मरानों को तभी जान लिया कि देश को वे कहां और कैसे ले जाएंगे.

इस घोटाले के बावजूद उन्हें 1956 में केंद्र में निर्विभागीय मंत्री बना दिया गया था. बाद में वे रक्षा मंत्री बने. याद रहे कि जिस जीप का घोटाला हुआ था, वह रक्षा मंत्रालय के लिए ही मंगाया जाने वाला था.

चीन-भारत युद्ध में जब भारत की अपमानजनक हार हुई तो मेनन को रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. उससे पहले मेनन ने 1957 में कश्मीर मामले पर संयुक्त राष्ट्र में लगातार 8 घंटे तक जोरदार भाषण दिया था. वह न सिर्फ लंबा भाषण दे सकते थे बल्कि लंबे समय तक अनेक कप चाय, बिस्किट और मूंग के कटलेट पर रह जाते थे. परिणास्वरूप उन्होंने अपना स्वास्थ्य खराब कर रखा था.

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