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कांग्रेस: 'गठबंधन अमृत' नाकाफी, जमीनी कार्यकर्ताओं को करना होगा मजबूत

कांग्रेस अध्यक्ष समेत शीर्ष नेताओं को शहर शहर गांव-गांव घूमना चाहिए. जमीनी कार्यकर्ताओं को जोड़ने के लिए जमीन पर उतरना पड़ेगा

Aparna Dwivedi

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक में प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देते हुए कहा कि अगर विपक्षी एकजुटता हो तो बीजेपी 2019 का चुनाव नहीं जीत पाएगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बनारस की अपनी सीट पर हार का सामना कर सकते हैं. दस साल तक गठबंधन की सरकार चलाने के बाद कांग्रेस को गठबंधन पर भरोसा हो गया है, इसलिए 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद कांग्रेस की कोशिश रही है कि विपक्ष को एकजुट कर एक ऐसा मंच बनाया जाए जो मोदी सरकार का मुकाबला कर सके.

विचार ये है कि बीजेपी को रोकने का एक मात्र तरीका विपक्ष एकजुटता है. कांग्रेस की कोशिश है कि ये एकजुटता में कांग्रेस के नेतृत्व में हो. इससे वो अपनी प्रभुता भी साबित कर लेगी और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज भी हो जाएगी. लेकिन अगर कांग्रेस के नेताओं से पूछा जाए खास कर जमीनी स्तर के नेताओं से पूछा जाए तो उन्हें गठबंधन की राजनीति रास नहीं आती.


राष्ट्रपति बनने से पहले कांग्रेस में लंबी पारी निभाने वाले प्रणब मुखर्जी ने एकला चलो की रणनीति की हिमायत करते हुए कहा कि कांग्रेस एकमात्र इसी तरीके से अपनी पहचान बनाए रख सकती है. अपनी पुस्तक, ‘द कोएलिशन ईयर्स: 1996-2012’ में पूर्व राष्ट्रपति ने कहा, पार्टी को एक सरकार गठित करने के लिए अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए. विपक्ष में बैठने से कोई नुकसान नहीं है.

गौरतलब है कि कांग्रेस ने कई साल स्वतंत्र रूप से शासन करने के बाद चार सितंबर से छह सितंबर 1998 के बीच हुए पंचमढ़ी सम्मेलन में पहली बार गठबंधन की राजनीति की अहमियत को स्वीकार किया था. हालांकि उस समय भी ये तय किया गया था कि जहां बिल्कुल जरूरी होगा, गठबंधन पर विचार किया जाएगा. लेकिन 2004 के बाद पार्टी गठबंधन की राजनीति में ऐसी घुसी कि वहां से निकलने का सोचा ही नहीं.

गठबंधन की राजनीति पर ये विचार सिर्फ प्रणब मुखर्जी की है. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता जो पार्टी के संगठन में मजबूत भूमिका निभा रहे थे, उनका मानना है कि सरकार बनाने के लिए गठजोड़ से सत्ता तो मिल जाती है लेकिन कांग्रेस पार्टी की पहचान को सिर्फ कमतर होती जा रही है.

कांग्रेस अपने ही विरोधियों के साथ करती गठबंधन

इंदिरा गांधी ने एक बार कहा था कि कांग्रेस को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है. गठबंधन की राजनीति में जुटी कांग्रेस के लिए ये बहुत बड़ा सच है.

सोनिया गांधी ने जब ने 13 मार्च को रात्रिभोज का आयोजन किया था उसमें 20 दलों के नेता शामिल हुए थे. इनमें राम गोपाल यादव (समाजवादी पार्टी), बदरुद्दीन अजमल (एआईयूडीएफ), शरद पवार (एनसीपी), तेजस्वी यादव (आरजेडी), मीसा भारती (आरजेडी), उमर अब्दुल्ला (नेशनल कांफ्रेंस), हेमंत सोरेन (जेएमएम), अजीत सिंह (आरएलडी), डी राजा (सीपीआई), मोहम्मद सलीम (सीपीएम), कनिमोझी (द्रमुक), कुट्टी (मुस्लिम लीग), सतीश चंद्र मिश्रा (बीएसपी), केरल कांग्रेस, बाबू लाल मरांडी (जेवीएम), रामचंद्रन (आरएसपी), शरद यादव (भारतीय ट्राइबल पार्टी), सुदीप बंधोपाध्याय (टीएमसी), जीतन राम मांझी (हिंदुस्तान अवाम मोर्चा), डॉ. कुपेंद्र रेड्डी (जेडी-एस), सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, गुलाम नबी आजाद, मल्लिकार्जुन खड़गे, अहमद पटेल, एके एंटोनी, रणदीप सुरजेवाला (कांग्रेस) थे.

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आज कांग्रेस जिनसे गठबंधन करने की कोशिश में लगी है वो या तो कांग्रेस में विरोध के चलते अलग हुए—जैसे शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, या फिर ममता बैनर्जी की तुणमूण कांग्रेस या फिर कांग्रेस के विरोध में राजनीति में आए. इनमें आरजेडी, बीएसपी, जेएमएम, एआईयूडीएफ, नेशनल कांफ्रेंस, आरएलडीसीपीआई, सीपीएम, द्रमुक, मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस, जेवीएम, आरएसपी, जेडी-एस जैसी पार्टी है.

ये सारी पार्टियों का कैडर जाति धर्म और क्षेत्र के हिसाब से अलग है लेकिन सेंध सबने कांग्रेस के वोट बैंक पर ही लगाई है. और आलम ये है पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस कई राज्यों में अपना खाता खोल ही नहीं पाई और कई राज्यों में तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी बन कर रह गई. दिल्ली जैसे राज्य में जहां पर कांग्रेस ने पंद्रह साल राज किया वहां पर भी वो बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बाद तीसरे नंबर पर आई है.

कांग्रेस का खत्म होता कैडर

देश में कभी एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस 11 राज्यों में एक भी लोकसभा सीट हासिल नहीं कर पाई और जहां पर वापस भी आई कुछ को छोड़ तीसरे या चौथे नंबर पर दिखी. जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल में वो चौथे नंबर पर दिखी. अब सवाल ये उठता है कि अगर वो राज्यों में कैडर बचा नहीं पा रही है तो केंद्र में कब तक दूसरों के बल पर सरकार बनाती रहेगी.

गठबंधन से नाराज कार्यकर्ता

गठबंधन से कांग्रेस के बड़े नेता तो खुश हैं लेकिन जमीन पर काम करने वाले कांग्रेसी हताश हो चुके हैं. जानकारों की मानें तो कार्यकर्ता इसके बाद खुद को पार्टी का विश्वस्त नहीं बनाए रख पाते हैं. जब गठबंधन होता है उसमें सबसे ज्यादा नुकसान कार्यकर्ताओं का ही होता है. यही कार्यकर्ता पार्टी बनाता है. ऊपरी तौर पर भले ही कुछ बड़े नेताओं के नाम से पार्टी जानी जाती हो लेकिन पार्टी की असली ताकत उसके जमीनी कार्यकर्ता होते हैं.

एक नुकसान ये होता है कि तमाम सीटों पर अच्छा उम्मीदवार होने के बाद भी गठबंधन की वजह से कांग्रेस यहां से अपना प्रत्याशी नहीं उतार सकती. ऐसे क्षेत्रों में कांग्रेस का संगठन ठप हो गया है. और पार्टी टूट गई थी. संगठन में हताशा कांग्रेस की लिए बुरी खबर है.

ममता बनर्जी का वन टू वन फार्मूला कांग्रेस के अंत का संकेत

साल 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी को परास्त करने के लिए टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी ने एक फार्मूला तैयार किया है. बीजेपी के खिलाफ वन टू वन चुनाव लड़ने का फैसला. ममता के इस फार्मूले का एक बेस है- बीजेपी बनाम सब. और इसका नेतृत्व राज्य के हिसाब से होगा. यानी जिस राज्य में बीजेपी के खिलाफ जो पार्टी मजबूत हो, बाकी सभी पार्टी उसका सहयोग करेगी. यानी जिस राज्य में बीजेपी के खिलाफ जिस पार्टी को सबसे ज्यादा वोट मिला होगा उसी पार्टी के उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे और बाकी कोई भी दल अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगा, ताकि बीजेपी के खिलाफ वोट बंटे नहीं.

अगर कांग्रेस इसे मानती है तो इसका मतलब वो सिर्फ कुछ ही राज्यों में चुनाव लड़ सकती है. इसमें अंडमान-निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, चंडीगढ़, दादर एवं नागर हवेली, दमन ऐंड दीव, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, लक्षद्वीप, मध्य प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, पुडुचेरी, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, और उत्तराखंड आते हैं. यानी कुल 543 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस सिर्फ 192 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

ममता का ये फार्मूला कांग्रेस के लिए घातक है. कांग्रेस विरोधियों का कहना है कि सिर्फ 44 सीटों पर काबिज कांग्रेस को इतनी सारी सीटों पर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव उनके हिसाब से ठीक है लेकिन कांग्रेस संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि अगर कांग्रेस ने इस तरह के किसी भी प्रस्ताव के लिए हामी भरी तो वो अपने अंत के लिए हामी भरेगी.

पंचमढ़ी सम्मेलन में पहली बार गठबंधन की राजनीति पर जब कांग्रेस ने चर्चा की तो साथ ही इस पर भी बात हुई कि गठबंधन से पार्टी कमजोर हो जाएगी. पार्टी अगर अपने कार्यकर्ताओं को खुश नहीं रख पाएगी तो वो छिटकेगा और भागेगा. साथ ही बाकी पार्टियां आपको कमतर आंकेगी. कुछ वही स्थिति कांग्रेस के सामने आ खड़ी है जब ममता बैनर्जी बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस को सारी विपक्षी पार्टियों के साथ काम करने की सलाह दे कर आई हैं.

बीजेपी का उदाहरण देखें तो गठबंधन की सरकार चलाने में 13 दिन और 13 महीने और फिर पांच साल की एनडीए सरकार चलाने के बाद बीजेपी को लगा कि अपने कैडर को मजबूत कर मैदान में कूदना चाहिए. और वहीं मेहनत रंग लाई और बीजेपी 2014 में बहुमत साबित कर सरकार बनाई.

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कांग्रेस ने ये तो मान लिया है कि संगठन कमजोर है और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी नई तकनीक का इस्तेमाल करते हुए अपने संगठन को मजबूती देने की कोशिश में लग गए हैं. कांग्रेस की कोशिश है कि इसमें वो युवाओं, दलित और पिछड़ों पर ज्यादा जोर दे. पार्टी बाकायदा ट्रेनिंग कैंप लगा रही है. पार्टी से जोड़ नए युवाओं को जोड़ रही है. राहुल गांधी की ये कोशिश कार्यकर्ताओं और नेताओं को उत्साहित कर रही है.

पहले कांग्रेस हर साल अधिवेशन करती थी और वो भी अलग अलग राज्यों के छोटे छोटे शहरों में. इसका फायदा ये होता था कि वहां का कार्यकर्ता और नेता जम कर काम करते थे और नेताओं का जमावड़ा जिस शहर और क्षेत्र में होता था वहां पर कांग्रेस का जीतना तय हो जाता था. साथ ही कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वो लोकसभा की हर सीट पर चुनाव लड़े. इससे कार्यकर्ता एकजुट होंगे और संगठन मजबूत होगा. साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष समेत शीर्ष नेताओं को शहर-शहर, गांव-गांव घूमना चाहिए. जमीनी कार्यकर्ताओं को जोड़ने के लिए जमीन पर उतरना पड़ेगा.