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छत्तीसगढ़: जोगीमुक्त होकर ही कांग्रेस को क्यों मिली सत्ता?

कांग्रेस के लिए छत्तीसगढ़ की यह जीत साल 2013 में राजस्थान में वसुंधरा व बीजेपी को और दिल्ली में केजरीवाल की आप को मिली जीत जैसी ही जबरदस्त मगर चुनौतीपूर्ण है.

Anant Mittal

क्या छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यीय विधानसभा में 68 सीटों के रिकार्ड तोड़ बहुमत से कांग्रेस की सत्ता में वापसी ने राज्य में कभी उसके ही एकछत्र नेता रहे अजीत जोगी के गठबंधन द्वारा सात सीट हासिल करने के बावजूद उन्हें महत्वहीन बना दिया है? क्या जोगी की मौजूदगी कांग्रेस के लिए नुकसानदायक  साबित हो रही थी? यह सवाल राजनीतिक गलियारों में इसलिए कौंध रहे हैं क्योंकि नवंबर, 2000 में अलग राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ के गठन के बाद से ही अजीत जोगी की कारगुजारियां कांग्रेस के लिए घातक साबित होती रही हैं.

मौजूदा विधानसभा चुनाव से दो साल पहले अपनी कारगुजारियों से कांग्रेस में किनारे लगने के डर से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस-जे बना ली थी. फिर भी चुनाव बाद बनने वाली सरकार का किंगमेकर बनने की हवा स्थानीय ही नहीं राष्ट्रीय मीडिया में भी जोगी पुत्र और पूर्व विधायक अमित ने बड़ी बारीकी से चला दी थी. हालांकि छत्तीसगढ़ की राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों को चुनावी बाजी पलटने का अनुमान बस्तर में अपूर्व उत्साह और संख्या में पड़े वोटों से लग गया था मगर कथित राजनीतिक विश्लेषकों की आंखें तब भी नहीं खुलीं. लिहाजा जोगी को तीसरी ताकत बता कर वे रमन सिंह चौकड़ी द्वारा राज्य में सत्ता का चौका मारने की भविष्यवाणी आखिरी दिन तक करते रहे.


इसी वजह से चुनाव नतीजे आने पर अपने पूर्वाग्रहों की कलई खुलने के बावजूद विश्लेषकों द्वारा लीपापोती का दौर यह कह जारी रखा गया है कि जोगी दरअसल कांग्रेस की जगह बीजेपी के वोट खा गए जिसके चलते बिल्लियों की लड़ाई में कांग्रेस बंदर साबित हुई जो सत्ता की मलाई हथिया कर ले गया. जबकि चुनाव नतीजों से यह साफ है कि जनता ने राज्य में डॉ. रमन सिंह और जोगी की कुनबापरस्ती को डंके की चोट पर नकारा है और जोगी-शुक्ला विहीन कांग्रेस को डेढ़ दशक बाद सत्ता का लड़डू सौंपा है. गौरतलब है कि रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह 2014 से लोकसभा सदस्य हैं और जोगी, उनकी पत्नी रेनु जोगी विधानसभा चुनाव जीते हैं जबकि पुत्रवधू ऋचा हार गई हैं.

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इस आदिवासी बहुल और बेशकीमती खनिजों से मालामाल राज्य के गरीब मतदाताओं ने रमन सिंह को सत्ता की चाबी अपने बेटे-दामाद-पत्नी और चुनिंदा नौकरशाहों के हाथ में सीमित कर देने के अपराध में बीजेपी को सत्ताच्युत करके निर्णायक सजा सुनाई है. पिछले पांच साल में रमन सिंह के बेटे-दामाद और भाभी जी तथा कुछ अन्य नजदीकियों का जिक्र एक से अधिक वीडियो अथवा ऑडियो सीडी के जरिए राज्य की जनता बखूबी सुन चुकी थी.

इसलिए अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार को करोड़ों रुपए के एवज में बैठा देने वाले कांड में रमन सिंह के बेटे-दामाद से जोगी पिता-पुत्र की कथित मिलीभगत उजागर होने के जहर को जनता ने अपने गले के नीचे तभी उतारा जब उसने रमन और जोगी कुनबे को सत्ता से बाहर कर दिया.

राज्य के पहले मुख्यमंत्री के रूप में हों या फिर पार्टी के पायेदार नेता के रूप में जोगी न कभी खुद चैन से बैठे और ना ही उन्होंने 2003 का चुनाव हारने के बाद पिछले 15 साल में कांग्रेस के किसी भी प्रदेश अध्यक्ष को कायदे से पार्टी को चलाने तथा अनुशासित करके सत्ता में वापसी करने का मौका हासिल करने दिया.

जोगी उस कांग्रेस को हमेशा भितरघात से कमजोर करते रहे जिसने उन्हें अदना प्रशासनिक अधिकारी से कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता, फिर कांग्रेस के अनुसूचित जनजाति सेल का राष्ट्रीय संयोजक और अंतत: नवनिर्मित छत्तीसगढ़ जैसे असीम संभावनाओं वाले राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनाया. यह बात दीगर है कि उनके मुख्यमंत्री बनते ही छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के भीतर गुटबाजी की ऐसी नींव पड़ी जो प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार और कांग्रेस के पायेदार नेता रहे विद्याचरण शुक्ल की नक्सलियों के हाथों शहादत और जोगी की कांग्रेस से विदाई के बाद ही खत्म हो पाई.

यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनवाने वाले संयुक्त मध्यप्रदेश के आखिरी मुख्यमंत्री और कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता दिग्विजय सिंह इस चुनाव में प्रचार और मीडिया की नजरों से अधिकतर ओझल ही रहे. इस प्रकार छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति के दो नायक जहां अब कांग्रेसियों के लिए लगभग भूतपूर्व हो चुके तभी देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी इन दोनों राज्यों में फिर से सत्तारूढ़ हो रही है.

हालांकि अजीत जोगी और दिग्विजिय सिंह के कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में हाशिये पर जाने की वजह अलग-अलग हैं. अजीत जोगी को छत्तीसगढ़ में बीजेपी के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की दलाली करने और उसका चौराहे पर भंडा फूटने के कारण कांग्रेस से दूर जाना पड़ा है. वहीं दिग्विजय सिंह अपने बयानों और पार्टी में राजनीतिक जोड़तोड़ में हल्के पड़ने के कारण हाशिये पर हैं.

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यह बात दीगर है कि मध्य प्रदेश में पार्टी के संगठन पर दिग्विजय की पकड़ के मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें चुनाव संचालन समिति की बागडोर सौंपे रखी. उसका भरपूर परिणाम भी सबके सामने है. कांग्रेस पूरे डेढ़ दशक बाद भोपाल में 'वल्लभ भवन' का चार्ज अगले पांच साल के लिए लेने जा रही है. पूरे चुनाव के दौरान दिग्गी राजा बार-बार पार्टी के एकजुट होने का भरोसा दिलाते हुए मुस्तैदी से समन्वय में जुटे रहे. इस लिहाज से देखें तो मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़ दोनों ही सहोदरों में कांग्रेस की जीत में उसके स्थानीय क्षत्रपों की एकजुटता का सबसे अधिक योगदान है.

छत्तीसगढ़ में तो 2013 में भी कांग्रेस की जीत के पूरे आसार थे क्योंकि चुनाव से ऐन पहले बस्तर में नक्सलियों ने उसके लगभग समूचे प्रादेशिक नेतृत्व को नेस्तनाबूद कर दिया था. उसकी वजह से कांग्रेस के प्रति राज्य में सहानुभूति की लहर थी मगर अजीत जोगी ने सतनामी बहुल दर्जन भर सीटों पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की अप्रत्यक्ष मदद करके लगातार तीसरी बार बीजेपी की सरकार बनवा दी थी.

तब सतनामियों के गुरु बाबा बालदास को उचका कर जोगी ने उनकी अलग राजनीतिक पार्टी बनवाई और चुनाव लड़ा दिया जिससे कांग्रेस, उनसे प्रभावित 10 सीटों में से नौ पर चुनाव हारी और बीजेपी ने उन्हें जीत कर कांग्रेस के मुंह में से छत्तीसगढ़ की सत्ता का निवाला छीन लिया. जोगी के इस दांव के बावजूद पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार और बीजेपी की जीत के बीच महज आधा फीसद मतों का अंतर था. यह बात दीगर है कि लगभग बराबर मत पाने के बावजूद बीजेपी 2013 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की 39 से 10 सीट अधिक यानी 49 सीट जीतने में कामयाब रही थी.

उन्हीं बाबा बालदास ने इस बार कांग्रेस के उम्मीदवारों का डटकर समर्थन किया और जोगी के दोहरे चरित्र को उनके कट्टर समर्थक समझे जाने वाले सतनामी मतदाताओं के सामने बेनकाब कर दिया. बालदास की रमन और बीजेपी से नाराजगी की वजह उनकी सरकार द्वारा छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी आरक्षण का कोटा 15 फीसद से घटाकर 12 फीसद कर दिया जाना है.

हालांकि ऐसा राज्य की कुल आबादी बढ़ कर पौने तीन करोड़ पहुंच जाने और उसमें अनुसूचित जाति के निवासियों की संख्या प्रतिशत के अनुपात में घट जाने के कारण किया गया था. गौरतलब है कि साल 2000 में मध्य प्रदेश को तोड़कर छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाए जाते समय कुल आबादी करीब दो करोड़ थी. पिछले 18 साल में राज्य के बालिग होते-होते खनिजों और नई औद्योगिक इकाइयों की कमाई की बदौलत राज्य की आबादी करीब डेढ़ गुना हो चुकी है.

बहरहाल बीजेपी को 15 सीटों पर समेट देने वाले अमीर राज्य के गरीब मतदाताओं ने जोगीविहीन कांग्रेस को सत्ता सौंप कर कम से कम अगले पांच साल तो जोगी को सत्ता से महरूम कर ही दिया है. वैसे भी जोगी के तो मूल आदिवासी होने पर ही विवाद रहा है. साल 2003 के चुनाव में दिलीप सिंह जूदेव ने समूचे आदिवासी अचंल की परिक्रमा करके जनमानस में जोगी के गैर आदिवासी होने की बात पैठा दी थी जिसके कारण उन अंचलों में कांग्रेस की जबरदस्त हार हुई थी.

उसके बावजूद सीडी पॉलिटिक्स के जनक जोगी ने कथित तौर पर जाम और नोटों की गड्डी थामे यह जुमला कहते, 'पैसा खुदा तो नहीं मगर खुदा से कम भी नहीं.' जूदेव का वीडियो नमूदार करके उनके राजनीति करियर पर ग्रहण लगा दिया. वरना शायद 2003 में बीजेपी की ओर से वही मुख्यमंत्री होते. इस तरह विवाद दर विवाद घिरते रहे जोगी आखिर छत्तीसगढ़ की राजनीति में हाशिये पर हैं और कांग्रेस को प्रदेश के आदिवासी अंचलों से लेकर शहरी क्षेत्रों तक मतदाताओं ने डटकर सत्ता से नवाजा है.

इसमें रायपुर शहर की सीट अपवाद है जहां बीजेपी के मंत्री रहे बृजमोहल अग्रवाल ने कांग्रेस की लहर को ठिठका कर जीत हासिल की है. जोगी-बीएसपी गठबंधन भी अपने पारंपरिक गढ़ों में किसी करिश्मे के बजाए सीमित सीटें ही हासिल कर पाया है. जोगी ने अपनी पुत्रवधू ऋचा को अकलतरा में बीएसपी से खड़ा करवाया था मगर वो भी हार गईं. अलबत्ता जोगी खुद मरवाही से और उनकी पत्नी रेणु कोटा सीट से जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं.

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जोगी ने कांग्रेस के जो करीब छह फीसद वोट तोड़े उनकी भरपाई कांग्रेस ने कुर्मियों और साहुओं जैसे बीजेपी के पिछड़े समर्थकों के बीच नौ फीसद का हाथ मार कर ब्याज सहित पूरी कर ली. कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस जहां जोगी-शुक्ला मुक्त होकर डेढ़ दशक बाद सत्तारूढ़ होने जा रही है वहीं किंगमेकर बनने का जोगी का हसीन सपना प्रदेश कांग्रेस के उन्हीं नेताओं ने तोड़ दिया जिन्हें वे अपने चपरासी से ज्यादा नहीं आंकते थे. डॉ. रमन सिंह को कुनबापरस्ती ले डूबी और जिस अजीत जोगी को वे कांग्रेस के खिलाफ अपना तुरूप का इक्का आंक रहे थे वो ही बीजेपी का वाटरलू साबित हो गए.

कांग्रेस पिछले दो चुनावों में आजमाए पिछड़े वोटों की लामबंदी के अपने दाव में इस बार बखूबी कामयाब रही और उसने बीजेपी तथा जोगी को उन्हीं के अखाड़े में धोबीपाट मार कर चारों खाने चित कर दिया. इसके बावजूद कांग्रेस के सामने अब मुख्यमंत्री के चयन सहित मंत्रिमंडल में आदिवासियों, अनुसूचित जातियों, ब्राह्मणों आदि तमाम वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की चुनौती मुंह बाए खड़ी है.

कांग्रेस के लिए छत्तीसगढ़ की यह जीत साल 2013 में राजस्थान में वसुंधरा व बीजेपी को और दिल्ली में केजरीवाल की आप को मिली जीत जैसी ही जबरदस्त मगर चुनौतीपूर्ण है. देखना यही है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस जिसके भी सर पर ताज रखेगी क्या वह इस जीत के भावार्थ के अनुरूप कांग्रेस के सभी गुटों को साथ लेकर चलने तथा जनाकांक्षाओं को पूरा करने में कामयाब हो पाएगा?