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उपचुनावों में हार: विरोधियों की एकजुटता और सहयोगियों के बढ़ते दबाव से कैसे निपटेगी बीजेपी?

बीजेपी के लिए 2019 की बड़ी लड़ाई के पहले विरोधियों की एकजुटता और सहयोगियों के बढ़ते दबाव दोनों से पार पाना बड़ी चुनौती होगी

Amitesh

पालघर लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में हार के बाद बीजेपी की पुरानी सहयोगी शिवसेना की भौहें तन गई. ये हार अपनी सबसे पुरानी सहयोगी बीजेपी के ही हाथों मिली थी. यह हार उस बीजेपी के हाथों मिली है जिसके साथ शिवसेना महाराष्ट्र में भी और केंद्र में भी सरकार में शामिल है. हार की टीस और अपमान का असर ऐसा था कि खुद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे इसे पचा नहीं पाए.

उद्धव ठाकरे ने चुनाव परिणाम आने के बाद प्रेस कांफ्रेंस बुला ली. कयास लगाए जाने लगे कि शिवसेना कोई बड़ा फैसला ले सकती है. कयास इस बात के भी लग रहे थे कि शिवसेना कोटे के मंत्री फणनवीस सरकार से इस्तीफा भी दे सकते हैं. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. उद्धव ठाकरे ने सिर्फ हार का गुस्सा निकाला.


बीजेपी पर भड़ास निकालते हुए उद्धव ने कहा ‘बीजेपी को अब दोस्तों की जरूरत नहीं है. बीजेपी ने पिछले चार सालों में लोकसभा में अपना बहुमत गंवा दिया है.’ उद्धव की नाराजगी इतनी थी कि उन्होंने चुनाव आयोग पर भी पक्षपात करने का आरोप लगा दिया.

पालघर में हार से बौखलाई शिवसेना

दरअसल, शिवसेना ने 2019 के लोकभा चुनाव में अलग लड़ने का फैसला किया है. केंद्र और प्रदेश की सरकार में बीजेपी को समर्थन देने और सरकार में शामिल होने के बावजूद शिवसेना शुरू से ही बीजेपी से नाराज चल रही है. उसे लगता है कि उसे वो महत्व नहीं दिया जा रहा है जिसकी वो हकदार है.

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बाला साहब ठाकरे के जमाने में बीजेपी की सीनियर पार्टनर रही शिवसेना को अब जूनियर पार्टनर होकर रहना पड़ रहा है, यह बात उसे नागवार गुजर रही है. कोशिश थी कि 2109 की बड़ी लड़ाई के पहले पालघर में ट्रायल में बीजेपी को मात दी जाए. लेकिन, ऐसा हो न सका. लिहाजा शिवसेना बौखलाई हुई है.

लेकिन, पालघर में जीत के बावजूद बीजेपी के लिए सहयोगियों का नाराज होना चिंता का कारण हो सकता है. उपचुनाव के परिणाम से साफ है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में बीजेपी को उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा है. इस हार के पीछे विपक्ष की एकजुटता भी है. ऐसे में अपने सहयोगियों की नाराजगी 2019 में बीजेपी को भारी पड़ सकती है.

शिवसेना से रिश्ते सुधरने की गुंजाइश कम

बात पहले महाराष्ट्र की करें तो यहां बीजेपी और शिवसेना दोनों ने मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा था लेकिन विधानसभा चुनाव में बात नहीं बन पाई. अलग-अलग चुनाव लड़ने के बाद बीजेपी नंबर वन पार्टी बनी. बाद में शिवसेना के समर्थन से सरकार तो बन गई लेकिन, शिवसेना अपनी कम होती हैसियत को पचा नहीं पाई.

लेकिन, नाराज होती शिवसेना के लिए मजबूरी भी यही है कि वो आखिर अपनी अलग राजनीति कैसे करेगी, क्योंकि बीजेपी और शिवसेना दोनों की राजनीतिक जमीन और विचारधारा हिंदुत्व की रही है.

शिवसेना मराठी अस्मिता की बात करती है, लेकिन, बाकी मुद्दे औऱ विचारधारा के स्तर पर दोनों में कोई खास अंतर नहीं रहा है. ऐसे में शिवसेना की अलग होकर राजनीति करने की कोशिश से उसका अपना ही नुकसान हो सकता है. शिवसेना को बीजेपी विरोध के नाम पर कांग्रेस और एनसीपी भी अपना लेंगी, ऐसी उम्मीद कम ही नजर आ रही है. लेकिन, उसकी यह हरकत अपना भी नुकसान कराएगी और बीजेपी का खेल भी बिगाड़ सकती है.

महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ शिवसेना, आरपीआई और स्वाभिमानी शेतकारी संगठन ने मिलकर पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा था. आरपीआई और स्वाभिमानी शेतकारी संगठन का भी महाराष्ट्र में खासा प्रभाव है. बीजेपी की रणनीति के तहत ही इन इलाकों में गठबंधन का फायदा मिला. अब शेतकारी संगठन नाराज है. शिवसेना भी अलग होकर लड़ेगी तो बीजेपी के लिए नुकसान तय है.

गठबंधन पर शाह का फॉर्मूला था कारगर

2104 के बाद भी अमित शाह ने अपनी रणनीति के तहत हर राज्य में छोटे- छोटे पॉकेट में प्रभावशाली तबके को साधने की कोशिश की है. मसलन, यूपी के भीतर 2014 में  अपना दल के साथ समझौता करना और उसके बाद विधानसभा चुनाव के वक्त पूर्वांचल की लगभग चालीस से ज्यादा सीटों पर प्रभाव रखने वाले ओमप्रकाश राजभर की पार्टी से समझौता करना इसका प्रमाण है. बीजेपी के साथ आने से पहले राजभर ने खुद चुनाव नहीं जीता था. लेकिन, बीजेपी के साथ आने का फायदा हुआ और उन्हें भी जीत मिली और बीजेपी को भी फायदा हुआ.

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सहयोगियों के बढ़ते दबाव से परेशान बीजेपी!

लेकिन, अब बीजेपी के इस ग्रांड एलायंस से उनके अपने सहयोगी आंख दिखाने लगे हैं. पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू अलग हुए. फिर शिवसेना का अलग चुनाव लड़ने का ऐलान करना, शेतकारी संगठन का एनडीए से अलग होना और रह-रहकर भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर का आंखें तरेरना बीजेपी को परेशान करने वाला है.

उधर, बिहार में  भी फिर से एनडीए के साथ आए नीतीश कुमार भी बीजेपी को परेशान करने वाला बयान देने लगे हैं. जेडीयू ने तो बिहार में जोकीहाट विधानसभा और बाकी जगहों पर उपचुनाव में बीजेपी की हार को सीधे पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों से जोड़ दिया है. जेडीयू प्रवक्ता के सी त्यागी का बयान बताता है कि नीतीश भी गठबंधन के भीतर अपनी उपेक्षा से ज्यादा खुश नहीं हैं.

विपक्ष की बीजेपी की घेराबंदी

दूसरी तरफ, विपक्ष अपनी एकजुटता को लेकर ज्यादा उत्साहित नजर आ रहा है. यूपी में कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव में जीत ने विपक्ष के भीतर एक नई उर्जा का संचार कर दिया है.

कैराना और नूरपुर में एसपी, बीएसपी, आरएलडी और कांग्रेस की एकता के सामने बीजेपी के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा. यहां तक कि कैराना में लोकदल के प्रत्याशी ने भी बाद में आरएलडी उम्मीदवार तव्वसुम हसन के पक्ष में अपने-आप को चुनाव मैदान से बाहर कर लिया था.

यूपी के भीतर इन चार प्रभावशाली दलों के अलावा निषाद पार्टी, पीस पार्टी समेत कई दूसरे संगठनों ने भी बीजेपी को हराने के लिए विपक्ष के उम्मीदवार का समर्थन किया था. कैराना में आरएलडी की तबस्सुम हसन और नूरपुर में एसपी के नईम उल हसन की जीत ने साबित कर दिया है कि विपक्ष की एकजुटता 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त बरकरार रही तो बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं.

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विपक्ष की जीत से साफ है कि दोनों जगहों पर विपक्ष के मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत हुई है. यानी विपक्ष की एकता के बाद एससी तबके और जाट समुदाय के लोगों का वोट इन्हें मिला है. मतलब साफ है 2014 और 2017 की कैराना और नूरपुर के उपचुनाव में ध्रुवीकरण नहीं हो पाया जिसकी उम्मीद बीजेपी लगा रही थी. जातीय गणित साधकर विपक्ष ने बीजेपी को हरा दिया है.

पिछले तीन महीने के भीतर बीजेपी को गोरखपुर और फूलपुर के अलावा कैराना और नूरपुर में भी हार हुई है. इन सभी जगहों पर जातीय समीकरण के माध्यम से विपक्ष की एकजुट रणनीति काम हुई है. यह बीजेपी के लिए चिंता का विषय है.

कैसे पार पाएगी बीजपी?

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हालांकि दावा कर रहे हैं कि विपक्ष की एकता के बावजूद वो अपनी पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ाने की कोशिश में हैं. लोकसभा चुनाव के वक्त यूपी में लगभग 42 फीसदी जबकि विधानसभा चुनाव के वक्त 44 फीसदी वोट लेने वाली बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह अब अगले लोकसभा चुनाव में विपक्ष से निपटने के लिए 50 फीसदी से ज्यादा वोट लेने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.

लेकिन, कैराना और नुरपुर के चुनाव परिणाम से लग रहा है कि ऐसा कर पाना उनके लिए इतना आसान नहीं होगा. बीजेपी के लिए 2019 की बड़ी लड़ाई के पहले विरोधियों की एकजुटता और सहयोगियों के बढ़ते दबाव दोनों से पार पाना बड़ी चुनौती होगी.