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बिहार: क्या मोदी के साए से बाहर निकल बड़े नेता बनना चाहते हैं उपेन्द्र कुशवाहा

2014 के सूझबूझ वाले दांव का फायदा उपेन्द्र कुशवाहा को मिला लेकिन अब वो इससे आगे बढ़ने की राह ढूंढ रहे हैं

Vivek Anand

राजनीति में सामान्य शिष्टाचार के भी राजनीतिक अर्थ होते हैं. इसलिए अगर एनडीए के घटक दल आरएलएसपी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा एम्स अस्पताल में भर्ती लालू यादव से मुलाकात करते हैं तो इसे सिर्फ सामान्य शिष्टाचार वाली मुलाकात कहके अनदेखा नहीं किया जा सकता.

गुरुवार को लालू यादव दिल्ली पहुंचते हैं और उसी शाम केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा उनका हाल-चाल लेने पहुंच जाते हैं. उपेन्द्र कुशवाहा ने अपने इस मुलाकात की तस्वीर भी ट्वीट की. तस्वीर के साथ लिखा- आज एम्स दिल्ली में लालू जी से मुलाकात हुई. सिर्फ एक लाइन लिखकर बाकी बहुत कुछ उन्होंने कयास लगाने के लिए छोड़ दिया.


मांझी के बाद कुशवाहा भी महागठबंधन के साथ आएंगे?

पिछले काफी वक्त से उपेन्द्र कुशवाहा के एनडीए छोड़कर लालू यादव की पार्टी आरजेडी से जुड़ने की खबरें चल रही हैं. हालांकि उन्होंने एनडीए से अलग होने की छटपटाहट का कभी खुलकर इजहार नहीं किया है. पिछले दिनों जब बिहार के पूर्व सीएम जीतनराम मांझी आरजेडी में शामिल हुए थे, उस वक्त भी ये चर्चा जोरों पर चली थी कि इसके बाद अगला नंबर उपेन्द्र कुशवाहा का ही है. बिहार में आरजेडी के नेता रघुवंश प्रसाद ने भविष्यवाणी की थी कि जीतनराम मांझी के बाद उपेन्द्र कुशवाहा भी महागठबंधन के साथ आएंगे.

उन्होंने कहा था कि अभी तक इसके लिए डेडलाइन नहीं तय हुई है लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा के साथ बातचीत जारी है. हालांकि इसके फौरन बाद उपेन्द्र कुशवाहा ने ऐसी अटकलों को खारिज कर दिया था. लेकिन राजनीति कब किस करवट ले ले इसका पता नहीं चलता. बिहार के सियासी समीकरण लगातार बदल रहे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले तक यहां के सियासी गणित के काफी बदलने की संभावना है.

एम्स में लालू यादव से मिलते उपेन्द्र कुशवाहा

उपेन्द्र कुशवाहा इस उठापटक का भरपूर फायदा उठाने की फिराक में है. फिलहाल वो माहौल को भांपते हुए सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं. एनडीए से अलग होने का फैसला आसान नहीं है. लेकिन वो जानते हैं कि बिना रिस्क उठाए राजनीति में ज्यादा दूर तक नहीं जाया जा सकता. 2013 और 2014 में उन्होंने इसी तरह के रिस्क उठाकर अपनी राजनीति चमकाई थी. कभी नीतीश कुमार के करीबी रहे उपेन्द्र कुशवाहा उन्हीं के सामने खड़े होने का दम न दिखाते तो शायद आज वो इतने बड़े नेता न बनते.

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उपेन्द्र कुशवाहा पहली बार 2000 में विधायक बने थे. वो विधानसभा में समता पार्टी के उपनेता बनाए गए. 2004 में वो बिहार विधानसभा में विपक्षी पार्टी के नेता बने. नीतीश कुमार ने उन्हें आगे बढ़ाने में भरपूर साथ दिया. लेकिन फरवरी 2005 के बाद उनकी नीतीश कुमार से दूरियां बढ़ने लगीं. उन्होंने समता पार्टी जो बाद में जेडीयू बनी को छोड़कर एनसीपी में शामिल हो गए. बिहार में वो एनसीपी के अध्यक्ष चुने गए. लेकिन उनका ये राजनीतिक स्टंट ज्यादा चला नहीं.

बाद में वो फिर जेडीयू में शामिल हुए और 2010 में जेडीयू से राज्यसभा के सदस्य चुने गए. लेकिन उनकी ये पारी भी लंबी नहीं चली. आखिरकार मार्च 2013 में उन्होंने अपने राजनीतिक करियर का सबसे जोखिमभरा दांव खेला. राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नाम से उन्होंने अपनी नई पार्टी बना ली.

बिहार की कुशवाहा जाति से आने वाले उपेन्द्र कुशवाहा के लिए जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी से अलग अपनी पार्टी की पहचान बनाना आसान नहीं था. लेकिन वक्त के हिसाब से उन्होंने कुछ अच्छे मूव लिए जिसका फायदा मिला. बिहार में कुशवाहा जाति के 5 फीसदी वोट हैं. नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति से आते हैं उसके भी तकरीबन 5 फीसदी वोट ही हैं. कोइरी-कुर्मी वोटर्स के नीतीश कुमार स्वाभाविक दावेदार रहे हैं.

इसी वोटबैंक में सेंध लगाकर उपेन्द्र कुशवाहा कुछ ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बीजेपी से गठबंधन कर लिया. चुनाव में उन्हें मोदी लहर का भरपूर फायदा मिला और बिहार में उनके हिस्से में आई तीनों सीटों पर आरएलएसपी उम्मीदवारों की जीत हुई. काराकाट से खुद उपेन्द्र कुशवाहा जीते जबकि सीतामढ़ी और जहानाबाद की सीट भी आरएलएसपी के खाते में गई. उपेन्द्र कुशवाहा को मंत्रिमंडल में जगह भी मिल गई.

2019 के चुनाव में जेडीयू भी होगी

2014 के सूझबूझ वाले दांव का फायदा उपेन्द्र कुशवाहा को मिला लेकिन अब वो इससे आगे बढ़ने की राह ढूंढ़ रहे हैं. एनडीए में सहयोगी दलों के साथ बीजेपी जिस तरह का व्यवहार कर रही है, उसमें वो अपने लिए ज्यादा की गुंजाइश नहीं देखते. यही मजबूरी उन्हें आरजेडी के करीब ले जा रही है. बताया जा रहा है कि एनडीए में रहते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें 2-3 सीटों से ज्यादा मिलने की संभावना नहीं है.

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2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए में जेडीयू शामिल नहीं थी. 2019 के चुनाव में जेडीयू भी होगी. जेडीयू और आरएलएसपी के वोटबैंक का आधार एक है. दोनों ही पार्टियां पिछड़ों और अतिपिछड़ों की राजनीति करती हैं. बीजेपी के साथ जाने की वजह से जेडीयू को हिंदुओं के धुव्रीकरण का फायदा मिल सकता है, वहीं इसी आक्रमक हिंदुत्व की राजनीति की वजह से अतिपिछड़ों और दलितों के मुंह मोड़ने का भी खतरा बना हुआ है. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति नहीं चली थी. अगर 2019 में भी ऐसा होता है तो आरजेडी बाजी पलट सकती है. ऐसी स्थिति होने पर आरएलएसपी का आरजेडी के साथ जाना फायदेमंद हो सकता है.

उपेन्द्र कुशवाहा इसी संभावना को तलाश रहे हैं. वो बिहार की राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका की संभावना टटोल रहे हैं. हालांकि वो अब भी जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते. 2014 में बीजेपी के साथ जाने का रिस्क लेकर उन्होंने जो छलांग मारी थी, अब आरजेडी के साथ जाकर दूसरा बड़ा उलटफेर करना चाह रहे हैं. 2013 में वो नीतीश के साये से निकलकर अपने कद को बड़ा किया था, अब वो मोदी के साए से बाहर आकर बड़ी पहचान की तलाश की संभावना देख रहे हैं.