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नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के जामन हैं, दही वहीं जमेगा जहां वो रहेंगे

पिछले डेढ़ दशक से बिहार की राजनीति नीतीश कुमार की गणेश परिक्रमा कर रही है

Kanhaiya Bhelari

'एनडीए में सीट को लेकर कोई विवाद नहीं है. चुनाव के समय सीट पर बातें होती हैं.' ये बयान सीएम नीतीश कुमार का है जो उन्होंने कल पत्रकारों के सामने दिया. पिछले एक महीने से खबरें छप रही हैं कि नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से काफी कमजोर हो गए हैं. बीजेपी इस बार इनकी औकात बता देगी. आरोप लग रहा है कि जिन लोगों ने नीतीश कुमार की सहायता की उन्हीं को आदतन परेशान करते हैं. बिहार के जाति आधारित सोच वाली राजनीति में उनका कोई अंकगणितीय वजूद नहीं है. अस्थिर मिजाज के नेता हैं. कभी भी, कहीं भी पलट जाएंगे.

क्या सही में नीतीश कुमार स्थिर स्वभाव के नेता नहीं हैं?


करीब पिछले डेढ़ दशक से बिहार की राजनीति नीतीश कुमार की गणेश परिक्रमा कर रही है. उसके पहले 15 वर्षों तक राजनीति लालू यादव के इर्द-गिर्द चक्कर काटती थी. आज की तारीख में नीतीश कुमार ही सेंटर यानी धुरी हैं. कुछ राजनीतिक टीकाकार उन्हें सियासी ‘जोरन/ जामन’ की उपाधि से भी विभूषित करते हैं. प्रमाणिक तौर पर जिस राजनीतिक दूध (पार्टी) में नालंदा के इस लाल का जोरन/जामन सटते रहा है, उसी दूध का दही जम रहा है. मतलब सूबे में सरकार उसी सियासी खेमे की बनते रही है जिसका चेहरा नीतीश कुमार रहे हैं. बकौल एक घुमंतू पत्रकार 'इस नीतीशी जोरन/जामन में इतनी उर्जा है कि इसके छूने से खराब दूध में भी शानदार दही जम जाता है.'

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लालू यादव की पार्टी आरजेडी क्रमश: फरवरी और अक्टूबर 2005 और 2010 विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कोमा में चली गई थी. एक तरह से खराब दूध की शक्ल में आ गई थी. नीतीश कुमार रूपी जोरन/जामन का जैसे ही 2015 असेंबली चुनाव में मिलन हुआ, तुरंत ही आरजेडी कोमा से बाहर आकर दौड़ लगाने लगी. विधानसभा में विधायकों की संख्या 22 से छलांग लगाकर 80 पर पहुंच गई. बीजेपी नेता और पूर्व एमपी रंजन यादव का तो यहां तक कहना है कि 'नीतीश कुमार ने लालू यादव को कब्र से निकाल कर फिर से राजनीति में जिंदा कर दिया.'

जिसके साथ गए, उसी का फायदा

2013 से पहले 17 साल तक नीतीश कुमार बीजपी के साथ मिलकर राजनीति कर रहे थे. बिहार में एनडीए का चेहरा बनकर. बीजेपी अपने राजनीतिक ताकत के बूते अविभाजित बिहार में भी विधानसभा चुनाव के कुल 324 सीटों में कभी 39 नंबर से ऊपर नहीं जीत पाई. 2000 के विधानसभा चुनाव में जब ‘नीतीश रूपी जोरन/जामन’ लगा तो संख्या ऊपर की तरफ चढ़ने लगी. उसी साल के असेंबली चुनाव में बीजेपी ने कुल 168 कैंडिडेट मैदान में उतारा था, जिसमें 67 सीटें जीती. बिहार बंटवारे के बाद पहला चुनाव फरवरी 2005 में हुआ. टोटल 243 सीटों में बीजपी 103 सीटों पर लड़ी. इस ‘गर्भपाती’ असेंबली में बीजेपी के 37 सदस्य थे जिनकी संख्या बढ़कर उसी साल हुए अक्टूबर के चुनाव में 55 हो गई. 2010 के विधानसभा में रॉकेट स्पीड से बढ़कर बीजेपी विधायकों का नंबर 91 तक पहुंच गया.

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तब करीब पचास प्रतिशत अकलियत को भी सीएम ने अपने काम के बल पर नीतीशमय बना लिया था. 2010 चुनाव के दौर में मुस्लिमों ने भी लाइन लगाकर थोक के भाव में बीजेपी को वोट दिया था. गया में बीजेपी के उम्मीदवार प्रेम कुमार को वोट दे रहे थे. जब एक कलमजीवी ने कारण पूछा तो अकलियत समाज के वोटरों का जवाब था, 'हम नीतीश कुमार को वोट दे रहे हैं. यहां के सभा में उन्होंने कहा था कि जब आपलोग फूल छाप पर बटन दबाएंगे तो हम दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे.'

बस राजनीतिक चाहत के आगे मजबूर हैं

नीतीश कुमार ने कभी किसी को परेशान नहीं किया है. अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने बीजेपी से तलाक लिया. पीएम बनने की चाहत थी. चाहत रखना कोई पाप तो है नहीं. युद्धकौशल के तहत टोपी और टीका दोनों लगाकर अपनी सियासी चाहत को पूरा करना चाहते थे. वो बीजेपी के खिलाफ ऐसी राजनीतिक चक्रव्यूह की बुनाई कर रहे थे जिसके नेता वो स्वयं बन जाएं. प्रस्ताव लेकर सोनिया गांधी से मिले. मैडम ने पुत्र मोह में इनका प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया. अकेले पड़ गए. 2014 के लोकसभा चुनाव में जनता ने टोपी पहना दिया.

बीजेपी प्रचंड जीत की खुशी में मतवाली हो गई. मानकर चलने लगी कि 2015 विधानसभा में फतह पक्की है. मंत्रिमंडल भी बनने लगी. दूसरी तरफ नीतीश कुमार 'चौबे गए छब्बे बनने, दुबे बन के आ गए', वाली स्थिति में आकर गंभीरता से हार का विश्लेषण करने लगे. लालू यादव भी लगातार हार के कारण कोमा में थे. मिलन के लिए नीतीश का प्रस्ताव गया जिसे आरजेडी चीफ ने हंसी खुशी स्वीकार कर लिया. मिलन की चाहत दोनों तरफ समान रूप में थी. बड़ा भाई और छोटा भाई साथ मिलकर चुनाव लड़े और एनडीए को बुरी तरह धराशाई कर दिया. चुनाव में नीतीश का यही फायदा हुआ कि उन्होंने बीजेपी से लोकसभा में हुई हार का बदला ले लिया. सीएम भी बने रहे. पर लालू यादव को सकल लाभ हुआ जो मात्रा 22 से 80 पर पहुंच गए और जोरन/जामन के कारण दही भी जम गया यानी सत्ता में भागीदारी हो गई.

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नीतीश कुमार ने बतौर सीएम कभी भी लालू यादव को परेशान नहीं किया. बल्कि लाठी में तेल लगाने का नारा देने वालों की सरकार में रहकर की जा रही ज्यादती को 20 महीने तक खून का घूंट पीकर बर्दाश्त किया. किसी भी चीज की हद होती है. बर्दाश्त करने की सीमा होती है. और जब नीतीश कुमार ने महसूस किया कि पानी नाक से ऊपर बहने लगा है तो अलग हो गए.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)