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बिहार छह महीने से कॉल वेटिंग पर है क्योंकि प्रशांत किशोर बाहर हैं.

बिहार की जिम्मेदारियों से गायब प्रशांत उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लिए भी कुछ कर पाने में विफल

Surendra Kishore

बिहार की अपनी सरकारी जिम्मेदारियां छोड़कर महीनों से गायब प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेसी राजनीति की गाड़ी को अपने बल पर दौड़ाने में अंततः विफल रहे हैं.

करीब एक साल पहले बिहार सरकार ने प्रशांत को मुख्यमंत्री का सलाहकार नियुक्त किया था. इस पद के साथ कई सुविधाए जुड़ी हुई हैं, साथ ही वे बिहार विकास मिशन की शासी निकाय के सदस्य भी हैं.


इतना ही नहीं, बिहार 2025 विजन डाक्युमेंट तैयार करने के लिए जिस सिटिजन अलाएंस को राज्य सरकार से 9 करोड़ 31 लाख रुपए मिले हैं, वह संस्था भी प्रशांत से जुड़ी हुई बताई जा रही है.

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खबर है कि न तो विजन डाक्युमेंट का अता-पता है और न ही परामर्शी और बिहार विकास मिशन के कामकाज में प्रशांत का महीनों से कोई योगदान है. बिहार के राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में प्रशांत किशोर के इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार की चर्चा है.

यूपी चुनावों से पहले प्रशांत बिहार चुनावों की रणनीतिकार रहे हैं

यूपी में असफल

उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लिए कुछ कर पाने में विफल प्रशांत अलग से आलोचना के पात्र बने हुए हैं. विफलता का कारण प्रशांत की राजनीतिक समझ का अभाव होना बताया जा रहा है. दरअसल, वे कांग्रेस की गाड़ी को मुद्दों के ईंधन के बिना ही चलाना चाहते थे.

इससे पहले नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की चुनावी सफलता के पीछे उन नेताओं के लोकलुभावन मुद्दे और मजबूत दलीय गठबंधन थे.

मोदी और नीतीश अपने मुद्दों को कार्यरूप देने के लिए जाने जाते हैं. इसलिए मोदी और नीतीश की जीत में भी प्रशांत किशोर की भूमिका बहुत ही थोड़ी ही मानी जाती है. निर्णायक तो बिल्कुल नहीं.

लोकसभा चुनाव के बाद हुए चार राज्यों के चुनाव में भी नरेंद्र मोदी प्रशांत को ही काम पर लगाते. मुद्दे कैसे उठाए जाते हैं और उन्हें किस तरह से लागू किया जाता है, इसका उदाहरण खुद कांग्रेस में भी मौजूद है.

इतिहास से सीख

शायद उस इतिहास की जानकारी प्रशांत को न हो. खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1969 में ‘गरीबी हटाओ’ का मुददा उठाकर 1971 का लोकसभा चुनाव जीत लिया था. उन्होंने सिर्फ मुद्दा ही नहीं उठाया था बल्कि 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी कर दिया था.

तब लोगों को लगा था कि बैंकों के सरकारीकरण से आमलोगों खास कर गरीबों को भी आसानी से कर्ज मिल सकेंगे.

भारत आने से पहले प्रशांत संयुक्त राष्ट्र में काम करते थे

साथ ही पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स तथा विशेषाधिकार समाप्त करके इंदिरा गांधी ने साबित किया था कि वह बड़े लोगों को सरकार से मिलने वाली सुविधाओं के खिलाफ हैं और इन बचे पैसों का गरीबों के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैें.

यह और बात है कि बाद में लोगों को इंदिरा से निराशा ही हुई.

इसी तरह अस्सी के दशक में राजीव गांधी ने कांग्रेस महासचिव के रूप में तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को हटवाकर ‘मिस्टर क्लिन’ की ‘उपाधि’ पाई थी. यदि बाद में बोफर्स जैसे घोटाले सामने नहीं आते तो उन्हें भी चुनाव में इसका लाभ मिलता.

राहुल से जान-पहचान

खबर है कि प्रशांत किशोर बहुत पहले से ही राहुल गांधी के संपर्क में थे.

रायबरेली में राहुल गांधी अस्पताल बनवाना चाह रहे थे और प्रशांत उनकी मदद कर रहे थे. तब भी कुछ कारगर सलाह वे राहुल जी को दे सकते थे. बाद में जब वे कांग्रेस के रणनीतिकार बने तब तक कांग्रेस के हाथ से केंद्र की गद्दी खिसक गई थी.

यदि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के इन कदमों को प्रशांत ने जाना और समझा होता तो कम से कम कांग्रेस शासित राज्यों में वे कुछ उसी तरह के काम करवाने की सलाह देते, लेकिन उल्टे उन राज्यों से इस बीच भी घोटालों की ही खबरें आती रहीं.

2014 के लोकसभा चुनाव में प्रशांत मोदी के साथ थे

हालांकि, प्रशांत जैसे एक गैर-राजनीतिक व्यक्ति से इंदिरा-राजीव के कामों व रणनीतियों की समझ की उम्मीद नहीं की जा सकती.

इधर प्रशांत की सलाह पर कांग्रेस उत्तर-प्रदेश में कभी खाट सभाएं करती रही तो कभी जातीय गोलबंदी. कुछ घिसे-पिटे नारे भी उछाले गये.

यानी... जनता के पास कांग्रेस खाली हाथ जा रही थी और अकेले ही चुनाव लड़ने का हौसला भी बांध रही थी. जब बात नहीं बनी तो कांग्रेस को बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश में सपा की शरण में जाना पड़ा.

राहुल गाधी ने दिसंबर में यह बयान दिया था कि नोटबंदी से देश के सिर्फ 50 बड़े धनवान परिवारों को लाभ मिला है. क्या राहुल गांधी ऐसा बयान प्रशांत किशोर की सलाह पर दे रहे थे?

यदि नहीं तो क्या ऐसे बेसिर-पैर के बयान देने से प्रशांत ने उन्हें क्यों नहीं रोका?

गठबंधन को श्रेय

अब यदि इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सफलता मिलती भी है तो उसका श्रेय उस गठबंधन को मिलेगा न कि कांग्रेस को और न ही प्रशांत की रणनीति को.

कांग्रेस-एसपी गठबंधन का श्रेय प्रियंका गांधी और डिंपल यादव  को दिया जा रहा है

इस चुनाव के ठीक पहले एक प्रमुख संघ नेता मनमोहन वैद्य ने आरक्षण पर बयान देकर जाने-अनजाने सपा और बसपा को मजबूत ही किया है.

यह और बात है कि सपा से गठजोड़ के लिए बातचीत में प्रशांत किशोर ने भी सकारात्मक भूमिका निभाई थी.

याद रहे कि 2014 में लोकसभा चुनाव के समय प्रशांत नरेंद्र मोदी के और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय नीतीश कुमार के रणनीतिकार थे.

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अब तो नीतीश कुमार ही बताएंगे कि उनकी जीत में प्रशांत की कितनी बड़ी भूमिका थी. लेकिन 'राजद-जदयू-कांग्रेस' महागठबंधन के कुछ नेताओं से बात करें तो वे बताएंगे कि ‘तीन दलों के गठबंधन के बाद ही यह तय हो गया था कि बिहार में राजग की हार होगी.'

चुनाव के ठीक पहले रही-सही कसर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर बयान देकर पूरी कर दी. प्रशांत जैसे अराजनीतिक व्यक्ति को इतना महत्व देना सही नहीं था.

कुछ और करें

हां, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चुनाव के बाद उन्हें उनके लायक पद देकर सही काम किया. उन्हें सबकुछ छोड़कर बिहार विकास मिशन के काम में लग जाना चाहिए.

प्रशांत किशोर को अब  बिहार में दी गई जिम्मेदारी उठानी चाहिए

याद रहे कि प्रशांत किशोर ने संयुक्त राष्ट्र के साथ अफ्रीका में स्वास्थ्य अधिकारी के रूप में काम किया था.

लोक स्वास्थ्य मामलों के विशेषज्ञ प्रशांत ने 2011 में संयुक्त राष्ट्र की नौकरी छोड़ी थी. उत्तर प्रदेश में निराशा मिलने के बाद उम्मीद की जा रही है कि प्रशांत अब वही काम करेंगे जिसकी विशेषज्ञता उन्हें हासिल है.

राजनीतिक रणनीति तो नेता ही बनाएं. इस देश की ताजा घटनाएं बताती हैं कि यदि नेता ईमानदार हो तो किसी प्रशांत किशोर से बेहतर रणनीति वह खुद बना सकता है और अपनी ली गई भूमिका के प्रति भी ईमानदार भी हो सकता है.

बिहार में वैसे भी स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों में बहुत काम करने की जरूरत है. प्रशांत किशोर चाहते तो उन क्षेत्रों में बेहतर काम करके अपनी छाप छोड़ सकते थे.