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Assembly Election Results: कांग्रेस के मुखिया बनने के एक साल बाद राहुल गांधी का उदय

तीन राज्यों में अच्छा करने के बाद भी आम चुनाव में हार सकते हैं. इसलिए गफलत में नहीं रहना चाहिए

Syed Mojiz Imam

राहुल गांधी को पिछले साल दिसंबर में पार्टी की कमान मिली थी. पार्टी के सर्वेसर्वा बनने के बाद गुजरात के नतीजे कांग्रेस के लिए निराशाजनक रहे थे. साल बीतने के साथ ही राहुल गांधी के राजनीतिक सूझबूझ पर सवाल खड़ा किया जाता रहा है. बीजेपी के नेता उनको तरह-तरह के नाम से पुकारते रहे हैं. कभी हिंदू होने पर सवाल खड़ा किया जाता है. कभी गोत्र पूछा जाता है. इन सबसे बाखबर रहते हुए भी राहुल अपने काम से जवाब देते रहे हैं.

बीजेपी राहुल गांधी का मज़ाक बनाती रही, लेकिन राहुल गाधी गंभीरता से लगे रहे. इसका अच्छा नतीजा मिला है. कांग्रेस ने तीन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया है. कांग्रेस के नेता सचिन पायलट ने कहा कि ये जनता की तरफ से राहुल गांधी को तोहफा है. इस चुनाव से राहुल गांधी ने पार्टी के भीतर और बाहर अपने आलोचकों का जवाब दिया है.


राहुल गांधी का उदय:

कांग्रेस के लिए तीन राज्यों के नतीजे राहत की खबर है. कई साल के सूखे के बाद जिस तरह बारिश का आनंद मिलता है, ये नतीजे कांग्रेस के लिए ठीक वैसे ही हैं. 2014 के बाद पंजाब और कर्नाटक के अपवाद के अलावा कांग्रेस हर चुनाव में हार रही थी. इस हिसाब से ये नतीजे कांग्रेस के आत्मविश्वास को बढ़ाएंगे. अगर ये चुनाव 2019 का सेमीफाइनल मान लिया जाए तो राहुल गांधी निश्चित मैन ऑफ द मैच है. जिस तरह से पार्टी के भीतर राहुल गांधी ने कई प्रयोग किए हैं. उससे कांग्रेस को फायदा हुआ है.

तीनों राज्य में राहुल गांधी ने अकेले प्रचार अभियान को संभाला और हर मसले पर बारीकी से नज़र रखा है. संगठन में व्यापक फेरबदल किया है. मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान और छत्तीसगढ़ में संगठन में काफी प्रवर्तन किया है. राजस्थान में सचिवों के खिलाफ शिकायत मिलते ही त्वरित कार्यवाई की और उनको हटाया है.

इस चुनाव में तीनों मुख्यमंत्रियों को मज़बूत चुनौती दी गई है. झालरापाटन में वंसुधरा के खिलाफ मानवेन्द्र सिंह, बुधनी में शिवराज सिंह के खिलाफ अरूण यादव तो रमन सिंह के खिलाफ करूणा शुक्ला को मैदान में उतारा गया था, ताकि इन नेताओं को वॉक ओवर ना मिल जाए. ज़ाहिर है कि अगर चुनाव लोकतंत्र में पैमाना है तो, पहली बार राहुल गांधी प्रधानमंत्री के मुकाबले सफल साबित हुए हैं.

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राहुल के प्रयोग:

2014 में हार के बाद राहुल गांधी ने कई प्रयोग किए हैं. जिसको लेकर उनकी आलोचना भी होती रही है. सॉफ्ट हिंदुत्व का फार्मूला कारगर साबित हो रहा है. गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने मंदिरों की परिक्रमा शुरू की थी. जो बदस्तूर जारी है.

कर्नाटक चुनाव के बाद राहुल गांधी ने कैलाश मानसरोवर की यात्रा की थी. ये एक राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक माना गया. बीजेपी के पास इसका कोई जवाब नहीं था. लेकिन बीजेपी के नेता राहुल गांधी के सॉफ्ट हिंदू होने का मजा़क उड़ाते रहे हैं. राजस्थान चुनाव से पहले राहुल गांधी का गोत्र पूछा गया और पुष्कर में राहुल गांधी ने अपना गोत्र सार्वजनिक कर दिया. बीजेपी ने शोर भी मचाया लेकिन उसका असर नहीं हुआ है.

हिंदुत्व बनाम गुड हिंदू:

बीजेपी के हिंदुत्व के जवाब में राहुल गांधी ने अच्छे हिंदू का नैरेटिव इस चुनाव में रखा है. प्रधानमंत्री से उनसे सीखने की नसीहत दी, जिसका जवाब सुषमा स्वराज ने दिया है. राहुल गांधी की इस चुनौती के जवाब में सुषमा ने कहा कि राहुल से हिंदू होने का पाठ सीखने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन शायद अच्छे हिंदू की बात जनता में हिट हो गयी है. जिससे पब्लिक ने कांग्रेस का समर्थन किया है. राहुल गांधी ने बीजेपी के हिंदुत्व का जवाब सॉफ्ट हिंदू से दिया है.

प्रधानमंत्री के खिलाफ डटे रहे:

पूरी कांग्रेस पार्टी जब प्रधानमंत्री के खिलाफ बोलने से कतरा रही थी, तब भी राहुल गांधी ने लगातार पीएम के खिलाफ मोर्चाबंदी जारी रखा. नोटबंदी से लेकर राफेल तक, राहुल गांधी का अभियान बदस्तूर जारी है. राहुल ने पार्टी के सलाह को दरकिनार करते हुए पीएम के खिलाफ हर मुद्दे पर खड़े रहे हैं. शुरूआत में सभी ने इसे अहमकाना काम बताया, लेकिन धीरे धीरे राहुल गांधी की बात ट्रेंड करने लगी.

2014 के बाद से ही पीएम के खिलाफ बोलना मुसीबत मोल लेना था. लेकिन राहुल गांधी ने कोई कोताही नहीं बरती. जिसका फायदा कांग्रेस को अब मिल रहा है.

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विरासत में पार्टी मिली सत्ता नहीं:

राहुल गांधी को पिछले साल दिसंबर में पार्टी की कमान मिली थी. ये कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी ने पार्टी की विरासत राहुल को सौंप दी है. लेकिन राहुल गांधी को विरासत में सत्ता नहीं मिली है. 2014 से लगातार कांग्रेस चुनाव में पराजित हो रही थी.

बीजेपी का ग्राफ बढ़ रहा था. ऐसे में कांग्रेस की कमान राहुल गांधी को मिली है. अभी भी केन्द्र की सत्ता के लिए आगे भी संघर्ष करना है. ये इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि 2004 में जब राहुल गांधी ने राजनीति की शुरूआत की थी, तब भी कांग्रेस सत्ता से बाहर थी. राहुल गांधी ने पहली बार अमेठी से 2004 में चुनाव लड़ा था.

हिंदी हार्टलैंड में कांग्रेस की दस्तक:

बीजेपी ने हिंदी बेल्ट में कांग्रेस का सफाया कर दिया था. राजस्थान में पांच साल और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का 15 साल से चल रहा वनवास राहुल गांधी की अगुवाई में खत्म हो रहा है. जो कांग्रेस के भविष्य के लिए अच्छे संकेत हैं.

राहुल गांधी ने साबित किया है कि विपरीत परिस्थिति में काम कर सकते हैं. ये चुनाव नतीजे ज़ाहिर कर रहे हैं कि राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ रही है. हिंदी हार्टलैंड ही बीजेपी का गढ़ बना था. उसमें सेंध लगाने में कांग्रेस पार्टी कामयाब रही है. हालांकि कांग्रेस की असली चुनौती यूपी में है.

2018 से 2019 तक चुनौती:

राहुल गांधी सत्ता के फाइनल में प्रवेश कर गए हैं. जिस टीम से फाइनल मुकाबला है, उसको हराना आसान नहीं है. सिर्फ तीन राज्यों से भविष्य सुनहरा है, ये अंदाज़ा लगाकर खुश होना सही नहीं होगा. आगे चुनौती काफी है. पहली बात बीजेपी ने कांटे की टक्कर दी है. दूसरे विधानसभा चुनाव के मुद्दे आम चुनाव से अलग होते हैं.

राहुल बनाम मोदी की लड़ाई में राह आसान नहीं है. बीजेपी आम चुनाव को प्रधानमंत्री बनाम राहुल गांधी करने की कोशिश करेगी, जिसकी काट अभी से तलाश करनी पड़ेगी. संसदीय चुनाव चेहरे पर नहीं, मुद्दे पर लड़े जाने चाहिए. लेकिन ये नैरेटिव कांग्रेस को अभी से बनाने की कोशिश करनी चाहिए.

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गठबंधन ही विकल्प:

हालांकि ये जीत कांग्रेस का जोश बढ़ाने के लिए ज़रूरी थी. लेकिन मोदी को मात देने के लिए गठबंधन ही विकल्प है. मध्यप्रदेश में गठबंधन ना हो पाने का असर दिखाई दिया है. राहुल गांधी इस जीत के बाद भी बतौर नेता विपक्ष के सभी नेताओं की पहली पंसद नहीं बन सकते हैं.

हालांकि उनकी स्वीकार्यता ज़रूर बढ़ी है. लेकिन घटक दल के लिए सोनिया गांधी का ही चेहरा आगे करना पड़ेगा. संसद सत्र से पहले बुलाई गई ऐसी बैठक में सोनिया गांधी का रहना इसका सबूत है. नतीजों के दौरान सोनिया गांधी ने मायावती से बातचीत की है. ये ज़ाहिर करता है कि राहुल गांधी को अपनी राह हमवार करने के लिए सोनिया गांधी के मदद की ज़रूरत है.

2003 से सबक:

2003 में इन तीन राज्यों के चुनाव में जीत के बाद उत्साहित बीजेपी ने आम चुनाव पहले करा दिया. नतीजा सबको मालूम है. स्व.अटल बिहारी वाजपेयी को हार का मुंह देखना पड़ा था. इस बात का सबब ये है कि इन तीन राज्यों में अच्छा करने के बाद भी आम चुनाव में हार सकते हैं. इसलिए गफलत में नहीं रहना चाहिए.

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