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AAP सरकार के 3 साल: राजनीति के ‘हिट एंड रन’ में माहिर हैं केजरीवाल

3 सालों में केजरीवाल सरकार ने आरोपों की राजनीति से ‘हिट एंड रन’ का ही काम किया है और जब भी पार्टी पर आंच बढ़ी तो उन्होंने विपश्यना का सहारा ले कर मामले के शांत होने का इंतजार किया

Kinshuk Praval

‘अकेला ही चला था मंजिल की ओर, लोग मिलते गए और कारवां बनता चला गया.’ ये शायर का शुक्रिया था उन साथियों को लेकर जिन्होंने उसके अकेलेपन को दूर करते हुए मंजिल का पता दिया तो मंजिल तक पहुंचाया भी. लेकिन यही शेर अगर आम आदमी पार्टी के तीन साल पुराने सफर पर देखें तो बात कुछ यूं होगी,‘ चुनिंदा साथियों के साथ चला था मंजिल की ओर, जैसे जैसे कामयाबी मिली उन्हें पीछे छोड़ता चला गया, सत्ता मिलने के बाद भूल भी गया.’

लोकपाल बिल को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन इतिहास कभी नहीं भुला सकेगा. इसकी गूंज से दिल्ली की संसद हिली तो देशभर में उसकी प्रतिध्वनि सुनाई दी. इस आंदोलन से कई चेहरे निकले जिन्हें जनता ने सिर-आंखों पर बिठाया. पहली दफे गैर सियासी चेहरों ने मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की जिन्हें सियासी निगाहें डरा नहीं सकीं.


आम लोगों की 'आम पार्टी'

आंदोलन की कामयाबी के बाद आगे का सफर भी तय करना था जो कि राजनीति के पथ से गुजरता है. उस पथ पर चलने के लिए फिर नई पटकथा लिखी गई. एक नया एकदम ताजा राजनीतिक दल उभरकर सामने आया. आम आदमी के हक के लिए ‘आम आदमी पार्टी’ तैयार हुई. किसी ने सुरों से सजाया तो किसी ने नए अंदाज की सियासत से मौसिकी दी. उन गिनती भर चेहरों में अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, प्रोफेसर आनंद, मयंक गांधी और शाजिया इल्मी जैसे नाम अलग पहचान के साथ उभरकर सामने आए.

उनकी बातचीत का तरीका और सलीका आम आदमी को कनेक्ट करता था. उनकी बातों में सियासत नहीं दिखती थी. एक भरोसा कायम होने लगा जो धीरे धीरे बढ़ता ही चला गया. भ्रष्टाचार मिटाने के लिए मैदान में ‘झाड़ू’ आ चुकी थी. जनता को ये बात जंच गई कि उनके बीच का एक आम आदमी अब तत्कालीन सीएम शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ेगा.

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आप की आंधी ऐसी चली कि कांग्रेस और बीजेपी ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. जनता के लिए आप ही ‘पहले आप’ हो गई. आप को दो बार सत्ता मिली. पहली बार सरकार 49 दिन चली. फिर दूसरी बार भी चुनाव जीतकर सत्ता में आए. इस पार्टी के साथ बड़ी बात जनता का वो विश्वास आधार बना कि कम से कम ये लोग करप्शन को मिटाएंगे.

राजनीति की काली कोठरी में केजरीवाल

लेकिन राजनीति वो काजल की कोठरी है जहां दाग भी लगते हैं तो वो मुगालता भी जिससे चाल, चरित्र, चेहरा बदलने में देर नहीं लगती. सत्ता के दंभ ने पुराने साथियों को पीछे छोड़ने का काम किया. क्योंकि अपनों के सुझाव तीर की तरह चुभने लगे. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे कद्दावर नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. धीरे धीरे दूसरे पुराने साथी शाजिया इल्मी, मयंक गांधी वगैरह भी पार्टी से बाहर हो गए. आम आदमी पार्टी एक व्यक्ति केंद्रित होने लगी. वो दायरा इतना सिमटा कि उसमें पुराने वफादार और मित्र कवि कुमार विश्वास को भी जगह नहीं मिली. पार्टी और मंत्रीमंडल में नए चेहरों को बड़ी जिम्मेदारी मिलने लगी.

हालांकि ये सब पार्टी का अपना निजी मामला है जो कि हर राजनीतिक दल में सामान्य बात है. लेकिन जिस बात ने सबको चौंकाया वो केजरीवाल सरकार के मंत्रियों पर लगने वाले आरोप थे तो मंत्री के लगाने वाले आरोप भी. किसी मंत्री की सेक्स सीडी से पार्टी के चरित्र पर दाग लगा तो किसी मंत्री की फर्जी डिग्री से लोगों का भरोसा टूटा.

लेकिन सबसे ज्यादा कोहराम तब मचा जब दिल्ली सरकार के ही मंत्री कपिल मिश्रा ने अरविंद केजरीवाल पर रिश्वत लेने का आरोप लगाया. ये आरोप उतने ही संगीन थे जितने कभी केजरीवाल तत्कालीन सीएम शीला दीक्षित पर कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर हुए घोटालों को लेकर लगाते थे. अरविंद केजरीवाल ने कसम खाई थी कि उनकी सरकार बनते ही वो शीला दीक्षित को जेल भेज देंगे. लेकिन सत्ता में आने के बाद इस आदमी ने ऐसा रंग बदला कि जेल भेजना तो दूर उन्हें कांग्रेस से समर्थन लेने में गुरेज नहीं हुआ.

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केजरीवाल ये जानते थे कि जनता की याद्दाश्त बेहद कमजोर होती है. वो सब भूल जाएगी. दिल्ली की जनता भी भूल गई कि केजरीवाल करप्शन के मामले में कभी शीला दीक्षित को जेल भेजने वाले थे. राजनीतिक लोगों के साथ जनता की ये विशेष कृपा होती है कि उन्हें कथनी-करनी में अंतर करने का अभयदान प्राप्त होता है.

केजरीवाल पर दाग लगने शुरू हुए

कपिल मिश्रा के केजरीवाल पर करप्शन के आरोप भी वक्त के साथ ठंडे पड़ गए. लेकिन काठ की हांडी एक बार चढ़ती है, बार बार नहीं. लाभ के पद के मामले में केजरीवाल सरकार के 20 विधायकों की सदस्यता आखिरकार रद्द हो ही गई. सीएम केजरीवाल पर आरोप है कि नियमों की अनदेखी करते हुए इन विधायकों को सचिव पद बांटे गए. करप्शन के खिलाफ लोकपाल की लड़ाई लड़कर सत्ता तक पहुंची आम आदमी पार्टी की विश्वसनीयता पर चुनाव आयोग की सिफारिश से बड़ा झटका पहुंचा.

चुनाव आयोग के मुताबिक इन विधायकों के पास 13 मार्च 2015 से 8 सितंबर 2016 के बीच संसदीय सचिव का पद था जबकि कानून के मुताबिक  दिल्ली में कोई भी विधायक रहते हुए लाभ का पद नहीं ले सकता. इसके बावजूद आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर ही सवाल उठाए. लेकिन इस बार उन सवालों को लेकर जनता ने कोई गंभीरता नहीं दिखाई. क्योंकि जिस करप्शन को केजरीवाल ने अपना सियासी हथियार बनाकर सत्ता हासिल की थी, आज खुद वो और उनकी पार्टी भी उसी सियासी टूल के निशाने पर हैं.

दिल्ली को याद है रामलीला मैदान का वो ऐतिहासिक दिन जब केजरीवाल एंड टीम ने मंत्रीमंडल पद की शपथ ली थी. अरविंद केजरीवाल ने लोगों से कहा था कि ‘कोई रिश्वत मांगे तो मना मत करना, सेटिंग कर लेना.’ तीन साल में केजरीवाल इतने परिपक्व राजनीतिज्ञ हो गए कि वो अब ये अच्छे से जानते हैं कि किस बात की सेटिंग करनी चाहिए और कैसे. राज्यसभा के उम्मीदवार चुनने में पार्टी ने जिस स्मार्ट सोच का परिचय दिया उससे योगेंद्र यादव भी चकित थे और उन्होंने आखिरकार अरविंद केजरीवाल को न भूलने वाला सर्टिफिकेट दे ही दिया. योगेंद्र यादव ने कहा कि ‘मैं ही कल तक ये कहता आया हूं कि अरविंद केजरीवाल को खरीदा नहीं जा सकता है लेकिन राज्यसभा में उम्मीदवारों का चयन देखकर मुझे अब पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा के आरोपों में सच्चाई दिखाई देनी लगी है.’

पुराने साथियों को हाशिए पर छोड़ा

अरविंद केजरीवाल पर राज्यसभा की सीटें दो-दो करोड़ रुपये में बेचने का आरोप लगा. आम आदमी पार्टी ने मानहानि का दावा करने की धमकी भी दी. पार्टी के तीन साल बाद आज आम आदमी पार्टी सत्ता में बरकरार है. पूर्ण बहुमत मिला था. लेकिन आज हाशिए पर वो सारे पुराने साथी हैं जिन्होंने मिलकर पहले अन्ना आंदोलन को खड़ा किया था तो बाद में आम आदमी पार्टी को.

केजरीवाल ने अपने पुराने साथियों का भरोसा तोड़ा तो अब उनके आरोपों को जनता भी उतनी गंभीरता से नहीं लेती है. इसकी मिसाल तब दिखाई दी जब उन्होंने नोटबंदी के फैसले पर मोदी सरकार पर बड़ा आरोप लगाया था.  उन्होंने नोटबंदी को एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का घोटाला बताकर इसे साबित करने का ऐलान किया था. लेकिन वो आरोप भी बाकी आरोपों की तरह ‘राजनीति के हिंट एंड रन’ साबित हुए.

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3 सालों में केजरीवाल ने आरोपों की राजनीति से ‘हिट एंड रन’ का ही काम किया है. कभी एलजी से तकरार तो कभी दिल्ली पुलिस कमिश्नर के साथ बखेड़ा ही सुर्खियों में रहा. जब भी पार्टी पर आंच बढ़ी तो उन्होंने विपश्यना का सहारा लेकर मामले के शांत होने का इंतजार किया.

अब केजरीवाल बहुत बदल चुके हैं और उनकी पार्टी भी कुछ खास लोगों तक सीमित रह गई है. भले ही पंजाब और गोवा में जमानत जब्त होने वाला चुनाव हारे लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर पार्टी तैयारियां कर रही है. इस पार्टी पर भी वो आरोपों को वो सारे दाग लग चुके हैं जो इसे पूर्ण राजनीतिक दल का दर्जा देती है क्योंकि केजरीवाल ये साबित नहीं कर सके कि उनकी पार्टी कांग्रेस, बीजेपी या दूसरी पार्टियों से अलग है.