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ये है साल 2016 का 'पर्सन ऑफ द ईयर'...

इसका सिद्धांत है: लोगों को वो करने की सीख दो, जैसा तुम खुद बिल्कुल न करते हो.

Sandipan Sharma

चलिए आज आपकी मुलाकात कराते हैं, साल 2016 के 'पर्सन ऑफ द ईयर' से. ये उत्तम दर्जे का भारतीय पाखंडी है. आप इस इंसान से कई जगह मिले होंगे. ये एटीएम, बैंकों, सिनेमाघरों के आगे लगी कतारों में खड़ा मिला होगा.

वहां पर ये शख्स नारेबाजी करता दिखा होगा, या फिर व्हाट्सऐप पर जिहाद छेड़ रहा होगा, या फिर ये ट्विटर पर किसी के बहिष्कार का समर्थन कर रहा होगा. ये वो शख्स है जो अपने ही देश के लोगों से भिड़ा होगा या फिर अपने कंप्यूटर पर बैठा सीमा पर तैनात जवानों के लिए खून बहा रहा होगा.


इसका सिद्धांत है: लोगों को वो करने की सीख दो, जैसा तुम खुद बिल्कुल न करते हो.

इसका धर्म है: उन आदतों के लिए लोगों से नफरत करना अपनी जिन आदतों को वो जमाने से छुपा रहा हो.

ये साल एक भारतीय पाखंडी का ही कहा जाएगा. वो चीखा, चिल्लाया, भड़का, लोगों पर आरोप लगाए बिना ये सोचे कि उसकी खुद की उंगलियां उसकी तरफ उठ रही हैं. मगर जैसा कि मशहूर अमेरिकी लेखक-कवि रैल्फ वाल्डो एमर्सन ने कहा था कि वो इतनी जोर से चीख रहा था कि खुद उसी के शोर में उसकी आवाज डूब गई.

विरोधाभासों का देश

हिंदुस्तान विरोधाभासों का देश है. अब देखिए न हम देवियों की पूजा करते हैं लेकिन हमारा लिंग अनुपात बेहद खराब है. हम बेटियों को पैदा होने से पहले मार देते हैं.

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हम संस्कारों की बातें करते हैं. पर हम ही जाति व्यवस्था को बढ़ावा देते हैं. हम दहेज मांगते हैं. भारतीयों की लड़के पैदा करने की चाहत सनक की हद को भी पार कर जाती है.

हमारा देश कामसूत्र, खजुराहो के मंदिरों का देश है. आबादी की विकास दर के मामले में हम दुनिया के अव्वल देशों में शुमार होते हैं. मगर हमारे देश में पहलाज निहलानी जैसे लोग भी हैं जो फिल्मों के कुछ सीन को अश्लील करार देकर काट देते हैं.

हम भजन तो कबीर और मीरा के गाते हैं. मगर आसाराम और राधे मां जैसे लोगों को बापू और मां कहते हैं. हम ऐसे चालाक देश हैं. ऑस्कर वाइल्ड के मुताबिक हम जो भी बात कहते हैं उसका मतलब वो होता ही नहीं, जो हम कह रहे होते हैं.

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लेकिन कई बार किसी देश का समाज और राजनैतिक हालात ऐसे मोड़ पर पहुंच जाता हैं जो इन विरोधाभासों को उजागर कर देता है. हमारे दोगलेपन, हमारे पाखंड को उधेड़कर रख देता है. इसी तरह हमें पाखंडी हिंदुस्तानियों के कई रंग-रूप देखने को मिलते हैं.

इसी तरह हमें इस साल देश में काले धन का लड़ाका देखने को मिला, जो प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के एलान से बेहद खुश हुआ.

देशभक्ति के नशे में चूर इस काले धन के लड़ाके ने नोटबंदी के एलान के बाद कह दिया कि देश से काला धन खत्म हो गया. हर इंसान के पास से काला धन खत्म हो गया, सिवा उसके.

मगर ऐसा एलान करने के अगले ही दिन वो अपनी गैरकानूनी कमाई को लेकर काला धन सफेद करने वालों के पास पहुंच गया. अपनी अवैध कमाई को खातों में डालकर वो ये कह उठा कि यार अपना तो एडजस्ट हो गया.

पाखंडी भारतीय की कहानी

इस पाखंडी भारतीय ने नोटबंदी को अमीर, भ्रष्ट और ताकतवर लोगों पर सर्जिकल स्ट्राइक करार दिया. मगर अगले ही पल वो भ्रष्टाचार और फरेब की गंगा में डुबकी लगाने भी पहुंच गया. उसके साथ ये गंगा स्नान करने पहुंचने वालों में वही दलाल थे जिन पर वो सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहा था.

नोटबंदी के बार-बार बदले गए नियमों ने इस इंसान के पाखंड को उधेड़कर रख दिया. जब वो खुले में तो ऐसे बदलावों की तारीफ करता था और भारत माता की जय के नारे लगाता था. मगर, पीठ पीछे वो इन नियमों की आड़ में अपनी काली कमाई सफेद कर रहा था.

हमारे बीच खुद को बेहद पवित्र बताने वाला धर्मांध भी था. वो एक खास धर्म के क्रिकेटर की बीवी के गाउन पहनने पर निंदा होने पर उस खास धर्म पर निशाना साधता था. वो कहता था कि उस धर्म में किसी को आजादी ही नहीं हासिल है. दूसरे धर्म के लोगों पर इल्जाम लगाता था कि वो अपनी आस्था दूसरों पर थोप रहे हैं.

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मगर अगले ही पल वो एक मशहूर दंपति के अपने बेटे के नाम रखने के हक पर ही सवाल उठाने लगता था. वो किसी महिला के अपना जीवनसाथी चुनने के अधिकार पर भी सवाल उठाने लगता था. वो किसी शख्स के अपना खान-पान चुनने की हकतल्फी करने लगता था तो किसी निर्माता के अपने पसंदीदा कलाकार को फिल्म में रखने का भी विरोध करने लगता था.

इस पाखंडी का वैचारिक विरोधी भी ठीक इसके उलट बर्ताव करता था. तो हमने देखा कि लाइन के उस पार खड़ा ये कपटी किसी महिला के अपने बेटे को तैमूर बुलाने के हक का समर्थन करता था. मगर यही पाखंडी किसी महिला को तीन तलाक की प्रथा का विरोध करने के अधिकार से वंचित रखना चाहता था. या फिर ये पाखंडी किसी महिला के गाउन पहनने पर ही ऐतराज करने लगता था.

पाखंडी फैलाते हैं नफरत

कहने का मतलब ये कि पाखंडियों की जमात का दुनिया में सिर्फ एक धर्म होता है: नफरत.

तो हमारे पास पवित्र गौभक्त भी था. जिसने गाय को अपनी मां बताया. ये किसी के बीफ खाने पर उसकी पिटाई करने का पक्षधर था. ये मरे जानवरों की खाल निकालने वालों का भी मुखालिफ था. मगर ये उस वक्त अंधा हो जाता था जब इसके सामने से भूखे जानवर गुजरते थे.

इसे उस वक्त दिखाई देना बंद हो जाता था जब जानवर कूड़े के ढेर में से खाना तलाशते होते थे. इसकी आत्मा तब भी नहीं जगती थी जब गौशाला में सैकड़ों गायें मर जाती थीं.

ये पाखंडी हिंदुस्तानी उस वक्त देशभक्ति के बड़े जोश में आ जाता था जब, लोग देश में दिक्कतों की शिकायतें करते थे, तब ये सरहद पर मर रहे जवानों की मिसालें देने लगता था.

मगर यही शख्स अपने बच्चों को विदेशों में नौकरियां तलाशने के लिए खुशी खुशी भेज देता था. उस वक्त इसे सेना के खाली पदों का जरा भी खयाल नहीं आता था. तब ये सोचता था कि सेना में तो उसके पड़ोसी के बच्चे भर्ती हों.

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वो ट्विटर पर आंसुओं की गंगा बहा देता था, जब सियाचिन में हमारे जवान जान गंवाते थे. मगर यही शख्स उस वक्त हंसता था जब लोग कहते थे कि नोटबंदी की वजह से लोग बैंकों की कतारों में जान गंवा रहे हैं.

इसे तब भी हंसी आती थी जब जंतर मंतर पर एक आदमी वन रैंक वन पेंशन की मांग करते करते खुदकुशी कर लेता था.

ये शख्स बड़ा देशभक्त था मगर ये राहत फतेह अली खान के गानों पर नाचता था. हनी सिंह के गानों का हवाला देकर चुनौती देता था कि जिसमें भी हिम्मत हो वो ऐसे गाने बंद करा ले. लेकिन यही आदमी गुलाम अली के गजल कार्यक्रमों का विरोध करने पहुंच जाता था.

ये उस वक्त तो बड़ा खुश होता था जब भारतीय हॉकी टीम पाकिस्तान को हरा देती थी. मगर क्रिकेट और कबड्डी की टीमों के पाकिस्तान से खेलने पर इसे ऐतराज होता था.

ये कपटी इंसान उस वक्त बड़ा दुखी हो जाता था जब कोई राज्य सरकार प्रचार में कुछ सौ करोड़ की रकम खर्च करती थी. मगर जब किसी दूसरे राज्य की सरकार अरब सागर में एक स्मारक बनाने के लिए 3600 करोड़ खर्च करने का एलान करती थी तो ये खुशी के मारे पागल हो जाता था. उसे इस बात से जरा भी फर्क नहीं पड़ता था कि उसी राज्य में सबसे ज्यादा किसान खुदकुशी करते हैं.

सोशल मीडिया का जिहादी है ट्रॉल

ये पाखंडी इंसान सोशल मीडिया का जिहादी था. ये उस ऐप पर पाबंदी लगाने की बात करता था जिसकी कंपनी का प्रचार आमिर खान करते थे.

मगर मजे की बात ये कि यही विरोध करने वाला शख्स उसी कंपनी की हर ऑनलाइन सेल में कुछ न कुछ खरीद भी लेता था. ये वही शख्स था जो ट्विटर पर चीन में बने सामान पर पाबंदी की बातें करता था. मगर ये आदमी उस वक्त लाइन में लगा होता था जब चीनी कंपनियों के मोबाइल की ऑनलाइन फ्लैश सेल होती थी. इसे पेटीएम से भुगतान करने से भी गुरेज नहीं था.

ये ऐसा असहिष्णु ट्रॉल था जो फिल्मों पर पाबंदियां लगाने की वकालत करता था. जो कलाकारों को सजा देने का हिमायती था. लेकिन उन्हीं फिल्मों और कलाकारों की फिल्मों के पहले दिन का पहला शो देखने का भी इसे हमेशा शौक रहा. इस तरह इसने बॉक्स ऑफिस के दंगल में बेझिझक करोड़ो रुपए दांव पर लगा दिये.

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यानी 2016 का साल न तो नरेंद्र मोदी का था, न अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी, उर्जित पटेल, आमिर खान या सलमान खान का था. ये उस अव्वल दर्जे के पाखंडी का साल था, जो पूरे साल भर हमारा मनोरंजन करता रहा.

अंग्रेजी के मशहूर लेखक समरसेट मॉम के शब्दों में, पाखंड कोई ऐसा काम नहीं जो खाली वक्त में, कभी-कभार किया जाए, ये तो पक्की नौकरी जैसा है.

बहुत बहुत मुबारकबाद, हम सबने पूरे एक साल पाखंड का काम किया.