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सामान्य वर्ग के 10% कोटा पर ‘विरोध’ की कुछ आवाजों को अनसुना नहीं किया जा सकता

10 फीसदी कोटे के बाद अब आर्थिक आधार पर आरक्षण को लागू किए जाने की बहस फिर से शुरू होने लगी है. इस बहस को शुरू करने वाले लोगों को क्या ये लगता है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण शुरू किए जाने से आरक्षण का लाभ लेने वाली जातियों की हिस्सेदारी में बदलाव आ जाएगा?

Vivek Anand

आरक्षण को लेकर बचपन में दो लाइनें सुनी थीं. अब तक इसलिए याद है क्योंकि रिजर्वेशन पर लिखे स्कूली निबंध में इन्हीं दो लाइनों का जिक्र कर आरक्षण विरोध पर अपने प्रखर विचार रखे थे. वो लाइनें थीं-

रेस जीतेंगी यहां बैसाखियां... पांव वाला दौड़ता रह जाएगा...


बहुत बाद जाकर अहसास हुआ कि बात इतनी सामान्य नहीं है कि सिर्फ इन दो लाइनों में फैसला सुना दिया जाए. बैसाखियां रेस नहीं जीत रहीं बल्कि जिंदगी के हर मुकाम पर कहीं पीछे छूट चुके लोगों को बैसाखी का सहारा देकर उन्हें पांव वालों के साथ रेस में इतने भर की मदद दी जा रही है कि वो रेस में आ सकें, वहां बने रह सकें, अव्वल नहीं तो किसी पायदान पर आकर अपने होने का अहसास बचाए रखें. पहले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति फिर पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था देकर रेस में फिनिशिंग लाइन को खींचकर थोड़ा उनके करीब ला दिया गया था. ताकि वो दौड़ें, जीतें और उनकी आने वाली पीढ़ियां इतनी ताकतवर हों कि अपने हौसले पर पांव वालों के साथ मुकाबला कर सकें.

आरक्षण को लेकर एक दूसरी समझ इस उदाहरण से आती है कि ये उस चलती ट्रेन की तरह है, जिसमें बाहर खड़ा आदमी सोचता है कि वो किसी तरह से उस ट्रेन में सवार हो जाए और अंदर का आदमी सोचता है कि किसी भी सूरत में बाहर के आदमी को भीतर घुसने न दे. इस उदाहरण में आरक्षण एक विशेष तरह की सुविधा पाने का जरिया भर जाता है. जब शोषित, वंचित और पिछड़े तबके की सामाजिक सुरक्षा वाली व्यवस्था सुविधा मान ली जाए तो उस पर राजनीति होना लाजिमी है. जैसे देश के सामान्य वर्ग के 10 फीसदी आरक्षण की नई सरकारी व्यवस्था पर हो रही है.

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इतनी महीन राजनीति हो रही है कि सत्ता का स्वाद ले रही पार्टियों के अलावा हर दल सरकार की नीयत पर अंगुली उठा रहे हैं लेकिन आरक्षण का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. लोकसभा में सिर्फ एआईएमआईएम, एआईएडीएमके और आरजेडी ही आरक्षण की व्यवस्था करवाने वाले संविधान संशोधन बिल का विरोध कर पाए. सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण जिसे राजनीतिक मुनाफे के मकसद से सवर्णों के लिए 10 फीसदी कोटा के बतौर प्रचारित किया जा रहा है, उसके कुछ फैक्ट्स हैं-

सामान्य वर्ग के हर जाति-धर्म के लोगों को 10 फीसदी आरक्षण मिलेगा.

एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण के साथ बिना छेड़छाड़ किए 10 फीसदी का कोटा दिया जा रहा है.

8 लाख की सालाना आमदनी और उससे नीचे की आय वाले इस आरक्षण का लाभ ले पाएंगे.

देश की करीब 95 फीसदी से भी ज्यादा की आबादी इस आरक्षण के दायरे में आएगी.

चुनावी राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी का मास्टरस्ट्रोक बताए जाने वाली आरक्षण की इस नई व्यवस्था का अलग-अलग तरीके से विरोध हुआ है. लोकसभा में दो और राज्यसभा में कुछ ज्यादा पार्टियों ने खुले तौर पर इसका विरोध किया और कुछ ने समर्थन देते हैं लेकिन हमारे ये सवाल है जैसी बातें करके अपना विरोध दर्ज करवाया. सवाल थे-

जब सरकारी नौकरी ही नहीं है तो फिर 10 फीसदी कोटे का क्या मतलब है?

8 लाख की सालाना आमदनी वाले आर्थिक आधार पर आरक्षण के हकदार कैसे हो सकते हैं?

अगर 15 फीसदी आबादी वाले को 10 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है तो 52 फीसदी आबादी वाले को सिर्फ 27 फीसदी आरक्षण ही क्यों?

राज्यसभा में बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा ने एक कहानी के जरिए अपनी बात संसद के सामने रखी. उन्होंने कहा कि हम सबने अपने बचपन में एक कहानी सुनी होगी. कहानी की शुरुआत की लाइन होती थी- एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था.... उन्होंने सवाल किया कि क्या आपने किसी कहानी में सुना है कि एक गांव में एक गरीब दलित था... एक गांव में एक गरीब कुम्हार था...एक गरीब मल्लाह था....एक गरीब यादव था... क्योंकि इन जातियों के लिए कोई कहानी नहीं बन सकती, ये हकीकत है. कहानियां काल्पनिक चीजों पर बनती है. इन जातियों की गरीबी हकीकत है.

ओबीसी की राजनीति करने वाली पार्टियां चाहे वो सरकार में सहयोगी रही अपना दल जैसी पार्टी हो या फिर विपक्ष की कतार में बैठे आरजेडी जैसे दल, वो जाति आधारित जनगणना को सार्वजनिक किए जाने की मांग कर रहे हैं. 10 फीसदी कोटा पर बहस के बीच में वो कहते हैं कि अगर 15 फीसदी के सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है तो फिर 52 फीसदी के पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी ही आरक्षण क्यों? इस आधार पर वो अपने लिए 85 फीसदी आरक्षण की डिमांड करते हैं. आरक्षण को सुविधा बना दिए जाने के बाद मामला पेचीदा हो गया है.

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जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी का नारा पुराना है. 10 फीसदी कोटा के आने के बाद अब ये फिर से उछाला जाने लगा है. सवाल उठाने वाले लोग सरकार से जाति आधारित जनगणना को सार्वजनिक किए जाने की मांग करने लगे हैं. 2011 में सरकार ने कास्ट बेस्ड सेंसस किया था. लेकिन उसके आंकड़े अभी तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं. 2011 की जनगणना में हर नागरिक की सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक हालात का ब्योरा उसकी जाति के नाम के साथ दर्ज है. सरकार उन आंकड़ों को सामने रखकर जातियों के वर्तमान हालात और पिछले दिनों आए उनमें बदलाव को पारदर्शी तरीके से देश के सामने रख सकती है. लेकिन जातियों की दशा बताने वाले आंकड़े फाइलों में बंद है.

पिछली बार जाति आधारित जनगणना ब्रिटिश राज में साल 1931 में हुई थी. उस वक्त के आंकड़ों के मुताबिक देश में ओबीसी की जनसंख्या 52 फीसदी, अनुसूचित जाति की संख्या 15.5 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 7 फीसदी थी. अनुसूचित जाति और जनजाति को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण दिया गया. हालांकि 52 फीसदी आबादी वाले ओबीसी के हिस्से 27 फीसदी का आरक्षण ही आया.

2011 की जाति आधारित जनगणना को सार्वजनिक कर आरक्षण की सुविधा मिलने के बाद ओबीसी जातियों के सामाजिक, आर्थिक हैसियत में आए बदलाव का अंदाजा लगाया जा सकता है. जानकार बताते हैं कि सरकार उन फाइलों को इसलिए सार्वजनिक नहीं कर रही क्योंकि ओबीसी अपनी ज्यादा आबादी के आंकड़े दिखाकर आरक्षण बढ़ाए जाने की डिमांड कर सकती है.

ये भी एक तथ्य है कि आरक्षण को लेकर जितनी तीखी राजनीति होती है, उतनी ही उसको लेकर भ्रामक खबरें भी फैलाई जाती हैं. मसलन आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद भी सरकारी नौकरियों में हालात उतने नहीं बदले हैं जितने बताए जाते हैं. सरकार के ही कार्मिक विभाग के आंकड़ों के मुताबिक आरक्षण के बावजूद सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 57.79 फीसदी है. वहीं इन नौकरियों में ओबीसी की हिस्सेदारी 17.31 फीसदी और एससी एसटी की हिस्सेदारी 17.3 फीसदी है. सरकार के ए ग्रेड नौकरियों में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी और भी ज्यादा 74.48 है, जबकि ओबीसी यहां सिर्फ 8.37 फीसदी की मौजूदगी दर्ज करवा पाता है.

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10 फीसदी कोटे के बाद अब आर्थिक आधार पर आरक्षण को लागू किए जाने की बहस फिर से शुरू होने लगी है. इस बहस को शुरू करने वाले लोगों को क्या ये लगता है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण शुरू किए जाने से आरक्षण का लाभ लेने वाली जातियों की हिस्सेदारी में बदलाव आ जाएगा? राज्यसभा में बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा कहते हैं कि मेरे कुछ दोस्त कहते हैं कि गरीबी की कोई जात नहीं होती... ये शायराना लगता है... काव्यात्मक लगता है.... सुनने में अच्छा लगता है.... सच तो ये है कि जातियों में गरीबी है.