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गांधीवादी होने का दिखावा करती हमारी सरकारों ने गांधी के डर को सही साबित किया है

गांधी को इससे सच्ची श्रद्धांजलि और कुछ नहीं हो सकती कि आज के नेता इस बात पर एकमत हों कि सरकारों के हिंसक स्वरूप से निजात दिलाना है

Ajay Singh

अगले साल हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं. तमाम आयोजनों की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. मगर, हमारे सामने रोजाना इस बात के सुबूत आते हैं, जो ये बताते हैं कि भारत को लेकर गांधी की परिकल्पना और आज की हकीकत के बीच दरार बेहद चौड़ी और गहरी है. सत्य और अहिंसा में गांधी की आस्था और इन मूल्यों के प्रति भारत गणराज्य की सोच का फासला बहुत चौड़ा है.

इस बात की मिसाल हाल ही में लखनऊ में फिर से देखने को मिली, जब शनिवार को एक पुलिसवाले ने एक निजी कंपनी के अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी. ये हिंसा का बेहद वीभत्स रूप है.


गांधी ने कहा था कि राज्य का अस्तित्व ही हिंसा पर आधारित है

आधुनिक राज्य की गांधी की परिकल्पना पर अमेरिकी लेखक-चिंतक हेनरी डेविड थोरेयू और रूसी लेखक लियो टॉल्सटॉय का बहुत गहरा असर पड़ा था. गांधी की नजर में हुकूमत एक जंगली जानवर जैसी थी. उन्हें इस बात का कोई भ्रम नहीं था कि साम्राज्यवादी हुकूमत या लोकतांत्रिक सरकार में फर्क होता है.

गांधी ने कहा था कि, 'राज्य हिंसा का संगठित और केंद्रीकृत नाम है. किसी इंसान के अंदर तो आत्मा होती है. मगर हुकूमत एक मशीन है, जिसके अंदर आत्मा नहीं होती. इसे हिंसा से अलग नहीं किया जा सकता. राज्य का अस्तित्व ही हिंसा पर आधारित है.'

फिर भी गांधी ताउम्र ये कोशिश करते रहे कि देश और इसके नागरिक अहिंसा को अपनाएं. अपनी पत्रिका हरिजन में 12 नवंबर 1938 को गांधी ने लिखा था कि, 'ये कहना पाप है कि केवल नागरिक ही अहिंसा को अपना सकते हैं, मगर इन्हीं नागरिकों से बना कोई देश अहिंसक नहीं हो सकता.'

अहिंसा में गांधी का यकीन इतना पुख्ता था कि आजादी से चार दशक पहले ही गांधी ने 'हिंद स्वराज' में भारतीयों की खुदमुख्तार हुकूमत को लेकर चेतावनी दी थी. उन्होंने कहा था कि अगर हमें स्वराज मिल गया, तो हम ब्रितानी हुकूमत की तरह ही हिंसा की नीति पर चलेंगे. गांधी ने लिखा था कि, 'आप बाघ का मिजाज तो चाहते हैं, मगर बाघ नहीं चाहते. यानी आप भारत को इंग्लिश्तान बनाना चाहते हैं.'

राज्य सरकारों ने गांधी के डर को सही साबित किया है

आजादी के बाद के तमाम दशकों में जिस तरह से सरकारों ने अपने ही निरीह नागरिकों पर हिंसक जुल्म ढाए हैं, उसने गांधी के डर को सही साबित कर दिया है. पुलिस और राज्य के दूसरे अंगों के जरिए हुकूमतों ने दिखाया है कि वो अपने उन्हीं नागरिकों के खिलाफ खड़ी है, जिसकी उसे रक्षा करनी चाहिए. नैतिक रूप से मजबूत किसी सियासी नेता की गैरमौजूदगी में सरकार के लिए ढोल बजाते लोग अक्सर इस हिंसा को जायज ठहराते हैं. उनके तर्क किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराए जा सकते. (अगर आपको इस बात में कोई शुबहा हो तो, विवेक तिवारी की हत्या को जायज ठहराने के लिए सोशल मीडिया पर जो कुछ लिखा गया, वो पढ़िए)

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वैसे, ये चलन कोई नया नहीं. सरकारों ने अक्सर अपनी अनैतिक करतूतों को वाजिब ठहराने के लिए ऐसे शोर मचाने वाले समर्थक जुटाए हैं. नागरिकों पर जुल्मो-सितम को तरह-तरह से सही ठहराया गया है. पिछले कुछ दशकों में इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं, जो फाइलों में दबकर रह गईं. जिन्हें इंसाफ नहीं मिला. मेरा यकीन मानिए कि अगर विवेक तिवारी को सरेआम लखनऊ जैसे शहर में नहीं मारा गया होता और वो एपल जैसे नामी ब्रैंड से नहीं जुड़ा होता, तो उसके इस गैरकानूनी कत्ल की अनदेखी कर दी जाती. मामला रफा-दफा कर दिया जाता. हमने देखा है कि मलियाना, हाशिमपुरा और पीलीभीत हत्याकांडों का क्या हश्र हुआ. न तो पीड़ितों को इंसाफ मिला, न ही दोषियों को सजा.

गौर करने लायक बात है कि तमाम सियासी दलों में इस बात की एका है कि वो हिंसा को सरकार चलाने का एक अहम हिस्सा मानें. जैसे कि, यूपी के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता एक के बाद एक विवेक तिवारी के घर लाइन लगाकर जा रहे हैं, ताकि बीजेपी को कठघरे में खड़ा कर सकें. लेकिन, जब यही समाजवादी पार्टी जब सत्ता में थी, तो, 2013 में मुजफ्फरनगर में दंगे भड़क उठे थे. तब समाजवादी पार्टी के एक दिग्गज नेता ने एडीजी रैंक के एक आईपीएस अफसर को निर्देश दिया था कि वो कुछ जाटों को गोली मार दें. इससे मुसलमानों का हिसाब बराबर हो जाएगा. मुस्लिमों और हिंदू पीड़ितों की तादाद बराबर हो जाएगी. वो अफसर इस बात से हैरान रह गया था और उसने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया था. नतीजा ये हुआ कि उस अफसर का तबादला कर दिया गया. शायद समाजवादी पार्टी के नेता को ऐसा अधिकारी मिल गया होगा, जो उनके इशारों पर नाचने को राजी होगा.

गांधीवाद से सरकारों का नाता दिखावा है

लखनऊ में विवेक तिवारी की सरेआम हत्या से हिले लोगों को अपनी याददाश्त को खंगालकर दिल्ली के कनाट प्लेस में हुए एक एनकाउंटर को याद करना चाहिए. 90 के दशक में ये मुठभेड़ भरी दोपहरी में हुई थी. दिल्ली पुलिस की एक स्पेशल टीम ने दो कारोबारियों की हत्या कर दी थी. उन्होंने इस शक के आधार पर दोनों कारोबारियों को गोली मार दी थी, कि वो आतंकवादी थे. इससे पहले कि पुलिस वहां पर हथियार रखकर मामले को नया रंग देने की कोशिश करती, मीडिया और मारे गए कारोबारियों के परिजन वहां पहुंच गए और सच उजागर हो गया. लेकिन, उस वक्त दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रहे निखिल कुमार ने पुलिस वालों के जुर्म को हल्का बताने के लिए एक नया ही जुमला गढ़ लिया था, 'ये एक ईमानदार गलती थी.'

ऐसी 'ईमानदार गलतियां' लगातार और नियमित रूप से होती रही हैं. ऐसी घटनाओं का बार-बार होना हमें याद दिलाता है कि गांधीवाद से हमारी सरकार का नाता महज एक दिखावा है. ये एक ऐसा पर्दा है जिसकी आड़ में हुकूमतें अपनी आपराधिक करतूतों को छुपाती आई हैं. सरकारों के ये अपराध मौजूदा सियासी सिस्टम का ही नतीजा हैं.

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इस आपराधिक निजाम को बेपर्दा करने के लिए हमें ऐसे सियासी लीडर की जरूरत है, जो नैतिक रूप से बहुत मजबूत हो. जिसमें जुर्म में डूबी हुकूमत का सामना करने का साहस और मजबूत इरादे वाला हो.

ये सोचना बचकाना होगा कि आज जो लोग सत्ता में हैं, उन्हें इस पतन का अंदाजा नहीं है. इस बात की तरफ उनका ध्यान बार-बार खींचा गया है. इसकी चर्चा होती आई है. लेकिन हर बार किसी न किसी बहाने से  इन सवालों को हाशिए पर धकेल दिया गया है.

आज की सरकारों से हिंसात्मक पहलू निकालना होगा

ऐसी ही एक मिसाल मुझे याद पड़ती है. 2013 में खुफिया ब्यूरो ने राज्यों के डीजीपी की एक कांफ्रेंस बुलाई थी. तब बिहार के डीजीपी अभयानंद ने उसमें 'कानून बनाम लाठी' के नाम से एक पेपर पेश किया था. इसमें उन्होंने सवर्णों के गैरकानूनी संगठन रणबीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया के मारे जाने के बाद भोजपुर जिले में भड़की हिंसा को काबू करने में हुई नाकामियों का जिक्र किया था.

इस काफ्रेंस में मौजूद ज्यादातर अधिकारियों ने इसके प्रति बेरूखी जाहिर की. लेकिन अभयानंद ने जोर देकर अफसोस जताया कि उन्होंने गुंडों और अराजक तत्वों को पटना में हुड़दंग मचाने दिया. लेकिन अभयानंद ने कहा कि विकल्प होने के बावजूद उन्होंने इन बदमाशों पर गोलियां चलाकर कानून का राज कायम करने का विकल्प नहीं आजमाया. अभयानंद की नजर में पुलिस अगर ज्यादा बल प्रयोग करती, तो बेगुनाह लोग मारे जाते.

अभयानंद के इस पेपर की वजह से पुलिस के ज्यादा बल प्रयोग को लेकर चर्चा शुरू हुई. लेकिन, नागरिकों पर बल प्रयोग से बचने के अभयानंद के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया. कांफ्रेंस में मौजूद केंद्रीय पुलिस बल के एक डीजीपी रैंक के अधिकारी ने कहा कि, 'उग्रवाद और नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में ऐसे सुझाव लागू करने का प्रस्ताव न दें.'

उस कांफ्रेंस में मजाक बनाए जाने के शिकार हुए अभयानंद याद करते हुए बताते हैं कि उनका अपने पेपर को पेश करने के पीछे एक ही मकसद था कि हमें कानून का राज कायम करने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए.

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पत्रकार के तौर पर मैं भी उस वक्त अभयानंद के प्रस्ताव को लेकर आशंकित था. लेकिन सरकार की आक्रामक और मर्दाना छवि पेश करने के लिए आज पुलिस सिर्फ यूपी में नहीं, बल्कि जिस तरह बेकाबू हो रही है उससे खतरे की घंटी और तेज बजती मालूम होती है. शायद अब इस बात की जरूरत है कि आम जनता से सिविल पुलिस के रिश्तों पर नए सिरे से चर्चा हो. इस सवाल पर बहस हो कि क्या सिविल पुलिस को हथियारबंद नहीं होना चाहिए. खाकी वर्दी का मतलब आम जनता में सुरक्षा और भरोसा जगाना होना चाहिए, न कि आज जैसी डरावनी इमेज.

महात्मा गांधी अपने साथ लाठी लेकर चलते थे. लाठी जो शक्ति का प्रतीक थी, हिंसा की नहीं. गांधी हमेशा ऊंचे आदर्शों और नैतिकता के रास्ते पर चलते थे. अब जबकि देश राष्ट्रपिता की 150वीं सालगिरह मनाने की तैयारी में जुटा है, तो ऐसे में गांधी को इससे सच्ची श्रद्धांजलि और कुछ नहीं हो सकती कि आज के नेता इस बात पर एकमत हों कि सरकारों के हिंसक स्वरूप से निजात दिलाना है.