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पितृपक्ष में राष्ट्रपिता की याद: ‘स्वराज’ और ‘सुराज’ की यात्रा हमने किस हद तक तय की है

पितृपक्ष में गांधी को राष्ट्रपिता के रूप याद करने का मतलब है टॉलस्टॉय की चिट्ठी के आईने में अपने वक्त को पढ़ना-परखना और इस सवाल से गुजरना कि ‘स्वराज’ और ‘सुराज’ की यात्रा हमने किस हद तक तय की है ?

Updated On: Oct 02, 2018 08:07 AM IST

Chandan Srivastawa Chandan Srivastawa
लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों के शोधकर्ता हैं

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पितृपक्ष में राष्ट्रपिता की याद: ‘स्वराज’ और ‘सुराज’ की यात्रा हमने किस हद तक तय की है

दफ्तर में गांधी जयंती है और घर में पितृपक्ष की अष्टमी तिथि! दफ्तर में छुट्टी है और घर में पुरखे-पितर को बुलाने और तृप्त करने की पूजा! क्या जैसा घर में है, वैसा ही बाहर भी है? कभी लगता है ‘हां’ क्योंकि गांधी राष्ट्रपिता हैं. कभी लगता है ‘न’ क्योंकि ऐसी कोई मजबूरी नहीं कि हर भारतीय गांधी को राष्ट्रपिता कहे और माने!

यह भी एक संयोग ही है कि गांधी को देश ‘राष्ट्रपिता’ कहता आया है वरना इंटरनेटी ज्ञानगंगा में गूगल की गगरी के सहारे से कभी तैरने और कभी खूब गहरे गोते लगाने वाले आज के ‘यंगिस्तान’ के एक होनहार ने पांच साल पहले पूछ ही दिया था सरकार बहादुर से सूचना के अधिकार कानून का औजार थामकर कि ‘बताओ, महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' की उपाधि कब और किस आदेश के तहत दी गई थी ’ ?

गांधी: राष्ट्रपिता हैं भी और नहीं भी

सरकार इस प्रश्न पर निरुत्तर हो गई. पहले उसने गृह मंत्रालय से पूछा. गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय संग्रहालय से जानना चाहा कि क्या सचमुच किसी ऐसे आदेश की कोई प्रति है जिसमें गांधी को राष्ट्रपिता कहा गया हो. जवाब राष्ट्रीय संग्रहालय के पास भी नहीं था, सो उसने सवाल पूछने वाली लखनऊ की उस छोटी सी बच्ची ऐश्वर्या को जवाब लिखा कि खुद ही आकर इस संग्रहालय को खंगालो और खोजो कि गांधी को राष्ट्रपिता करार देने वाला क्या कोई प्रासंगिक दस्तावेज उपलब्ध है भी या नहीं !

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पांच साल पहले ऐश्वर्या के सवाल के जवाब में सरकार के निरुत्तर रह जाने की यह कहानी गांधी जयंती पर ‘बापू’ के स्मरण में अपने दो संकेतार्थों के कारण बड़ी महत्वपूर्ण है. एक तो यह कि गांधी ‘राष्ट्रपिता’ हैं लेकिन उनके ‘राष्ट्रपिता’ होने पर सरकारी फैसले का कोई ठप्पा नहीं है. सो, तनिक छूट भी है. आप चाहें तो गांधी को अपना पुरखा मानें, उन्हें राष्ट्रपिता के रूप में इस पितृपक्ष में याद करें और चाहें तो ना मानें, उन्हें चतुर नेता मानें जिसने संन्यासी के बोल बोलकर एक राजनीतिक कार्य के लिए सोद्देश्य लोगों की भीड़ जुटाई या फिर एक संन्यासी समझें जिससे संन्यास के धर्म का ठीक-ठीक निर्वाह ना हो सका क्योंकि उसने सारी उम्र राजनीति में बिताई और अंत में अपनी राजनीति के व्यर्थ हो जाने की भावना से पीड़ित हुआ.

लेकिन अगर गांधी को आप किन्हीं वजहों से पुरखा मानते हैं तो फिर आपको संतति-भाव से महसूस करना होगा कि आपके भीतर उस राष्ट्रपिता की कोई भाव-राशि मौजूद है और यह भाव-राशि आपसे अपना दाय मांगेगी. गांधी अपने को सनातनी हिंदू कहते थे और अगर आप अपने को हिंदू मानते हैं तो फिर इस पितृपक्ष में मार्के का सवाल तो यही है कि गांधी को पुरखा मानने के बाद आप उन्हें तर्पण में क्या देंगे ?

गांधी की मूरत और भजन-कीर्तन

गांधी अपने मूर्तिरूप में सहज उपलब्ध हैं. मूर्तिरूप में उन्हें देखें तो सारा देश ही गांधीमय जान पड़ेगा. डाक-टिकट पर गांधी, रिजर्व बैंक के गवर्नर की हैसियत से पहले दस-बीस, सौ-पचास और अब पांच सौ से लेकर दो हजारी रुपए अदा करने के वचन देते कागज पर गांधी, नगर के चौक पर गांधी, स्कूल की किताबों से लेकर अदालत की दीवारों तक पर गांधी!

इस मूर्तिबद्ध गांधी को तृप्त करना आसान है. स्कूली किताबों में अगर गांधी मौजूद हैं तो उन्हें परीक्षोपयोगी प्रश्न के रूप में याद करना आसान ही कहलाएगा न! 2 अक्टूबर को सरकारी तौर पर जयंती का रूप देना, गांधी-स्मारक पर फूल-माला चढ़ाना और गांधी-संग्रहालयों में बैठकर भजन-कीर्तन में शामिल होना, चरखा चलाना और सूत कातना मूर्तिबद्ध गांधी को तृप्त करने के लिए काफी है.

मुश्किल तब होती है जब आप गांधी को अपना पुरखा मानते हैं और उनकी भाव-मूर्ति मन में उसी तरह खड़ा करने की कोशिश करते हैं जैसे कि अपने घर के पुरखों की. यह मूर्ति आपको खुद ही बनानी पड़ती है, आपको अपना गांधी खोजना पड़ता है. भाव-राशि फिसलने वाली चीज है, वह बुद्धि की तरह ठोस नहीं होती. वह अपने को शब्दों में नहीं सिहरावनों में व्यक्त करती है और सिहरावन शब्दों की तरह विवेचन की मांग नहीं करते. वे बस होते हैं, उन्हें सहना पड़ता है. उनकी आहट को टोहना और उनके अवश आ जाने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. यह बहुत मुश्किल है, बहुत ही मुश्किल क्योंकि तब कोई स्मारक, कोई किताब, कोई संग्रहालय और गांधी का विश्वस्त सहयोगी रहा कोई भी युगपुरुष संज्ञाधारी आपका रहबर नहीं होता.

शायद, पुरखे के रूप में गांधी की एकमात्र पहचान यही है कि वे स्वयं भी भीड़ के बीच निपट अकेले थे. संयोग नहीं कि अपनी पदयात्राओं में वे बाकियों से कई कदम आगे निकल जाते थे और जीवन भर इस एक बात से परेशान रहे कि जिन मानकों को सामने रखकर वे अपना जीवन जी रहे हैं वही मानक बाकियों के लिए इतने भारी क्यों पड़ रहे हैं कि ऐन आश्रम में नियम टूटते नजर आते हैं, और चलती राजनीति के बीच साथी यह कहकर नाराज हो जाते हैं कि ‘आंदोलन वापस क्यों लिया ? ’

पीछे मुड़कर देखने पर लगता है, भारत की उनकी खोज एक अकेले की खोज थी, स्वराज का उनका राग भी एक अकेले का राग था, जिसे सुना बहुतों ने मगर गाया किसी ने नहीं. इसका एक प्रमाण है टॉलस्टॉय की लिखी प्रसिद्ध चिट्ठी ‘ए लेटर टू ए हिंदू’. इस पत्र की भूमिका गांधी ने उसी वक्त लिखी जब हिंद-स्वराज लिखा गया.

हिंदुओं के नाम एक चिट्ठी

लियो टॉल्स्टॉय के विचारों का गहरा असर था गांधी पर. दक्षिण अफ्रीका में उनके नाम पर आश्रम बनाया गांधी ने. हिंदू-धर्म को देख-परख रहे टॉल्स्टॉय ने अपने घर यास्नाया पोलयाना से 14 दिसंबर, 1908 को एक चिट्ठी तारकनाथ दास को लिखी. विदेश के कई नामी विश्वविद्यालयों में शिक्षक रहे तारकनाथ का नाम शुरुआती भारतीय राष्ट्रवादियों में शुमार है. टॉल्स्टॉय की इस चिट्ठी को आज हम तारकनाथ के कारण कम, महात्मा गांधी के कारण ज्यादा जानते हैं.

गांधी की इच्छा थी कि हिंदुस्तान की सारी भाषाओं में यह पत्र अनुदित हो. सोचिए, ऐसा क्या था ‘ए लेटर टू ए हिंदू’ शीर्षक वाले इस पत्र में, जो गांधी ने चाहा कि हर हिंदुस्तानी उसे अपनी भाषा में जरूर पढ़े?

leo tolstoy

पत्र को लेकर गांधीजी के मन में जो अंधड़ उठे, उसकी एक बानगी खुद इस पत्र के बारे में लिखी उनकी टिप्पणी से मिलती है. पत्र पुस्तकाकार प्रकाशित है, इसलिए यह टिप्पणी अब उसकी भूमिका के रूप में मिल जाती है. नौ नवंबर, 1909 यानी हिंद स्वराज के प्रकाशन के साल लिखी इस टिप्पणी में गांधी ने टॉल्स्टॉय के कहे को एक यूरोपीय के द्वारा यूरोप की सभ्यता से इनकार के रूप में पढ़ा और लिखा, 'जब टॉल्स्टॉय जैसा व्यक्ति, जो पश्चिमी जगत के सर्वाधिक सुलझे हुए चिंतकों और महानतम लेखकों में एक है, ने खुद एक फौजी के रूप में जान लिया है कि हिंसा क्या है और क्या कर सकती है, तो अंग्रेजी शासन से छुटकारा पाने के लिए अधीर हुए जा रहे हमलोगों के लिए ठहर कर सोचने का वक्त है.'

गांधी का सवाल था, 'क्या हम एक बुराई की जगह दूसरी ज्यादा बड़ी बुराई (आधुनिक विज्ञान और भौतिक प्रगति का विचार) की राह हमवार नहीं करने जा रहे? विश्व के महानतम धर्मों की क्रीड़ास्थली भारत अगर आधुनिक सभ्यता की राह पर चलते हुए अपनी पवित्र धरती पर बंदूकों के कारखाने खड़े करता है, तो फिर भारत चाहे और कुछ जो भी बन जाए, भारतीय होने के अर्थ में एक राष्ट्र नहीं बन सकता.'

टॉल्स्टॉय का सवाल वाया गांधी

टॉल्स्टॉय इस पत्र में अपने जीवन की मूल प्रेरणा को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, 'संख्या में थोड़े से लोगों द्वारा एक बड़ी आबादी का दमन और इस दमन से पैदा होनेवाली आत्महीनता- हमेशा मेरे मन को मथती रही है. बड़ी विचित्र बात है कि ज्यादातर मेहनतकश लोगों की मेहनत और जीवन पर मुठ्ठी भर निठल्लों का कब्जा है और उनका(मेहनतकश लोगों का) जीवन हर जगह एक सी (दयनीय) दशा में है.'

पत्र में वे पुराने (धर्म की प्रधानता वाले) और नए (विज्ञान की प्रधानता वाले) युग की तुलना करते हैं और उन्हें लगता है कि चंद लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी की मेहनत और जीवन को कैद रखने का चलन अब भी जारी है, सिर्फ सिद्धांत बदल गए हैं. सत्ता प्रतिष्ठान इन सिद्धांतों को बड़ी बारीकी से बुन कर उनका प्रचार करते और इस सफाई के साथ उनका समर्थन करते हैं कि दमन के चपेटे में आए ज्यादातर लोगों को लगता है, ये सिद्धांत सही हैं.

टॉल्स्टॉय का तर्क है कि पहले खुद को ईश्वर का अंश समझनेवाले राजागण अपना हुक्म फटकारते थे. आज ईश्वर की जगह ले ली है वैज्ञानिक नियमों और इसकी दावेदारी वाले इतिहास ने. पहले कहा जाता था, ईश्वर से छुटकारा नहीं है और आज कहा जाता है कि इतिहास-धारा की प्रगति से छुटकारा नहीं है. टॉल्स्टॉय का इशारा यहां प्रगति के उस वैज्ञानिक दावे की तरफ है, जिसके तहत उपनिवेश बसाए गए और एशियाई-अफ्रीकी जनता को गुलाम बनाते वक्त कहा गया कि यह प्रक्रिया मानवता को वैज्ञानिक चेतना के साथ स्वतंत्रता के लोक में ले जाएगी.

चंद लोगों की एकाधिकारी पकड़ से बहुसंख्यक लोगों के जीवन को मुक्त करने के संकल्प में लोकतंत्र कारगर हो पाएगा, इस पर टॉल्स्टॉय को गहरा संदेह है. पत्र में वे लिखते हैं, 'जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, वह इस विचार को प्रतिष्ठित करती है कि बहुसंख्यक लोगों के भले के लिए थोड़े से लोगों के हितों की कुर्बानी जायज है. किसी के खिलाफ हिंसा का प्रयोग करते समय अगर धर्म के वर्चस्व वाले दौर में कहा जाता था कि यह फैसला जायज है, क्योंकि फैसला देनेवाला ईश्वर का अंश (राजा) है, उसी तरह आज (लोकतंत्र का) विज्ञान कहता है कि (किसी पर हिंसा के) इन फैसलों पर जनता की मर्जी की मुहर है और इसकी अभिव्यक्ति हुई है विधि द्वारा स्थापित एक सरकार में, ऐसी सरकार जो खुद जनता की अपेक्षाओं को साकार करने के चुने गए प्रतिनिधियों से बनी है.'

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टॉल्स्टॉय की चिट्ठी हिंदुओं के नाम थी और गांधी खुद को सनातनी हिंदू कहते थे. आप मान सकते हैं, हिंदू होने के नाते भी उन्होंने टॉल्स्टॉय की चिट्ठी को पढ़ा और समझा होगा. यह चिट्ठी विज्ञान, इतिहास, लोकतंत्र और धर्म सभी के एकतरफा दबदबे पर सवाल उठाती है. चिट्ठी ने गांधी के मन में सवाल पैदा किया. पितृपक्ष में गांधी को राष्ट्रपिता के रूप याद करने का मतलब है इस चिट्ठी के आईने में अपने वक्त को पढ़ना-परखना और इस सवाल से गुजरना कि ‘स्वराज’ और ‘सुराज’ की यात्रा हमने किस हद तक तय की है ?

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