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यूपी इन्वेस्टर्स समिट 2018: योगी तोड़ें ब्यूरोक्रेसी का भ्रमजाल, गुजरात की तर्ज पर बढ़ाएं निवेश

योगी आदित्यनाथ प्रशासन के उसी फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं, जिसमें ब्यूरोक्रेसी पर निर्भरता ज्यादा है

Ajay Singh

उत्तर प्रदेश की शोहरत कभी भी निवेशकों के स्वर्ग के तौर पर नहीं रही. मगर इन दिनों यूपी सुर्खियों में है. राजधानी लखनऊ में 21 फरवरी को शुरू हुई यूपी इन्वेस्टर्स समिट में पहले ही दिन 4 लाख 28 हजार करोड़ के एमओयू पर दस्तखत हुए. समिट के खात्मे तक ये आंकड़ा और भी ऊपर पहुंच गया. उत्तर प्रदेश में निवेश के लिए कतार लगाने वालों में देश के बड़े-बड़े उद्योगपति हैं. किसी भी पैमाने पर कस कर देखें, ये मामूली उपलब्धि नहीं है.

इन्वेस्टर्स समिट में निवेश के जो प्रस्ताव आए हैं, अगर इनमें से एक बड़ा हिस्सा हकीकत में बदलता है, तो उत्तर प्रदेश जल्द ही बीमारू राज्य का तमगा पीछे छोड़कर तेजी से तरक्की कर रहे राज्यों की जमात में शामिल हो जाएगा. आज यूपी विकास के हर पैमाने पर बीमारू है. यहां तक कि वो विकास की लिस्ट में बिहार से भी नीचे है. फिर चाहे आर्थिक तरक्की हो या मानवीय विकास सूचकांक. और हम इस वक्त यूपी के संदर्भ में तो खुशी के इंडेक्स की बात ही क्या करें!


जाहिर है इन्वेस्टर्स समिट खत्म होने के बाद लखनऊ में स्थित सेक्रेटेरियट में जश्न का माहौल होगा. खास तौर से जिस मंजिल पर मुख्यमंत्री का दफ्तर है, वहां तो और भी विजयी भाव होगा.

मगर इसमें एक मुश्किल है. जिन लोगों ने यूपी की राजनीति को करीब से देखा है, वो ये यकीन से कह सकते हैं कि हमने तो पिछली सरकारों के दौर में भी असल जीत से पहले जीत का जश्न मनते हुए देखा है.

ये पहली बार नहीं है कि देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले सूबे ने इन्वेस्टर्स समिट की हो. हम इससे पहले भी यूपी में निवेशकों के मेले लगते देख चुके हैं. बल्कि, जब गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2003 में हर दो साल में होने वाले 'वाइब्रैंट गुजरात समिट' की शुरुआत की, तो उससे भी पहले यूपी में इन्वेस्टर्स समिट हो चुकी थी. मायावती के राज में होने वाले ऐसे सम्मेलनों की कमान आम तौर पर सरकारी अफसरों के हाथ में हुआ करती थी.

याद कीजिए कि किस तरह पायलट से आईएएस अफसर बने शशांक शेखर सिंह, नवनीत सहगल जैसे मातहतों की मदद से निवेशकों के ऐसे मेले लगवाया करते थे. शशांक शेखर सिंह के गुजर जाने के बाद, नवनीत सहगल ने अखिलेश यादव के राज में ऐसे ही निवेशकों के सम्मेलन और भी शानो-शौकत और बेहतरी से किए.

मायावती के बारे में तो ये कहा जाता था कि उन्हें उत्तर प्रदेश की प्रगति से ज्यादा अपनी निजी फायदे की फिक्र है. अखिलेश यादव भी मायावती के सच्चे अनुयायी साबित हुए. उन्होंने मायावती से वही सीख ली, जिससे उनके निजी फायदे को तरजीह मिले.

दोनों ही मामलों में, विकास का मायाजाल बुनने के उस्ताद राज्य के ब्यूरोक्रेट्स ने सत्ताधारी नेताओं को विकास के भ्रम में रखा. नेता अपने गुरूर और उपलब्धियों की सपनीली दुनिया में मगन रहे. सवाल ये है कि क्या योगी आदित्यनाथ अपने पूर्ववर्तियों से अलग साबित होंगे? फिलहाल तो योगी आदित्यनाथ राज्य में प्रशासन की पेचीदगियों से ही जूझ रहे हैं. ऐसे में विकास और निवेश को लेकर योगी क्या करेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता.

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मगर, ऐसे तमाम संकेत मिल रहे हैं, जो ये बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ भी पुराने ही ढर्रे पर चल रहे हैं. यूपी के ब्यूरोक्रेट और पुलिस मिलकर योगी आदित्यनाथ को इस भ्रम में रखे हुए हैं कि राज्य विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ रहा है. राज्य के हाथ में बहुत ताकत है. लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है.

योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश की सड़कों को गड्ढा मुक्त बनाने का वादा किया था. मगर राज्य की सड़कों की हालत बेहद खराब है. अब तो योगी इस बात का जिक्र तक नहीं करते. राज्य के ग्रामीण इलाकों में बिजली की सप्लाई पहले से खराब हो गई है. बरसों से राजनीति के अपराधीकरण की वजह से भ्रष्ट हो चुकी राज्य की ब्यूरोक्रेसी अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं दिखती. राज्य के जानकार इस बात की गवाही दे सकते हैं कि यूपी में बीजेपी की सरकार आने के बाद रिश्वतखोरी थमी नहीं. बल्कि, अब तो घूसखोरी के नए और बढ़े हुए रेट लागू हो गए हैं.

वहीं दूसरी तरफ, यूपी की पुलिस अपराधियों के साथ विवादित मुठभेड़ों की सुर्खियां बनाकर सुरक्षा का झूठा एहसास करा रही है. मुठभेड़ के ज्यादातर मामलों में पुलिस की तरफ से वही पुरानी कहानी दोहराई जा रही है. छोटे-मोटे अपराधियों से मुठभेड़ के किस्सों में बताया जा रहा है कि पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाकर उन्हें ढेर कर दिया. वहीं पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े अपराधी गैंग आज भी बेखौफ होकर सक्रिय हैं. उन पर यूपी की पुलिस हाथ नहीं डाल रही है.

ये तो सच का मजाक उड़ाना होगा कि छोटे-मोटे अपराधियों के फर्जी एनकाउंटर करके आम जनता में सुरक्षा का भरोसा पैदा किया जा सकता है. दिल्ली के करीब के नोएडा और गाजियाबाद में लूट और चेन छिनैती की दिनों-दिन आम होती घटनाएं इस बात की मिसाल हैं.

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साफ है कि योगी आदित्यनाथ प्रशासन के उसी फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं, जिसमें ब्यूरोक्रेसी पर निर्भरता ज्यादा है. अफसरशाही विकास और राज्य प्रशासन की ताकत का भ्रमजाल बुनती है. काम-काज का ये ठीक वैसा ही तरीका है, जैसा मायावती का था.

उम्मीद की एक किरण हम तब देख सकते हैं जब योगी आदित्यनाथ विकास के एजेंडे पर चलें. ठीक उसी तरह जैसा गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने किया था. वरना तो अपनी धार्मिक शिक्षा और गोरखनाथ पीठ के महंत होने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 'माया' के फेर में ही पड़े रहेंगे.

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