view all

क्या बेटियां कोई प्रोडक्ट हैं, जिनके इस्तेमाल से राजनीति चमकाई जाती है?

अब इन सरकारों से पूछना ज़रूरी है कि क्या हम बेटियों को जन्म सिर्फ इसलिए दें कि आप उनके नाम का इस्तेमाल अपने इमेज मेकओवर या ब्रांडिग के लिए कर सकें?

Swati Arjun

जैसे गांव की सड़क न बनने पर, बिजली न आने पर, रोजगार न मिलने पर पूरा का पूरा गांव चुनाव का बहिष्कार करता है, ठीक उसी तरह अब ये जरूरी हो गया है कि भारत के हर राज्य की महिलाएं, बिना किसी पक्षपात के अपनी-अपनी सरकारों और उनके सरकारी कार्यक्रमों और योजनाओं का तब तक बहिष्कार करें जब तक रेप या बलात्कार को खत्म करना उनके मैनिफेस्टो या प्राथमिकताओं में शामिल न किया गया हो.

हमारी सरकारें योजनाओं के कागजी मीनार पर सालों-साल टिकी रहती हैं, उनकी अधिकतर योजनाएं ऐसी होती हैं जिसमें बेटियों, औरतों, बच्चों, मज़दूरों और किसानों का ज़िक्र ज़रूर होता है- क्या हमने कभी ये सोचने की कोशिश की, कि ऐसा क्यों होता है. इसका जवाब है- इन वर्गों का कमोबेश दूसरे वर्गों से कमज़ोर या वंचित होना, जो इन्हें सॉफ्ट टारगेट तो बनाता ही है, इन्हें हमारी संवेदनाओं से भी सीधा जोड़ता है. इसलिए कोई बड़ी बात नहीं कि एक के बाद एक कई सरकारें, चाहे केंद्र की हों या राज्य की किसी न किसी योजनाओं में महिलाओं, बेटियों, बच्चों आदि के नाम का धड़ल्ले से इस्तेमाल करती है.


एक तरफ योजनाएं, दूसरी तरफ रेप

आज भी हमारे आस-पास रोज़ बालिका भ्रूण हत्या, बेटी पढ़ाओ-बेटी बढ़ाओ, बेटियों की शादी में दिए जाने वाले कई तरह की आर्थिक मदद, सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण, पंचायत से लेकर संसद में 33 प्रतिशत का आरक्षण, इंजीनियरिंग से लेकर फाइटर प्लेन चलाने तक के लिए सैकड़ों नई योजनाएं या तो बनाई जा रही हैं या पुरानी योजनाओं को बदला जा रहा है- पर क्या इससे हम अपनी बेटियों या बच्चियों को यौन शोषण, रेप, गैंगरेप, सालों साल चलने वाले रेप, घर के अंदर घटने वाला पारिवारिक रेप, दुश्मनी वाला रेप, कम्यूनल रेप, अमीर और गरीब के बीच वाला रेप, दबंग और कमज़ोर रेप, मालिक और नौकर के रेप से बचा पाएंगे या पा रहे हैं?

ये भी पढ़ें: उन्नाव रेप केस ग्राउंड रिपोर्ट: आरोपी बीजेपी MLA के समर्थक जांच के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन पर उतारू

आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है कि आज हमारे आस-पास हर बड़े या छोटे विवाद की आड़ में रेप को एक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है? पिछले 2-3 दिनों में जिस तरह से हमारे सामने उन्नाव और कठुआ की घटना सामने आई है, साथ ही मुंबई में एक फैशन डिजाइनर पिता के द्वारा अपनी दो नाबालिग बच्चियों का दो साल से बलात्कार का मामला भी तस्वीर का एक पहलू है. लेकिन इस वक्त हम कठुआ की पीड़िता और उन्नाव की लड़की की बात कर रहे हैं जिसके पिता को दबंगों ने पीट-पीटकर मार दिया.

उन्नाव और कठुआ में बेटियों के साथ बेदर्दी

पीड़िता की मौत इसी साल जनवरी महीने में तब हुई थी जब वो अपने पालतू पशुओं को चराते हुए गायब हो गई थी, वो जम्मू में फिरने वाले आदिवासी या यूं कहे कि बंजारों के बखरवाल समूह से थी, जिसके परिवार ने कठुआ में बसने का फैसला कर लिया था, जो वहां के बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के कर्ता-धर्ता या स्थानीय मंदिर के प्रमुख सांजी राम को पसंद नहीं था. उसने वहां की स्थानीय पुलिस, अपने भतीजे और दोस्त के साथ मिलकर बच्ची को एक हफ्ते तक अगवा कर मंदिर में रखा, उसे नशीला पदार्थ खिलाता रहा, उसके साथ बलात्कार करता और करवाता रहा और फिर बड़ी ही बेदर्दी से उसकी हत्या कर दी.

उन्नाव की घटना, इससे कहीं ज्यादा पुरानी है, सत्ताधारी दल का एमएलए जो 16 सालों से चुनाव जीतता आया है, जिसके डर से स्थानीय लोग कांपते हैं, वो अपने घर काम करने वाले मज़दूर की बेटी को दो सालों से प्रताड़ित करता है, उसे कमरे में बंद करता और बाद में उसका बलात्कार. लड़की जब महीनों बाद हिम्मत जुटाती है तो पहले उसका मुंह बंद करने के लिए उसे और उसके परिवार को डराया धमकाया जाता है, फिर उसके पिता को बेरहमी से मार-पीट कर मार दिया जाता है. इसमें स्थानीय प्रशासन, पुलिस और डॉक्टर सभी उसके हाथ कठपुतली की तरह इस्तेमाल होते रहते हैं.

लेकिन विडंबना देखिए कि इतने शोर-शराबे के बीच जब हम ये सब लिख रहे हैं और आप ये पढ़ रहे हैं तब से कुछ घंटे पहले उन्नाव की पीड़ित महिला का आरोपी विधायक रात के अंधेरे में थाने आता है और तफरीह करके चला जाता है. न तो वो आत्मसमर्पण करता है, न ही पुलिस उसे गिरफ्तार करती है क्योंकि उसके खिलाफ कोई केस ही दर्ज नहीं है क्योंकि किसी भी सभ्य देश की तरह हमारे यहां भी कानून का शासन है, लेकिन कानून क्या सबके लिए बराबर है?

ये भी पढ़ें: उन्नाव रेप: मशहूर कवि निराला का शहर अब सेंगर की 'शर्मनाक करतूत' से पहचाना जाएगा

क्या ये दोनों मौतें कानून के उस लिज़लिज़े चेहरे को सामने नहीं ला रही है, जहां उन्नाव पीड़ित लड़की के पिता को इसलिए तड़पा-तड़पा कर पुलिस की मिलीभगत से मार दिया जाता है, क्योंकि वो अपनी बेटी के अपराधियों के खिलाफ़ केस दर्ज करवाने की ज़िद पर अड़ा रहता है. क्या जम्मू की पीड़िता की मौत को ये कहकर सांप्रदायिक बनाने की कोशिश नहीं की गई कि पुलिस जिस चार्जशीट को दाखिल करना चाहती है तो सही नहीं है क्योंकि जांचकर्ता मुसलमान हैं. हैरानी तब होती है जब ऐसा करने वालों में कानून के तथाकथित रखवाले यानी वकील भी शामिल हो जाते हैं और उनकी पहचान उनके काम से ज्यादा उनके धर्म से होने लगती है.

ये सिर्फ संयोग तो नहीं हो सकता है कि दोनों ही मामलों में आरोपियों का संबंध समाज के प्रभुत्व वर्ग, बहुसंख्यक आबादी और सत्ताधारी पार्टी से है. हम हमेशा हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की तौहीन करते हैं लेकिन कुछ ही दिन पहले जब वहां एक मासूम बच्ची ज़ैनब अंसारी के साथ ऐसा ही घिनौनी हरकत हुई तो समाज का हर वर्ग सड़क पर उतर आया, लोगों का दबाव इस कदर था कि प्रशासन ने अगले कुछ ही दिनों में आरोपी को गिरफ्तार कर लिया. हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं होता? क्या दिल्ली या मुंबई में ऐसा होता तो भी लोग इतने ही बंटे हुए होते?

इंसाफ देने के बजाय राजनीति

ऐसा क्यों होता है कि सरकारों की राजनीति को चमकाने में महिलाओं का तो खूब इस्तेमाल किया जाता है लेकिन महिला का उनका हक़ देने या इंसाफ देने की बात होती है तो उनके साथ ही राजनीति होने लगती है? इस देश की महिला नागरिक होने के नाते हम क्यों न इस सरकारी रवैया का अपनी तरह से विरोध करें, हम क्यों नहीं अपनी बच्चियों के लिए खुद के एक प्रोडक्ट के तौर पर सरकारी इस्तेमाल के खिलाफ़ एकजुट हों, हम क्यों अपनी बेटियों को ऐसी हैवानियत सहने के लिए दुनिया में लेकर आएं?

ये भी पढ़ें: योगी के 'ठोक देंगे' वाले जुमले का विकृत रूप है उन्नाव रेप केस

अब इन सरकारों से पूछना ज़रूरी है कि क्या हम बेटियों को जन्म सिर्फ इसलिए दें कि आप उनके नाम का इस्तेमाल अपने इमेज मेकओवर या ब्रांडिग के लिए कर सकें? हमारी बेटियां क्या आपके लिए सिर्फ़ एक प्रोडक्ट या योजना है? क्या उनकी शारीरिक, मानसिक, दैहिक, सामाजिक और निजी सुरक्षा के प्रति आपकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?

अगर हमारे देश की लचर कानून व्यवस्था, चरमराता सिस्टम, धार्मिक वैमनस्यता, वर्ग भेद, राजनीति, पद और पैसा, ज़मीन और सियासत हर चीज़ बच्चियों की ज़िंदगी से ज़्यादा कीमती और महत्वपूर्ण है तो फिर हम औरतों को ही ये तय करने का पूरा अधिकार होना चाहिए कि हम बेटियों की मां बनना चाहती हैं कि नहीं? अगर हमारी सरकारें, बेटियों की रक्षा नहीं कर सकतीं तो हम फिर हम अपनी बेटियों को दुनिया में लाकर यातना सहने और सिर्फ मोहरे के लिए इस्तेमाल होने के लिए क्यों छोड़ें?