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सुप्रीम कोर्ट विवाद: अपने सम्मान की रक्षा के लिए खुद सुधार करे ऊपरी अदालत

आज हमारे देश की न्यायपालिका बदलाव से पूरी तरह से अलग-थलग है वो सुधार के लिए राजी नहीं है

Ajay Singh

मशहूर ब्रिटिश लेखक-विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा था कि लोकतंत्र 'बहुमत का षडयंत्र' है. राजनीति करने वाले इस सिद्धांत को तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल करते हैं. वो अक्सर जनभावना का हवाला देकर अपनी राजनीति चमकाते हैं. इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं है. अब लोकतंत्र तो बहुमत से चलता है और बहुमत के लिए जनभावना का हवाला देना अपनी राजनीति चमकाना तो आम है.

भारत का सुप्रीम कोर्ट हमेशा से बहुमत की साजिश के खिलाफ मजबूती से खड़ा होता रहा है. लेकिन ऐसा लगता है कि इतिहास आज के दौर का आईना नहीं.


यही वजह है कि जब सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जजों ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ बगावत की, तो देश चौंक उठा. ये वही सुप्रीम कोर्ट है जो जनभावना और बहुमत की आड़ में होने वाली साजिशों को नाकाम करता रहा है. लेकिन चीफ जस्टिस के खिलाफ बगावत करके इन जजों ने सुप्रीम कोर्ट में लगी बीमारी को उजागर कर दिया है. जजों ने अब बात जनमत की अदालत में पहुंचा दी है.

चौंकाने वाला नहीं था बगावत

जो लोग सुप्रीम कोर्ट पर नजर रखते हैं, उन्हें जजों की बगावत में कुछ भी चौंकाने वाला नहीं लगा. उन्हें मालूम है कि काफी दिनों से अंदर ही अंदर कुछ चल रहा था. लेकिन ये बगावत नहीं इतिहास बदलने की साजिश मालूम होती है.

जानकार कहते हैं कि जजों के बीच तनातनी कुछ दिनों से चल रही थी. चिट्ठियां लिखी जा रही थीं. कटाक्ष किए जा रहे थे. आरोप लगाए जा रहे थे. अब सुप्रीम कोर्ट के तहखाने में बंद विवादों के कंकाल खुले में आ गए हैं. अहम आर्थिक, सियासी और सामाजिक मुद्दों वाले मुकदमों की सुनवाई के लिए बेंच तय करने पर सवाल उठाए जा रहे थे.

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ये सभी बातें इस बात का संकेत दे रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट की संस्था में सड़न पैदा हो गई थी (ये बात सुप्रीम कोर्ट के जज मार्कंडेय काटजू ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में कही थी). ये सड़न एक झटके में उस वक्त उजागर हो गई, जब 4 सीनियर जजों ने चीफ जस्टिस पर बेंच के गठन और केस के आवंटन में पक्षपात करने का आरोप लगाया.

दबाने से बढ़ेगी बीमारी 

जाहिर है, अब इस बात की कोशिश होगी कि विवाद को दबा दिया जाए. सोमवार को जब अदालत बैठे तो ये संदेश दिया जाए कि सब कुछ सामान्य है, सुप्रीम कोर्ट में कुछ भी उलट-पलट नहीं हुआ. लेकिन, ऐसा करना ठीक नहीं होगा. इससे बीमारी ठीक नहीं होगी, बल्कि और बढ़ेगी. बेहतर ये होगा कि हम न्यायिक व्यवस्था में लगी बीमारी की गहराई से पड़ताल करें. आज हमारे देश की न्यायपालिका बदलाव से पूरी तरह से अलग-थलग है. वो सुधार के लिए राजी नहीं है.

इस बात का अंदाजा लगाना हो तो उन मुद्दों पर एक नजर डालिए जो सुप्रीम कोर्ट के 4 सीनियर जजों ने उठाए हैं. इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं जिससे जनता का हित जुड़ा हो. बुनियादी तौर पर इन जजों की परेशानी सुप्रीम कोर्ट में काम के बंटवारे को लेकर है. इन जजों की शिकायत है कि सुर्खियां बटोरने वाले सारे अहम केस सीनियर जजों के बजाय जूनियर जजों की बेंच को सौंपे जा रहे हैं. इस बात को कहकर इन जजों ने जूनियर जजों की काबिलियत पर भी सवालिया निशान लगा दिया है.

न्यायिक सक्रियता कितनी जनहित में है

इन जजों की बेंच ने अपने आरोपों के जरिए ये दावा भी किया कि चीफ जस्टिस उन्हीं के बराबर के दर्जे के हैं, उनसे ऊपर नहीं. जिस तरह से जस्टिस लोया की मौत के केस को उछाला जा रहा है, उससे ये लगता है कि जजों की बगावत पूरी तरह से सियासी मामला है.

अब ये सिर्फ इत्तेफाक ही नहीं था कि जिस दिन इन चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की. उसी दिन सीनियर वकील दुष्यंत दवे ने इंडियन एक्सप्रेस में लेख के जरिए चीफ जस्टिस पर निशाना साधा. दवे ने आरोप लगाया कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहे हैं. अपने पद का दुरुपयोग कर रहे हैं.

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क्या 4 जजों ने मीडिया के सामने आने का फैसला अचानक लिया? या फिर ये कोई सोची-समझी रणनीति थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि जनमत के नाम पर कुछ जजों और वकीलों का खेमा उन जजों पर दबाव बनाना चाहता है, जो उनकी बात नहीं मानते, जो उनके इशारों पर नहीं चलते? कहीं न्यायिक सक्रियता के नाम पर कोई बड़ा खेल तो नहीं खेला जा रहा ?

सवाल ये है कि क्या न्यायिक सक्रियता जनहित में है? साफ है कि जनहित के नाम पर कुछ खास वकील अपने हित साधने में जुटे हैं. जिन मुद्दों को ये वकील और जज उठा रहे हैं उनसे आम आदमी की सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच कतई आसान होती नहीं दिखती. देश की सबसे बड़ी अदालत आज भी आम आदमी की पहुंच से दूर है.

देश की ऊंची अदालतों में बोली जाने वाली भाषा को ही लीजिए. ऐसी ऊंचे दर्जे की अंग्रेजी बोली जाती है कि आम आदमी के लिए समझना मुश्किल. फिर सवाल वकीलों की फीस का भी है. मुकदमों की पैरवी के लिए सुप्रीम कोर्ट के वकील इतने पैसे लेते हैं कि आम आदमी के लिए तो इंसाफ की उम्मीद लगाना भी मुमकिन नहीं. यही वजह है कि ईमानदार पूर्व आईएएस अफसर हरीश चंद्र गुप्ता ने तो कोयला घोटाले में जज से खुद को जेल भेजने की अपील की. हरीशचंद्र गुप्ता ने कहा कि वो वकीलों की फीस नहीं भर पाएंगे, इसलिए उन्हें जेल ही भेज दिया जाए.

इन बदलावों की है जरूरत

सिर्फ यही मामला नहीं है. जजों ने खुद को सूचना के अधिकार के दायरे से अलग रखा है. देश के नेता और अफसर तो अपनी संपत्ति घोषित करते हैं. मगर जज अपनी संपत्ति का ब्यौरा जनता को नहीं देते. इसी तरह अदालतों में सामाजिक न्याय भी नहीं होता. सुप्रीम कोर्ट ने खुद जातिगत आरक्षण को मंजूरी दी थी. मंडल आयोग की रिपोर्ट को मंजूर किया था. मगर जजों की नियुक्ति में आरक्षण नहीं है.

जजों की नियुक्ति में बिल्कुल भी पारदर्शिता नहीं है. ऐसा लगता है कि जजों की नियुक्ति में पूरी तरह से गिरोहबंदी चलती है. जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के विधेयक को रद्द किया, उससे साफ है कि जजों को अपनी बहाली में दखल कतई बर्दाश्त नहीं. जबकि संसद ने एकमत से इस बिल को मंजूरी दी थी. दिलचस्प बात ये है कि चीफ जस्टिस के खिलाफ बगावत करने वाले जस्टिस चेलमेश्वर ने बड़े कड़े शब्दों में एनजेएसी का समर्थन किया था.

जस्टिस चेलमेश्वर ने अपने फैसले में मशहूर ब्रिटिश राजनयिक लॉर्ड मैकॉले के भाषण का जिक्र किया था. लॉर्ड मैकॉले ने 1831 में ब्रिटिश संसद में अपने भाषण में कामगारों को वोटिंग का अधिकार देने की वकालत की थी. मैकॉले ने ब्रिटिश शाही परिवार और सत्ताधारी दलों को बचाने के लिए अपने अंदर सुधार करने को कहा था. जस्टिस चेलमेश्वर ने मैकॉले के हवाले से लिखा था, 'जिसे आप बचाकर रखना चाहते हैं, उसमें सुधार लाएं.'

जब सोमवार को सुप्रीम कोर्ट खुलेगा, तो लॉर्ड मैकॉले के भाषण को थोड़ा सा घुमाकर जजों से कहा जाएगा, 'उस चीज को सुधारिए, जिसे शायद आप बचाना चाहते हैं'.