‘सुनने तो सब आते हो पर वोट नहीं देते हो’ अटल बिहारी वाजपेयी अपने सुनने वालों के बीच आसानी से यह कह देते थे. वो जानते थे कि उनकी वाणी का सम्मोहन अद्भुत है. 60-70 के दशक में जब भारतीय जनसंघ एक सीमित राजनीतिक शक्ति थी, वाजपेयी की वाणी का ओज बरकरार था. उनके भाषण को सुनना ही एक प्रयोजन होता था. वोट भले ही न दें पर वाजपेयी को सुनना ही एक आनंद है.
रथयात्रा के पक्षधर नहीं थे अटल बिहारी
इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी. फिर सरकार टूटी और दो सदस्यता मुद्दे पर जनता पार्टी में टकराव हुआ. जनसंघ का धड़ा RSS के साथ खड़ा रहा. बात 1979-80 की है जब लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में संघ ने एक रैली का आयोजन किया जिसमें प्रमुख वक्ता वाजपेयी थे. यह एक सार्वजनिक मीटिंग थी जिसका संचालन संघ के गणवेशधारी कर रहे थे. पार्क लखनऊ विश्वविद्यालय के पास था. सिर्फ वाजपेयी को सुनने की इच्छा से मैं वहां गया.
मंच पर गणवेशधारी सरसंघचालक बाला साहब देवरस के साथ वाजपेयी थे. जब उनके बोलने का समय आया तो बहुत चुटीले अंदाज में उन्होंने कहा ‘मुझे पता नहीं था कि गणवेश में यहां इतनी उपस्थिति है नहीं तो मैं स्वंय गणवेश में आता.’ जाहिर है वाजपेयी के यह कहने पर संघ के कार्यकर्ता मोहित हो गए. सभी लोग उनकी भाषण शैली पर मोहित थे.
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उस दौर में वाजपेयी तो लोकप्रिय नेता थे. पर उनकी पार्टी यानी जनसंघ का दायरा सीमित था. बीजेपी बनने के बाद पार्टी 1984 में और सीमित हुई जब लोकसभा में मात्र दो सीटों पर सिमट कर रह गई. वाजपेयी की अध्यक्षता में पार्टी की विफलता ने उनके राजनीतिक कद को भी सीमित किया. पर 1989-90 आने तक, वाजपेयी की एक विलक्षण प्रतिभा सामने आई. मसलन अयोध्या मुद्दे पर वो सिद्धांतत: पार्टी के साथ थे पर रथयात्रा के पक्षधर नहीं थे. शायद उनका मानना था भारत जैसे देश में जाति और धार्मिक शक्तियों को राजनीतिक वैधानिकता देना उचित नहीं है. यही वजह है कि 6 दिसंबर, 1992 की बाबरी विध्वंस की बात पर वह अपनी पार्टी के विरोध में नजर आए.
2004 में अपनी हार के जब अटल बिहारी बोले 'नक्को बारी'
वाजपेयी का यही व्यक्तित्व उन्हें अनोखा करता है. बात 1990 की है जब आडवाणी रथयात्रा पर थे और वाजपेयी उनके समर्थन में लखनऊ हवाई अड्डे पर आए. मुलायम सिंह की सरकार थी. जिलाधिकारी अशोक प्रियदर्शी उन्हें गिरफ्तार करने पहुंचे. उन्हें देखते ही वाजपेयी ने अपने चिर परिचित अंदाज में कहा ‘हां भइया कहां ले चलोगे?’. यह सुनते ही लोग हंसने लगे. उनका व्यक्तित्व अजातशत्रु का रहा. यही वजह है कि चरम वामपंथ से चरम दक्षिणपंथ में उनका कोई भी विरोधी व्यक्तिगत द्वेष नहीं रखता है. उनका समावेशी व्यक्तित्व राजनीतिक विचारधारा से बड़ा रहा है.
एक पत्रकार की हैसियत से जब-जब वाजपेयी को देखा, वो एक अद्भुत अनुभव रहा. उत्तर प्रदेश में कांशीराम के साथ सरकार बनाने से लेकर 2004 में अपनी हार के बाद उनका मुंबई अधिवेशन की मीटिंग में ‘नक्को बारी’ कहना (अबकी बारी अटल बिहारी नारे के जवाब में) एक कालचक्र में घूम जाता है. वाजपेयी का व्यक्तित्व भारतीय राजनीति में अद्भुत है. उनके मित्र और सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी अक्सर यह कहते रहे हैं कि वाजपेयी का समावेशी व्यक्तित्व ही भारतीय मानस के अनुकूल है. विचारधारा से प्रतिबद्धता के साथ सार्वजनिक जीवन की वास्तविकता में मेल बिठाना ही वाजपेयी का व्यक्तित्व है. अपने बाद की पीढ़ी के राजनेताओं के लिए उनका सहज जीवन एक संदेश है.
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