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SC जजों की पीसीः खुद के बनाए कॉलेजियम सिस्टम का शिकार बना सुप्रीम कोर्ट?

जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस से शुरू हुए विवाद को देख रहे तमाम लोगों के सामने जाहिर हो चला है कि सुप्रीम कोर्ट के आगे अब यह गुंजाइश नहीं रही कि मामले में रुचि ले रहे अवाम के लिए अपने खिड़की-दरवाजे फिर से बंद कर ले

Nikhil Mehra

न्यायपालिका के संचालन में अपारदर्शिता बनी चली आ रही है, खासकर जजों की नियुक्ति और मामलों को सुप्रीम कोर्ट की किसी बेंच को सौंपने के सिलसिले में. अदालत ने ‘सेकेंड जजेज केस’ नाम के मशहूर मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने का नियम निर्धारित किया और इसकी व्याख्या की. न्यायपालिका के संचालन में मौजूद अपारदर्शिता की वजह यह नियम भी है.

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका की भूमिका सीमित कर दी. जाहिर है, ऐसे में भारत के चीफ जस्टिस की नियुक्ति में भी सरकार की भूमिका सीमित हो गई. ऐसा करने के पीछे सिद्धांत ये सोचा गया कि जब तक जजों की नियुक्ति जैसे मामले पर सबसे वरिष्ठ जजों का पूरा नियंत्रण नहीं रहता, ऐसे मामलों में राजनीति का दखल चलता रहेगा. लेकिन हर चीज की एक अंदरुनी राजनीति होती है और शुक्रवार को हमने देखा कि सुप्रीम कोर्ट की राजनीति भी जनहित का मामला है (यानि सिर्फ शोर भरी उत्सुकता का विषय नहीं) और राजनेताओं एवं नौकरशाहों के विवेकाधिकार की तरह उस पर भी जहां तक संभव हो अंकुश लगाने की जरुरत है.


1993 में शुरू हुआ था कॉलेजियम सिस्टम

सुप्रीम कोर्ट ने 1993 के अपने एक फैसले के जरिए कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की. यह एक असाधारण कदम था और कोर्ट के संचालन में मौजूद अपारदर्शिता के सहारे इसे जायज ठहराया जाता है. आज हमारे सामने एक ऐसी स्थिति मौजूद है जिसमें देश के सबसे वरिष्ठ चार जजों (बेशक इनमें चीफ जस्टिस शामिल नहीं) को लग रहा है कि इस अपारदर्शिता के कारण कोर्ट उचित तरीके से काम नहीं कर पा रही और चीफ जस्टिस अपनी प्रशासनिक भूमिका को सही तरीके से अंजाम नहीं दे पा रहे. इसलिए, शुक्रवार के घटनाक्रम से ही यह बात जान पड़ती है कि एनजेएसी मामले में आए फैसले में असहमति दर्ज करने वाले एकमात्र जज जस्टिस जे चेलमेश्वर थे.

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एनजेएसी मामले में आए फैसले ने जजों की नियुक्ति के मसले में कायम अपारदर्शिता की धारणा को और ज्यादा पुष्ट किया था. जस्टिस जे चेलमेश्वर और उनके साथी जजों को शिकायत है कि भारत के मौजूदा चीफ जस्टिस ने ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ (आम आदमी को यह शब्द पढ़ने-समझने की आदत डालनी होगी) के रूप में अपारदर्शिता के नियम का विस्तार करते हुए इसका इस्तेमाल उन चीजों की हिफाजत में किया है जिसे वे (चीफ जस्टिस) सिर्फ अपने पदभार से जुड़ा मानते हैं. जस्टिस जे चेलमेश्वर और उनके साथी जजों को लगता है कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे अदालत नाम की संस्था को ही खतरा है. तो, इस तरह से अपारदर्शिता के नियम ने अब अंदरुनी तौर पर काम करना शुरू कर दिया है और जान पड़ता है कि यह नियम अपने ही मकसद के उलट साबित हो रहा है.

प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाने से जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपायी नहीं की जा सकेगी

लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाना अपने आप में बहुत असाधारण कदम था और ऐसा जान पड़ता है कि इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के कारण अपारदर्शिता के नियम को ऐसा नुकसान पहुंचा है कि उसकी भरपायी नहीं की जा सकेगी. इन पंक्तियों के लेखक का नजरिया यही है.

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मीडिया के सामने सुप्रीम कोर्ट के अंदरुनी कामकाज का बखान करने के बाद जस्टिस जे चेलमेश्वर और उनके साथी जज कहें कि समस्या का समाधान चीफ जस्टिस के कामकाज के तरीके में सुधार कर के किया जा सकता है, फिर चीजें पहले की तरह अपने ढर्रे पर चली आएंगी- तो यह ढोंग कहलाएगा. जिन्न बोतल से निकल चुका है और अब उसे बोतल में वापस नहीं लाया जा सकता. और, इसे देख रहे तमाम लोगों के सामने जाहिर हो चला है कि सुप्रीम कोर्ट के आगे अब यह गुंजाइश नहीं रही कि मामले में रुचि ले रहे अवाम के लिए अपने खिड़की-दरवाजे फिर से बंद कर ले.

जिन्होंने कभी कोर्ट में मुकदमा दायर नहीं किया, वे सोच भी नहीं सकते कि सुनवाई के मामले का किसी बेंच को सौंपा जाना ऐसी कड़वाहट का मसला साबित हो सकता है. जिन लोगों को लगता है कि कोर्ट ने बीते वक्त में उनके साथ इंसाफ का बरताव नहीं किया, वे सोचेंगे कि हमारा केस किसी और बेंच के पास सुनवाई के लिए जाता तो क्या चीजें कुछ दूसरे ढंग से होतीं? और, यही वो बात है जिससे लग रहा है कि अदालत की साख को स्थायी नुकसान पहुंचा है और अब चीजें पहले की स्थिति में कभी नहीं लाई जा सकेंगी.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट सहित दिल्ली की विभिन्न अदालतों में वकालत करते हैं)