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समलैंगिकता को गैरकानूनी घोषित करवा सकता है सरकार का रवैया

कोर्ट का नजरिया बदला है, लेकिन सरकार की अस्पष्ट स्थिति से लगता है कि कोर्ट समलैंगिकता को अपराध घोषित कर देगा

Raghav Pandey

सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 की संवैधानिकता को चुनौती से रूबरू है. धारा 377 की संवैधानिकता के सवाल पर जाने से पहले, आइए इस प्रावधान के बारे में थोड़ा जान लें.

धारा 377 आईपीसी का एक प्रावधान है, जिसे 1860 में बनाया गया था. इसके बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि आईपीसी का पहला अंतिम मसौदा मोटे तौर पर 1837 में ही तैयार कर लिया गया था. यह कानून 1862 में अमल में आया था.


इस तरह, आईपीसी स्वाभाविक रूप से एक पुराना कानून है और इसमें ऐसे प्रावधान हैं, जो अपने समय के नैतिक मूल्यों पर आधारित हैं. आईपीसी उन कानूनों में से एक है, जो हमारा संविधान लागू होने से पहले के हैं.

धारा 377 औपनिवेशक युग का नैतिकतावादी कानून

कानून अामतौर पर नैतिकतावादी होते हैं और निश्चित रूप से उस युग की नैतिकता का आईना होते हैं, जब उन्हें तैयार किया जाता है. यही कारण है कि मौजूदा कानूनों में ऐसे प्रावधानों को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उनमें समय-समय पर लगातार संशोधन किया जाता है. धारा 377 एक ऐसा ही नैतिकतावादी प्रावधान है, जिसे भारत के औपनिवेशिक आकाओं द्वारा तैयार किया गया था, और यह उस युग की नैतिकता को दर्शाता है.

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यह दिलचस्प पहलू है कि आईपीसी को किसी लोकतांत्रिक विधायी प्रक्रिया से तैयार नहीं किया गया था. इसे गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा अधिनियमित किया गया था. यहां तक कि इसके पीछे ब्रिटिश संसद की इच्छा भी नहीं थी. मूलतः यह संहिता का मसौदा तैयार करने वालों की उन दिनों की इच्छा और नैतिकता को दर्शाता है. धारा 377 का प्रभाव यह है कि यह ‘प्रकृति की व्यवस्था’ के खिलाफ संभोग को आपराधिक घोषित करती है.

प्रकृति की व्यवस्था शब्दावली अमूर्त है और जो बदलते समय के साथ बदल सकती है. हालांकि, इस प्रावधान की मौजूदगी के कारण, समलैंगिकता को अपराध बनाया गया है. इस प्रावधान द्वारा ऐसी कम्युनिटी न केवल अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है, बल्कि इसके लिए ये लोग अपराधी भी ठहराए गए हैं.

निजता के अधिकार का तर्क

भारतीय सुप्रीम कोर्ट पहले भी एक बार सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन के मुकदमे में इस धारा पर सुनवाई कर चुका है, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा इस धारा को अल्ट्रा वायर्स (अधिकारातीत) घोषित कर दिए जाने के बाद इसकी वैधानिकता बहाल की गई थी.

तब अदालत का तर्क यह था कि यह विधायिका का काम है और न्यायपालिका को इसमें दखल नहीं देना चाहिए. तकनीकी रूप से यह अदालत का बचाव था कि हर चीज की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है, जो कि लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर उनकी रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय करता है. मूलतः सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में पड़ने से बचना चाहता था.

हालांकि, जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि प्राइवेसी (निजता) का अधिकार एक मौलिक अधिकार है. इस फैसले से, भले ही इसमें समलैंगिकता को अपराध नहीं मानने जैसा कुछ नहीं था, इससे न्यायालय का एक बदला हुआ नजरिया सामने आया.

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नवतेज सिंह जोहार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मौजूदा मामले में, अदालत सही दिशा में है और नाज फाउंडेशन के मुकदमे की अपनी पिछली गलती को सुधारना चाहता है.

धारा 377 के खिलाफ तर्क उतना ही बुनियादी है जितना कि यह कि सरकार को जनता के व्यक्तिगत जीवन में दखल देने का अधिकार नहीं है. उसे इसमें दखल नहीं देना चाहिए. कोई भी आधुनिक राज्य अधिशासी नहीं हो सकता है, खासकर अगर वह लोकतंत्रवादी है और अपने नागरिकों को मौलिक मानवाधिकारों की गारंटी देता है. इसलिए, समलैंगिकता को अपराध मानने के कानून का खात्मा बहस का मुद्दा भी नहीं होना चाहिए.

संवैधानिकता और सिविल राइट्स पर सुनवाई

मौजूदा जिस मामले में न्यायालय सुनवाई कर रहा है, उसके दो आयाम हैं. पहला है धारा 377 की संवैधानिकता और दूसरा है, समलैंगिक समुदाय के सिविल राइट्स (दीवानी अधिकार). पूर्व अटॉर्नी जनरल ने समलैंगिकता को लेकर कहा कि यह ऐसी चीज है जो जन्मजात है, और अगर ऐसा ना हो तो भी, इसको अपराध बना देना ठीक नहीं है.

ऐसा लगता है कि अदालत ने पहले प्रश्न पर लगभग अपना मन बना लिया है, लेकिन सरकार के पास अपनी स्पष्ट राय नहीं है, यह लगभग तय है कि धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध मानना खत्म कर दिया जाएगा. इस संबंध में जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा व्यक्त किए गए विचार पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण है. उनका लगातार कहना रहा है कि धारा 377 एक पूरे वर्ग को अपराधी बनाती है, ना कि किसी कार्य को.

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दूसरे प्रश्न के मामले में, अदालत शायद इसे स्थगित कर चाहे और पहले सवाल को पहले को तय करना चाहे. समलैंगिक समुदायों के दीवानी अधिकारों का दूसरा प्रश्न भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस तरह के रिश्ते में निजी कानून, संपत्ति कानून और विरासत के कानून के तहत इससे जुड़े अधिकार दिए बिना इस तरह के रिश्ते का कोई अर्थ नहीं है. आपराधिक कानून ने परंपरागत रूप से एक गलत काम को अपराध बना दिया और बाद में पूरे समुदाय को अपराधी बना दिया.

एक पूरे समुदाय का अपराधीकरण कर देना, एक प्राचीन अवधारणा है जिसे बहुत पहले त्याग दिया गया है. इसलिए, यह निश्चित रूप से उम्मीद की जा सकती है कि न्यायालय समलैंगिकता को वैध बनाएगा, लेकिन जहां तक दीवानी अधिकारों को मान्यता का सवाल है, इसके लिए शायद इंतजार करना होगा.