सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि वो समलैंगिकता को अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 पर अपने दिए गए पुराने फैसले पर फिर से विचार करेगी. इस धारा को 1860 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में लागू किया गया था, जिसके तहत जानवरों के सात सेक्स संबंधों और समलैंगिक सेक्स संबंधों को अपराध करार दे दिया गया था.
पिछले कुछ दशकों से LGBTQ आंदोलन के मजबूत होने के बाद इस धारा को खत्म करने की मांग तेज होने लगी. इस धारा को खत्म करने की पैरवी करने वाले एक्टिविस्टों ने इसे कानूनी रूप से चुनौती दी.
आइए जानते हैं धारा 377 से जुड़े केस में कब क्या हुआ
- जुलाई 2009, में दिल्ली हाई कोर्ट ने इसे संविधान की धारा 14,15 और 21 का उल्लंघन मानते हुए, आईपीसी की धारा 377 को गैर-कानूनी कहा. दिल्ली हाई कोर्ट ने नाज फाउंडेशन द्वारा दायर की गई जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया था.
- दिसंबर, 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को बदल दिया और 377 के खिलाफ दिए गए दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को ‘कानूनी तौर से लागू’ नहीं हो पाने वाला फैसला करार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि अगर सरकार चाहे तो इस धारा को खत्म या बदलने के लिए संसद में कोई कानून बना सकती है.
- 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर नाज फाउंडेशन द्वारा दायर किए गए रिव्यू पिटीशन को भी खारिज कर दिया.
- एनसीआरबी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धारा 377 के तहत हुए अपराधों के आंकड़ों को पहली बार एकत्र करना शुरू किया.
- 2014 में आई मोदी सरकार ने कहा कि वो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद की धारा 377 पर कोई निर्णय लेगी. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में कहा कि चूंकि अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है इसलिए सरकार कोर्ट का फैसला आने के बाद ही इस पर कोई फैसला लेगी.
- 2016 में एस जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, सेफ रितु डालमिया, होटल बिजनेसमैन अमन नाथ और बिजनेस एक्ज्यूकेटिव आयशा कपूर ने धारा 377 के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. यह पिटीशन दायर करने वाले सभी लोग जाने-माने LGBTQ अधिकारों के लिए लड़ने वाले और खुद 377 के तहत प्रभावित लोगों द्वारा दाखिल किया गया था. याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में कहा है कि यह संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों के विभिन्न प्रावधानों के खिलाफ है.
- अगस्त, 2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘निजता के अधिकार’ पर दिए गए फैसले में सेक्स-संबंधी झुकावों को मौलिक अधिकार माना और यह भी चिह्नित किया कि ‘किसी भी व्यक्ति के सेक्स संबंधी झुकाव उसके राइट टू प्राइवेसी का मूलभूत अंग’ है. इस फैसले में कहा गया कि ‘राइट टू प्राइवेसी और सेक्सुअल झुकाव की रक्षा संविधान द्वारा मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने वाले की धारा 14, 15 और 21 के मूल में हैं.’
(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है. आज धारा 377 का फैसला आने के मौके पर इसे दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं.)
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