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'समलैंगिकता 'लैंगिक विविधता' है, मानसिक बीमारी नहीं', ये समझना ज्यादा जरूरी

आज कोर्ट का फैसला चाहे जो हो, हमारा समाज समलैंगिकों को अभी तक स्वीकार नहीं कर पाया है और उसे ठीक करने के लिए अभी बहुत काम करना होगा

Updated On: Sep 06, 2018 09:11 AM IST

Namrata Shukla

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'समलैंगिकता 'लैंगिक विविधता' है, मानसिक बीमारी नहीं', ये समझना ज्यादा जरूरी

ऐसे वक्त में जब सुप्रीम कोर्ट का समलैंगिकता के कानूनी-गैरकानूनी होने के संबंध में फैसला आना है, ऐसे में एलजीबीटी समुदाय के लिए एक अच्छी खबर है. इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी ने ऐलान किया है कि समलैंगिकता, ‘लैंगिक विविधता’ का एक रूप है, कोई ‘मानसिक बीमारी’ नहीं. ये बात सोसायटी की ओर से उनके फेसबुक पेज पर एक वीडियो के ज़रिये कही गई.

ये बात ऐसे मौके पर कही गई है, जब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ इस संबंध में एक रिव्यू पिटीशन की सुनवाई कर रही है. इस पिटीशन में सुरेश कुमार कोशल बनाम नाज़ फाउंडेशन केस में दिए गए फैसले को चुनौती दी गई है. इस फैसले में कहा गया था कि अप्राकृतिक यौन संबंध (यानी लैंगिक-यौनिक संबंधों के अलावा स्थापित किए गए यौन संबंध) ग़ैरकानूनी हैं. इस फैसले से समलैंगिक संबंध बनाना अपराध की श्रेणी में गिना जाने लगा था. हालांकि गौर करें तो ये फैसला हर तरह के अप्राकृतिक यौन संबंध को गैरकानूनी बताता है, फिर चाहे वो स्त्री-पुरुष के बीच संबंध ही क्यों न हो.

अब आज जब फैसला आना है, तो इस मौके पर आया इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी का ये ऐलान कहता है कि समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नहीं है, बल्कि उतना ही प्राकृतिक है, जितना स्त्री-पुरुष के बीच संबंध. भारत में ऐसा पहली बार हुआ है कि मनोरोगों से संबंधित किसी संस्था ने ये बात कही है. हालांकि बहुत से समलैंगिकों को जब अपनी स्थिति के बारे में पता चलता है , तो बड़े तनाव से उन्हें गुज़रना पड़ता है. उनकी पहचान को समाज की ओर से सीधे तौर पर इंकार कर देना, परिवार की ओर से भी उनके ऊपर खूब दबाव होना और यौन संबंध स्थापित करना अपराध की श्रेणी में गिना जाना, इन सब की वजह से उनका डिप्रेशन या अवसाद में जाना बहुत आम सी बात है.

समलैंगिकों के डिप्रेशन के इलाज के लिए होने चाहिए अलग मनोचिकित्सक

समलैंगिकों के डिप्रेशन का इलाज करने के लिए खास योग्यता वाले मनोचिकित्सक होने चाहिए, जो जानते हों कि उनका डिप्रेशन, आम डिप्रेशन से कैसे अलग होता है और उसका इलाज कैसे हो. ये अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है. शुक्र है कि हिंदुस्तान में ऐसे कुछ विशेषज्ञ हैं और उनसे बात करना, उन तक पहुंचना कोई मुश्किल नहीं.

परिवार आम तौर पर समलैंगिक लोगों की थेरेपी ये सोचकर कराते हैं कि ये कोई मानसिक विकार है और काउंसलिंग करने से या बातचीत कर किसी समलैंगिक व्यक्ति को ‘ठीक’ किया जा सकता है. पहले तो कई तकलीफदेह तरीके भी ‘इलाज’ के लिए इस्तेमाल किए जाते थे, जैसे, शॉक थेरेपी, हॉरमोन थेरेपी, एवर्जन थेरेपी और कन्वर्जन थेरेपी का खूब इस्तेमाल होता था. मई 2016 में हमसफर ट्रस्ट ने एक अभियान शुरू किया- ‘क्वैक्स अगेंस्ट क्वीयर्स’, जिसके ज़रिए समलैंगिकों को ठीक करने के नाम पर भारतीय डॉक्टरों की ओर से उनको दी जाने वाली यातनाओं का खुलासा किया गया. ये भी बताया गया कि इलाज के इन तरीकों से कितना नुकसान होता है, साथ ही ये भी कि दरअसल समलैंगिकता कोई बीमारी है ही नहीं, जिसका इलाज किया जाए.

इससे पहले 2015 में नाज़ फाउंडेशन ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया से दरख्वास्त की थी कि इस तरह के नकली डॉक्टरों के इलाज का खात्मा किया जाए. ऐसे मे आईपीएस यानी इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी की ओर से आया ऐलान कानून में बदलाव की उस कोशिश को धार दे सकता है, जिसकी कोशिश बहुत पहले से कुछ संस्थाओं द्वारा की जा रही है.

अब समलैंगिकों को मानसिक इलाज तो नहीं करवाना पड़ेगा

तो आखिर भारत के मनोचिकित्सकों की सोच में इस ऐलान से क्या बदलाव आ सकता है? मुंबई के एक मनोचिकित्सक डॉ कुणाल परमार कहते हैं, 'इस ऐलान के बाद कोई भी मनोचिकित्सक समलैंगिकता को एक मानसिक बीमारी के तौर पर नहीं लेगा. हमें आईपीएस के ऐलान के साथ चलना होगा और समलैंगिकता को किसी शख्स की ‘प्राकृतिक प्राथमिकता’ मानकर चलना होगा. कई लोग अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर बड़े भ्रम में रहते हैं और हमारे पास काउंसलिंग के लिए आते हैं. हम उनके माता-पिता से भी बात करते हैं, जिससे हम उन्हें समझा सकें कि ये कोई रोग नहीं है. आईपीएस का ये ऐलान तुरंत किसी कानून में कोई बदलाव नहीं करेगा क्योंकि इस बारे में तो पक्ष-विपक्ष की बात सुनकर अदालत ही कोई फैसला करेगी. लेकिन अब कम से कम समलैंगिकों को मानसिक बीमारियों का इलाज तो नहीं कराना पड़ेगा.'

बंगलौर में समलैंगिक महिलाओं से जुड़ी संस्था चलाने वाली सायंतिका मजूमदार का कहना है, 'मेरी कई लेस्बियन दोस्तों ने जब अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में अपने परिवार को बताया तो उन्हें करीब करीब एक सी बात सुननी पड़ी- ‘ तुम्हारे साथ कुछ गड़बड़ है, चलो, हम तुम्हें किसी मनोचिकित्सक के पास ले चलते हैं.’ कुछ लोग सोचते हैं ये एक बुरा फेज़ है ज़िदगी का, जो वक्त के साथ चला भी जाएगा. शुक्र है कि आईपीएस के इस ऐलान के बाद से डॉक्टर अब इसे सहजता से लेंगे और परिवारों को भी समझा पाएंगे कि ये कोई बीमारी नहीं है, और इलाज की नहीं उसके साथ खड़े रहने की ज़रूरत है.'

लेकिन क्या आईपीएस की इस घोषणा से धारा 377 को बदले की कोशिशों को कुछ तेज़ी मिलेगी? कुछ लोगों को इस ऐलान से बड़ी उम्मीदें हैं. वकील गोथमन रंगनाथन का कहना है, 'ये ऐलान महत्वपूर्ण है. कल कुछ वकीलों से हमने इस बारे में बात की, तो उनका कहना था कि एक बार समाज आगे बढ़ जाए तो हमें उसे पीछे नहीं लाना चाहिए. 2009 के फैसले में हम दो कदम आगे बढ़े और अब इस ऐलान से और आगे बढ़ेंगे. कानून अब हमें वापस उन्हीं अंधेरों की ओर नहीं ले जा सकता. अब स्कूलों, परिवारों और डॉक्टरों की ओर से सपोर्ट मिला तो समलैंगिकता को समाज की स्वीकृति भी मिल जाएगी.'

रंगनाथन का कहना है, 'इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी की ओर से आई ये घोषणा बड़े सही वक्त पर आई है. ये देखते हुए कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के सामने समलैंगिकता को अपराध माने जाने वाले कानून को चुनौती के मामले में आज सुनवाई है, ये ऐलान बड़े सही समय पर आया है. बहरहाल दिल्ली हाइकोर्ट के 2009 के फैसले से समलैंगिकता को अपराध नहीं माना जाना और फिर 2013 में सुप्रीम कोर्ट का उसे फिर ‘अपराध’ का जामा पहना देना, इन दोनों फैसलों से एक काम तो हुआ है. लोगों की मानसिकता पर थोड़ा-बहुत असर तो पड़ा ही है.'

कानून से नहीं शिक्षा से पडे़गा फर्क

माना जा सकता है कि आईपीएस का ये ऐलान कानून पर असर तो डालेगा ही, डॉक्टरों का रवैया भी समलैंगिकों की तरफ बदलेगा. लेकिन क्या इतना काफी है? सबको ऐसा नहीं लगता. इस सवाल पर कि क्या इस ऐलान का या फिर कानून में बदलाव का समलैंगिकों की ज़िंदगी पर असर पड़ेगा, समलैंगिकों के समर्थन में आंदोलन करने वाले शिलोक मुकाती का कहना है, 'मेरे लिए ये ज़रूरी नहीं कि कोई शख्स अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर प्रमाण दे. होमोसेक्सुअल होना बहुत आम है. जहां तक साइकियाट्रिक संस्थाओं की बात है, अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन दोनों ही संस्थाओं ने समलैंगिकता को सामान्य माना है और साफ कहा है कि ये मानसिक बीमारी नहीं है. तो कोई ऐलान अकेला समाज को नहीं बदल सकता. जेंडर और सेक्सुअलिटी को लेकर सिर्फ शिक्षा ही लोगों के दिमाग बदल सकती है. कानून तो अपराध रोकने के लिए खूब बनाए गए हैं. लेकिन क्या इससे अपराध रुक गए? कानून तो है लेकिन क्या दलितों पर अब भी अत्याचार नहीं हो रहे.'

शिलोक आगे कहती हैं, 'मुझे समझ नहीं आता कि लोगों को जबरन समलैंगिकता के बारे में समझाने की ज़रूरत क्या है. उन्हें स्वीकार करना तो उनके भीतर से आएगा और कोई ऐलान, कोई कानून वो काम नहीं कर सकता.'

शिलोक का कहना सही है. आज अगर कोर्ट का फैसला समलैंगिकों के पक्ष में आए भी, तो भी हमें ढिलाई नहीं बरतनी चाहिए. सायंतिका का कहना भी कमोबेश यही है कि कागज़ पर कानून बना देने भर से कुछ नहीं होगा. उनका कहना है, 'सामाजिक बदलाव बहुत ज़रूरी है. सिर्फ कोर्ट का एक फैसला या किसी संस्था का कोई ऐलान लोगों की मानसिकता नहीं बदल सकता क्योंकि किताबों में जो लिखा है, लोग उसके हिसाब से कहां चलते हैं. जो लोग जागरूक हैं वो तो आईपीएस के ऐलान को कुछ लोगों से शेयर ज़रूर कर लेंगे. लेकिन उन लोगों तक नहीं पहुंचा पाएंगे जिन्हें इस बारे में पता ही नहीं है. लेकिन कानूनी तौर पर इससे चीज़ें हमारे लिए आसान हो जाएंगी. जैसे धारा-377 अगर हटा दी जाती है, तो हम अपराधी होने से बच जाएंगे.'

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज कोर्ट का फैसला चाहे जो हो, हमारा समाज समलैंगिकों को अभी तक स्वीकार नहीं कर पाया है और उसे ठीक करने के लिए अभी बहुत काम करना होगा. लेकिन अगर फैसला समलैंगिकों के पक्ष में आता है, तो हम सब को मानसिक तौर पर स्वस्थ होने में मदद तो ज़रूर मिलेगी.

(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है. आज धारा 377 का फैसला आने के मौके पर इसे दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं.)

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