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बजट 2017: रेलवे को खेलना होगा डिस्काउंट का खेल

रोड इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश और एयरलाइन फ्यूल कॉस्ट में कमी को रेलवे को समझना होगा और इस हिसाब से अपनी स्ट्रैटेजी बनानी होगी.

Jai Mrug

इंडियन रेलवे 94 फीसदी ऑपरेटिंग रेशियो की उम्मीद कर रही है. जबकि रेलवे ने 92 फीसदी की ऑपरेटिंग रेशियो का टारगेट रखा था. वेतन में बढ़ोतरी और रेवेन्यू में गिरावट के बावजूद रेलवे को ऊंचे ऑपरेटिंग रेशियो की उम्मीद है. ऑपरेटिंग रेशियो के प्रबंधन से कहीं ज्यादा बड़ी चिंता की बात पैसेंजर और माल-ढुलाई भाड़े से मिलने वाले रेवेन्यू में हो रही गिरावट है.


कमाई में कमी

मौजूदा फिस्कल 2016-17 के पहले पांच महीनों में रेलवे की ग्रॉस अर्निंग टारगेट के मुकाबले 13 फीसदी कम थी. इससे पिछले फिस्कल की इसी अवधि के मुकाबले यह 5 फीसदी कम रही. माल ढुलाई के मोर्चे पर रेलवे ने अगस्त के अंत में अपने भाड़े 19 फीसदी बढ़ा दिए ताकि ट्रैफिक वॉल्यूम में हो रहे नुकसान की भरपाई की जा सके. हालांकि, क्या इससे माल ढुलाई रेवेन्यू को रिकवर करने में मदद मिली, यह बहस का एक अलग मुद्दा है.

फेल हुई सर्ज प्राइसिंग स्कीम

पैसेंजर रेवेन्यू की अगर बात की जाए तो सितंबर में रेलवे ने चुनिंदा ट्रेनों में सर्ज प्राइसिंग लागू की. रेलवे को इस स्कीम से करीब 1,000 करोड़ रुपये हासिल होने की उम्मीद थी.

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मौजूदा फाइनेंशियल ईयर में हालांकि, 1 से 10 अक्टूबर के दौरान रेलवे का रेवेन्यू 232 करोड़ रुपये गिर गया. इसमें सर्ज प्राइसिंग से मिलने वाला पैसेंजर रेवेन्यू भी शामिल था. एक फेयर रेगुलेटर को रखने की बात पर मौन सहमति बन गई, ताकि रेगुलर रूप से किराए निर्धारित होते रहें.

इसकी तारीफ जहां एक क्रांतिकारी कदम के तौर पर हो रही है, वहीं असली चुनौती यह है कि रेगुलेटर किस तरह से किरायों पर फैसले करेगा? क्या इसे मार्केट फोर्सेज की गहरी समझ होगी या यह सर्ज प्राइसिंग के ही रास्ते पर चलेगा जो कि रेलवे के लिए बेमतलब साबित हुई है? इस वक्त का सबसे बड़ा सवाल यही है.

सर्ज प्राइसिंग के बाद मुंबई राजधानी, अगस्त क्रांति राजधानी, सियालदह राजधानी और तिरुअनंतपुरम राजधानी में दिसंबर मध्य के दौरान बड़ी संख्या में खाली सीटें रहीं. जबकि अक्सर इन ट्रेनों में तत्काल कोटे में भी सीटों के लिए मारामारी रहती है.

ट्रांसपोर्टेशन बिजनेस की ट्रिक्स समझे रेलवे

रेलवे यह बात समझने में नाकाम रही है कि वह ट्रांसपोर्टेशन के धंधे में है. वह केवल एक सरकारी कंपनी नहीं चला रही है जिसके ऊपर केवल कमीशन चुकाने का जिम्मा है. रेलवे को इस नजरिये से विचार करना होगा.

ऐसे में जब रेलवे ने अपने किराये डायनेमिक तौर पर बढ़ाए, वहीं एयरलाइंस ने गोवा या कोच्चि जैसी जगहों के किराए 3,000 रुपए जितने सस्ते देने शुरू कर दिए. यह किराया राजधानी और शताब्दी से भी कम हैं.

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हालांकि, रेलवे वैल्यू-ऐडेड सर्विसेज और उदय, हमसफर, दीनदयाल जैसी ज्यादा बड़ी सर्विस पेशकशों के जरिए एक नया क्लास बना रही है, लेकिन इन सबके साथ मूल सवाल बेहतर कॉस्ट रिकवरी का जुड़ा हुआ है.

फेयर रेगुलेटर लाने से हल नहीं होगा मसला

सवाल यह है कि क्या यह कास्ट इस मार्केट में प्रतिस्पर्धी है या नहीं? नहीं तो आखिर ऐसा कैसे होता है कि एयरलाइंस और बसें रूट्स और वक्त के मोर्चे पर रेलवे को मात दे देती हैं.

दरअसल, फेयर रेगुलेटर का सवाल प्राथमिक नहीं है. साथ ही यह इस समस्या का हल भी नहीं है. मुंबई-दिल्ली और दिल्ली-सियालदाह जैसे लंबे सेक्टरों पर राजधानी को एयरलाइंस पछाड़ रही हैं. चेन्नई-बेंगलुरु जैसे सेक्टरों पर शताब्दी को प्राइवेट बस ऑपरेटर पीछे छोड़ रहे हैं.

ऐसे में फेयर रेगुलेटर क्या कर सकता है? ज्यादा से ज्यादा वह उसी पॉलिसी को लाएगा जो पहले ही नाकाम साबित हो चुकी है.

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किसी फेयर रेगुलेटर को लाने की बजाय जरूरत प्रोफेशनल तरीके से रेवेन्यू मैनेजमेंट की है. ज्यादातर एयरलाइंस में रेवेन्यू मैनेजमेंट जिस तरह से काम करता है उसी तर्ज पर रेलवे को भी काम करने की जरूरत है.

रेवेन्यू मैनेजमेंट में छिपा है सॉल्यूशन

रेवेन्यू मैनेजमेंट का एकमात्र मकसद ऑक्युपेंसी लेवल को बढ़ाना होना चाहिए. इसके लिए उसे जरूरत पड़ने पर किरायों को घटाने या बढ़ाने के फैसले करने चाहिए. इसके जरिए रेवेन्यू पैदा होना चाहिए.

किसी ट्रेन की ऑपरेटिंग कॉस्ट पर ऑक्युपेंसी बढ़ने या घटने से कोई फर्क नहीं पड़ता. हालांकि, अगर आप उसी ऑपरेटिंग कॉस्ट पर मार्जिनल रेवेन्यू को बढ़ा सकते हैं, तो आप ज्यादा कमाई हासिल कर सकते हैं. मौजूदा वक्त में इसी की सबसे ज्यादा जरूरत है.

डिस्काउंट का खेल से कमाई बढ़ाए रेलवे

डिस्काउंट प्राइसेज को काफी पहले शुरू कर देना चाहिए. इससे एयरलाइंस को मिली बढ़त खत्म की जा सकती है. रेलवे को अंतिम वक्त में 10 फीसदी डिस्काउंट देने का इंतजार नहीं करना चाहिए. यही चीज सर्ज प्राइसिंग के साथ भी है.

रोड इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश और एयरलाइन फ्यूल कॉस्ट में कमी को रेलवे को समझना होगा और इस हिसाब से अपनी स्ट्रैटेजी बनानी होगी. इसके लिए रेलवे को किरायों में डिस्काउंट देने की जरूरत होगी. रेगुलेटर लाने और इसका बोझ पैसेंजर्स पर डालने से बात नहीं बनेगी. सर्ज प्राइसिंग से ज्यादा खुद को नुकसान पहुंचाने वाली दूसरी कोई चीज नहीं है.

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तो, रेवेन्यू मैनेजरों के सीवी मंगाने का काम शुरू किया जाए. फेयर रेगुलेटर के विचार को रद्दी के टोकरे में डाल दिया जाए.

(लेखक एम76 एनालिटिक्स के सीईओ हैं, जो कि एक सायन, आईआईटी बॉम्बे कंपनी है)