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रोहिंग्या मुस्लिम: मुश्किल में फंसे समुदाय का कोई रखवाला नहीं

रोहिंग्या मुसलमानों का सबसे बड़ा दुख यही है- वे जहां के निवासी हैं वहां की सरकार ने नस्ली और धार्मिक आग्रहों के कारण उन्हें नागरिक होने से वंचित कर रखा है.

Chandan Srivastawa

विदेशी दौरे पर राजनेताओं का दिल जीतने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई सानी नहीं. मिसाल के लिए उनके म्यांमार दौरे को ही लें.

म्यांमार के राष्ट्रपति हतिन क्याव से भेंट के दौरान उन्होंने दोनों देशों के ऐतिहासिक रिश्ते की चर्चा के बीच अपने मेजबान को दो नायाब चीजें भेंट कीं. इनमें एक था तिब्बत के पठार से अंडमान सागर तक बहने वाली सालवीन नदी का एक नक्शा और दूसरा बोधिवृक्ष की मूर्ति!


जाहिर है, म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी के दिल में झटपट जगह बनाने और वहां के शीर्ष नेतृत्व को शताब्दियों से चले आ रहे रिश्ते की याद दिलाने के लिहाज से बोधिवृक्ष की तस्वीर से बेहतर भेंट और कुछ हो भी नहीं सकता था.

बाहर के देशों में म्यांमार की छवि बाकी बातों के साथ-साथ जिन वजहों से बनती है उनमें एक बौद्ध-धर्म भी है. यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 5 करोड़ 10 लाख की आबादी वाले म्यांमार में तकरीबन 90 फीसद लोग बौद्ध-धर्म (थेरवादी) को मानते हैं.

म्यांमार के बौद्ध-धर्म का विरोधाभास

विडंबना देखिए कि म्यांमार की घरेलू राजनीति और उसके अंतर्राष्ट्रीय असर से जुड़े एक बड़े सवाल के केंद्र में भी बौद्ध-धर्म ही है.

म्यांमार के राखाइन प्रांत के रोहिंग्या मुसलमानों और म्यांमार की राजसत्ता के कटुता भरे रिश्ते की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सवाल उठाया जाता है कि बौद्ध-धर्म के मूल में तो अहिंसा-करुणा और दया जैसे आदर्श हैं फिर म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी रोहिंग्या मुसलमानों को अपना शत्रु क्यों समझती है?आखिर, बौद्ध-धर्म को विशेष तरजीह देने वाली म्यांमार की राजसत्ता के आगे आखिर वह कौन-सी बाधा है जो उसने आज तक रोहिंग्या मुसलमानों को अपना नागरिक ना समझा और वे भयानक दमन-उत्पीड़न के बीच दुनिया में दर-दर ठोकर खाने को मजबूर हैं?

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कुछ विश्लेषक इसकी वजह बौद्ध-धर्म में ही देखते हैं. उनका मुख्य तर्क है कि बौद्ध-धर्म के थेरवादी रूप की बनावट ही कुछ ऐसी है कि इसमें सिवाए अपने धर्म-बंधुओं के किसी और के प्रति सहनशीलता हो ही नहीं सकती.

ऐसे विश्लेषक बौद्ध-धर्म की थेरवादी शाखा की तुलना इस्लाम के वहाबी संप्रदाय से करते हैं. वे याद दिलाते हैं कि वहाबी संप्रदाय अपने धर्म-विश्वासों में कट्टरता की हद तक शुद्धतावादी है. वह हमेशा ‘असली और सर्वाधिक प्राचीन इस्लाम’ की खोज में लगा रहता है.

शुद्धतावाद की अपने झोंक में 19वीं सदी की शुरुआत में वहाबियों की सेना ने एक तरफ इराक के कर्बला और नजफ में कब्जा करके पैगम्बर मोहम्मद साहब के खानदान के चिराग हुसैन इब्न अली (शिया संप्रदाय के नायक) की कब्र को नष्ट किया तो दूसरी तरफ इस्लाम की जन्मभूमि रहे मक्का और मदीना पर कब्जा करके इस्लामी इतिहास के कई पवित्र स्थलों को अपने उन्माद का निशाना बनाया.

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तब पैगम्बर मोहम्मद साहेब की बेटी फातिमा की कब्र वहाबी सेना ने नष्ट कर दी थी और उनका मंसूबा खुद मोहम्मद साहब की कब्र को भी खत्म करने का था. वहाबी यह सब अपने मूर्तिभंजक विश्वास की रक्षा में कर रहे थे, उन्हें लग रहा था कि कब्र चाहे मोहम्मद साहब या फिर हुसैन इब्न अली की ही क्यों ना हो- मूर्तिपूजा का ही एक रूप है.

बुद्धिस्ट और नेशनलिस्ट श्वैडगॉन पैगोडा में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए. (रॉयटर्स)

असली बौद्ध-धर्म की तलाश और अभ्यास पर जोर देने वाले थेरवादी संप्रदाय का शुद्धता पर आग्रह इस्लाम के वहाबी संप्रदाय सरीखा है. थेरवादी कहते हैं कि हम ही असली बौद्ध-धर्म के अनुयायी हैं क्योंकि इस धर्म के सबसे पुराने नियमों का पालन करते हैं.बौद्ध-धर्म की महायान शाखा महात्मा बुद्ध को देवता मानती है, उनकी चमत्कारिक शक्तियों में विश्वास करती है और पूजती है. महायान शाखा का विश्वास है कि निर्वाण (मोक्ष) अकेले हासिल करना हरेक व्यक्ति के वश की बात नहीं सो उसे इसके लिए मदद मिलनी चाहिए. यह मदद तभी हासिल होगी जब आप सबसे प्रेम करेंगे और सबके निर्वाण-प्राप्ति की कोशिश करेंगे.

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ऐसी कोशिश के मद्देनजर ही महायान में हजारों बोधिसत्वों की पूजा होती है जिसमें कुछ जैसे अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, अमिताभ और क्षितिगर्भ बहुत प्रसिद्ध हैं. जादू-टोना से लेकर तमाम स्थानीय परंपराओं के लिए महायान में स्वागत-भाव है तो इसलिए कि उसमें दुनिया की तमाम चीजों (जीवित-मृत, सजीव-निर्जीव) को एक-दूसरे से जुड़ा माना जाता है. मान्यता है कि एक के किए (अच्छे-बुरे) का दूसरे पर असर होना ही है.

महायान के उलट बौद्ध-धर्म की थेरवादी शाखा मानती है कि निर्वाण (मोक्ष) अकेले प्राप्त किया जा सकता है, बुद्ध कोई देवता नहीं और ना ही बोधिसत्वों की कोई देवमाला है जिसकी निर्वाण-प्राप्ति में जरुरत हो. अपनी मुक्ति का जिम्मेदार स्वयं अपने आपको मानने के कारण बौद्ध-धर्म की थेरवादी शाखा के अनुयायियों के लिए महायानियों की तरह सबकी पीड़ा और सबके सुख के लिए स्वयं के कर्म को जिम्मेदार मानने की जरुरत नहीं रह जाती.

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रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति विद्वेष भरे भाषण देने और म्यांमार की बौद्ध-आबादी को उकसाने के कारण पश्चिमी दुनिया की मीडिया के आकर्षण का केंद्र बने बौद्ध-भिक्षु असिन विराथु थेरवादी बौद्ध मान्यताओं के सटीक उदाहरण हैं.उन्हें हाल में समाचारों की एक वेबसाइट ने अपनी खबर में म्यांमार का ‘बिन लादेन’ कहा.

थेरवादी मान्यता और म्यांमार की सरकार

लंबे समय तक सीधे सैनिक शासन में रहा म्यांमार अभी लोकतांत्रिक देश बनने की राह पर धीमे कदमों से चलता दिख तो रहा है लेकिन उसके नेतृवर्ग पर बौद्ध-धर्म की थेरवादी मान्यता का असर साफ देखा जा सकता है. म्यांमार के नेतृवर्ग ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार की शायद ही कभी कद्र की हो.

बॉर्डर पार करने के बाद रोहिंग्या शरणार्थियों को मिली खाने की मदद. (रॉयटर्स)

धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के हालात पर केंद्रित यूएन की एक रिपोर्ट का आकलन है कि म्यांमार की कुल 5 करोड़ 10 लाख की आबादी में 90 फीसद लोग बौद्ध (थेरवादी) हैं. ईसाई (मुख्य रुप से बैपटिस्ट और रोमन कैथोलिक) धर्म को मानने वालों की संख्या 4 प्रतिशत है और मुस्लिम (मुख्य रूप से सुन्नी) आबादी भी 4 फीसदी ही है. इस आबादी में 10 लाख तादाद रोहिंग्या मुसलमानों की है जिसमें 8 लाख रोहिंग्या रखाइन प्रांत में रहते हैं और दुनिया के सबसे गरीब लोगों में शुमार हैं.

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म्यांमार के संविधान में यह तो कहा गया है कि हरेक नागरिक को अपना धर्म मानने और प्रचार करने की छूट होगी बशर्ते उससे विधि-व्यवस्था, नैतिकता, सेहत या फिर संविधान में वर्णित ऐसी ही अन्य बातों पर बुरा असर ना पड़ता हो लेकिन संविधान में बौद्ध-धर्म को विशेष मानते हुए कहा गया है- 'बौद्ध धर्म का विशेष दर्जा होगा क्योंकि उसे इस संघ (म्यांमार) के सबसे ज्यादा लोग मानते हैं.'

बौद्ध-धर्म को विशेष दर्जा देने ही के कारण म्यांमार की सरकार ने चार विशेष कानून बनाए हैं. इन्हें ‘रेस एंड रेलिजस प्रोटेक्शन लॉज’ कहा जाता है. ये नियम धार्मिक स्वतंत्रता की संविधान-प्रदत्त गारंटी के खिलाफ हैं.

इन नियमों के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति दूसरे धर्म के सदस्य से विवाह करना चाहे या धर्म बदलना चाहे तो उसे ऐसा करने से पहले रजिस्ट्रेशन करवाना होगा. मानवाधिकार के लिए काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने रजिस्ट्रेशन करवाने की इस बाध्यता को नस्ली शुद्धता बरकरार रखने की म्यांमार सरकार की कोशिश के रुप में देखा है.इसी कड़ी में एक नियम यह भी बनाया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों वाले कुछ विशेष इलाकों में लोगों को सरकार चाहे तो अनिवार्य तौर पर जनसंख्या-नियंत्रण के उपाय अपनाने के लिए बाध्य कर सकती है.

रोहिंग्या शरणार्थी बॉर्डर पार करने के बाद नाफ नदी पार करने के लिए नावों का इंतजार करते हुए.

रोहिंग्या का सबसे बड़ा संकट

थेरवादी बौद्ध-धर्म को तरजीह देने वाली म्यांमार सरकार ने अपने शुद्धतावादी संस्कार के अनुरूप नागरिकों की तीन श्रेणी बना रखी है. जैसे थेरवादी बौद्ध-धर्म मानता है कि सबसे प्राचीन सिद्धांत ही सबसे असली और इस कारण विश्वसनीय धर्म-सिद्धांत हैं वैसे ही म्यांमार में लागू नागरिकता के नियमों से यह विश्वास झलकता है कि सबसे पुराना निवासी ही म्यांमार का सबसे असली नागरिक और इस कारण विश्वसनीय है.

इस मान्यता का ही संकेत है कि म्यांमार में कुछ को सिटीजन कहा जाता है, कुछ को एसोसिएट सिटीजन तो बाकी को नेचुरलाइज्ड सिटीजन और इसके अनुरुप ही उन्हें क्रमशः गुलाबी, नीले और हरे रंग के नागरिकता संबंधी प्रमाणपत्र दिए जाते हैं.

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1982 के बर्मा सिटीजनशिप लॉ के मुताबिक म्यांमार का ‘सिटीजन’ वह नागरिक कहलाएगा जो काचिन, केयाह(करेन्नी), करेन, चिन, बरमन, मोन, रखाइन, शान और कमान(जेरबादी) मे से किसी एक का वंशज है. म्यांमार में इन नौ प्रजातियों को राष्ट्रीय प्रजाति का दर्जा दिया गया है. सिटीजन होने की एक स्थिति और भी है. अगर प्रमाण दे सकें कि आपके पूर्वज 1823 यानी अराकान इलाके पर ब्रिटिश आधिपत्य से पहले म्यांमार में बस चुके थे तो म्यांमार की सरकार आपको सिटीजन मान लेगी.

अगर कोई 1823 से पहले अपने पूर्वज के म्यांमार में बसने के प्रमाण नहीं दे सकता तो उसे एसोसिएट सिटीजन माना जायेगा बशर्ते मां या पिता की पीढ़ी में से कोई एक ही 1823 से पहले दूसरे देश में रहा हो या व्यक्ति ने 1948(म्यांमार के आजाद होने का साल) में नागरिक होने के लिए आवेदन दिया हो. म्यांमार में कोई व्यक्ति नेचुरलाइज्ड सिटीजन हो सकता है बशर्ते वह पुष्ट प्रमाण दे कि देश की आजादी के साल (1948) के पहले उसके पूर्वजों में से कोई एक म्यांमार का निवासी था. अगर किसी व्यक्ति के माता-पिता में से किसी एक के पास तीन तरह के नागरिकता के प्रमाणपत्र में से कोई एक हो तो भी म्यांमार में लागू नियमों के मुताबिक उसे नेचुरलाइज्ड सिटीजन माना जाएगा.

रोहिंग्या म्यांमार के पुराने निवासी हैं, ज्यादातर के पुरखे म्यांमार पर अंग्रेजी शासन के समय से पहले ही वहां के अराकान इलाके में पहुंचे लेकिन प्रजातिगत शुद्धता के छुपे के हुए ढोंग के कारण रोहिंग्या को म्यांमार सरकार अपना नागरिक नहीं मानती. रोहिंग्या मुसलमानों का सबसे बड़ा दुख यही है- वे जहां के निवासी हैं वहां की सरकार ने नस्ली और धार्मिक आग्रहों के कारण उन्हें नागरिक होने से वंचित कर रखा है. सो, सिवाए चंद अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के रोहिंग्या का मुहाफिज कोई नहीं!