शायद धर्म का उद्देश्य अस्तित्व संबंधी दुविधाओं को हल करने से बड़ा है. शायद धर्म जीवन जीने का एक तरीका है, जीवनशैली की तरफ ले जाने का रास्ता है. शायद धर्म पहचान है. इससे दैवीय लाभ उतना ही निश्चित है जितना कि यह अमूर्त है, जितना निजी है उतना ही सामान्य है, अगर यह विज्ञान के विपरीत है. ऐसा क्यों है कि जो लोग धार्मिक-राजनीतिक हिंसा से विस्थापित हुए हैं, वे भी किसी धर्म को मानने या किसी धर्म के प्रचार की इच्छा रखते हैं?
27 नवंबर को, बर्लिन में एक समारोह के दौरान ‘ईवजेलिजिश-फ्लिकरक्लिखे जेमिन्डे चर्च’ के पैस्टर मथायस लिन्क ने धर्म परिवर्तन कराकर एक मुस्लिम को ईसाई बनाया. जर्मनी में ईसाई बनने की घटनाओं से जुड़ी रिपोर्ट पढ़ने के बाद, सीरिया और इराक की वर्तमान खूनी हकीकतों से अलग, बर्मा से आकर भारत में शरण लेने वाले एक युवक की बात करते हैं. जिसका मन जीवन की विडंबनाओं के बारे में बात करने का होता है.
दिल्ली की जनकपुरी बस्ती में बर्मा से आया एक शरणार्थी क्यूंग द्वात रहता है. ईसाई चिन समुदाय से आने वाले इस युवक के पास दिल दहला देने वाली कहानियां हैं. बर्मा से आए 30 साल के इस लड़के ने बताया “मैं बर्मा में एक ईसाई के रूप में जन्मा और अपने देश में कभी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं किया. सभी शरणार्थी मुस्लिम नहीं हैं.
अगर एक धर्म अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए राज्य के पैसे का उपयोग करता है तो दूसरे धर्म का नामो-निशान मिट जाएगा.” यह युवक बर्मा के चिन इलाके में स्थित काले विश्वविद्यालय में बीएससी का छात्र था, जब एक दिन बौद्ध भिक्षुओं ने एक प्रदर्शन के दौरान उसके आस-पड़ोस में आग लगा दी थी.
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यूएनएचसीआर (शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त) के मुताबिक, भारत की राजधानी में करीब 5000 चिन शरणार्थी और शरण मांगने वाले हैं. क्यूंग द्वात यहां 2008 में आया था. उसका कहना है कि यहां रहने वाले चिन अलग-अलग जनजाति के हैं. इनमें जोमी, टेडिम, फलाम, चो, हक्खा, मारा और मिजो (मारा और मिजो जनजातियां पूर्वोत्तर भारत की जनजातियों से मिलती-जुलती हैं) जैसी जातियां हैं.
ये लोग पश्चिम दिल्ली के शहरी गावों जैसे हस्तसाल, विकास नगर, सीतापुरी और बिंदापुर में रहते हैं. ये लोग इमरजेंसी लाइट्स बनाने वाले कारखानों, मोबाइल रिपेयर करने वाली दुकानों में काम करते हैं. महिलाएं घरेलू सहायक के रूप में काम करती हैं. संगठित क्षेत्र की कंपनियां यूएनएचसीआर के ‘ब्लू कार्ड’ को मान्यता नहीं देती हैं, इसलिए ये लोग छह हजार रुपए महीने से भी कम पगार पर जीवन काटने को मजबूर हैं.
इस महीने की शुरुआत में, अंतरराष्ट्रीय धार्मिक आजादी पर अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने छिपी हुई दुर्दशा: बर्मा में ईसाई अल्पसंख्यक नाम से रिपोर्ट प्रकाशित की है. इसमें कहा गया है कि ईसाइयों ने धर्म परिवर्तन कानून का पुरजोर विरोध किया है, जो कि "जाति और धर्म की सुरक्षा" से जुड़े विधेयकों का हिस्सा है. इस बिल का मूल प्रस्ताव और खाका ‘मा बा था’ ने तैयार किया था.
राष्ट्रपति थिन सिन ने 2015 में इस पर दस्तख्त किए थे. भेदभाव करने वाले चारों कानून – मोनागैमी (एक पत्नी), विवाह, दो बच्चों के बीच अंतर और धर्म परिवर्तन को रेगुलेट करना- धार्मिक आजादी में अड़चन डालते हैं और महिला अधिकारों को कमजोर करते हैं. धर्म परिवर्तन कानून अपना धर्म चुनने के अधिकार को गलत तरीके से कम करता है, धार्मिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करता है और इसका इस्तेमाल धार्मिक गतिविधियों को अपराध मानने में हो सकता है. हालांकि नया कानून फिलहाल लागू नहीं किया गया है मगर फिर भी इसका अप्रत्यक्ष असर देखा जा सकता है.
दिल्ली की चिन बस्तियों में पूरा परिवार एक-एक कमरे में रहता है. कमरे का साइज पांच बाथटब समाने जितनी कोठरी से बड़ा नहीं होता है. गुलाबी और हरी दीवारों पर ईसा मसीह की तस्वीरें हैं. हवा और समय ने इन दीवारों को गहरे जख्म दे दिए हैं. ठीक नीचे, उनके लोग कंबल और चादर की दुकानें चलाते हैं. सड़कों के किनारे ये लोग कड़वे पत्तों के साथ पका हुआ मेंढ़क बिछा देते हैं और बर्मीज समोसा (इसे भारतीय समोसे की तरह ही भरा जाता है लेकिन इसका साइज चोकोर होता है) तलते हैं.
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यह समुदाय रात में बाजार जाता है ताकि सस्ती सब्जियां खरीद सके. इनमें से अधिकतर परिवार बर्मा में भी गरीबी रेखा से नीचे थे, जहां हिंसा के साथ सब्जी, मछली, मांस और चावल के दाम आसमान छू रहे हैं.
संगठन करता है मदद
ये लोग ‘जनजातीय ढांचा, कार्यालय व चर्च और पेस्टर समुदाय’ संगठन में अपनेपन की भावना की रक्षा करते हैं. जेसुइट रेफ्यूजी सोसाइटी (जेआरएस) एक अंतरराष्ट्रीय कैथोलिक संगठन है जो 50 देशों में शरणार्थियों को सहायता प्रदान करता है. दिल्ली में संगठन चिन समुदाय को रोजी-रोटी कमाने के लिए प्रशिक्षण देता है. इनमें टेलरिंग, कंप्यूटर और अंग्रेजी का ज्ञान जैसे हुनरमंद बनाने वाले कोर्सेज हैं. संगठन के मुताबिक, चिन समुदाय को एक रखने में चर्च सबसे बड़ा फैक्टर है और हर जनजाति चर्च के तहत सुसंगठित है.
चिन समुदाय में चर्च सर्विस में शामिल होने को पवित्र माना जाता है. वास्तव में चिन समुदाय का हर सदस्य चर्च की सर्विस में शामिल होता है. कुछ परिवार हर महीने अपनी आय का 10 फीसदी चर्च को देना ईसाइयों की अच्छी परंपरा मानते हैं. धार्मिक सेवा को पूरा करने के अलावा, कुछ पैस्टर किसी न किसी रूप में इन परिवारों की मदद करते हैं.
क्यूंग द्वात कहते हैं कि “हम, चिन समुदाय के लोगों में सामुदायिक भावना कूट-कूट कर भरी है. हमारे छोटे घरों में, हम एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं. कभी-कभी हमारे मकान मालिक इस खुलेपन और गर्मजोशी को दूसरे अर्थों में ले लेते हैं. उन्हें लगता है कि हमारी महिलाएं देह व्यापार करती हैं.
समुदाय को वोटर आई कार्ड के साथ बिजली और पानी के बिलों के लिए मकान मालिक पर निर्भर रहना पड़ता है. उन्हें रेजीडेंस परमिट लेने के लिए ये कागजात विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय (एफआरआरओ) को सौंपने पड़ते हैं. कुछ मामलों में, यूएनएचसीआर का कार्ड फोन कनेक्शन लेने में भी मददगार नहीं होता है.
नजदीकी अस्पताल दीनदयाल उपाध्याय है, जहां, उनका कहना है कि डॉक्टर उनकी बीमारी को कम करके आंकते हैं. ऐसे मामलों में जहां डॉक्टर को गंभीर होकर इलाज करना चाहिए, पैरासिटामोल दवा लिख दी जाती है. एक परिवार में, जहां उसकी मां गर्भाशय के अल्सर के चलते बिस्तर पर है, हड्डियों की दिक्कत के चलते बहन चल-फिर नहीं सकती, वहां 16 साल की लड़की विग बनाने वाली कंपनी में चार हजार रुपए महीने की पगार पर काम करती है.
कम साक्षरता एक बड़ी समस्या है
जेआरएस में असिस्टेंट डायरेक्टर प्रेम कुमार बताते हैं कि उनके सशक्तिकरण में भाषा बड़ी बाधा है; चिन जनजाति में कई बोलियां हैं. हालांकि वो सरकारी स्कूल में जाने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन चिन शरणार्थी चर्च की ओर से बनाए गए सामुदायिक स्कूल में जाते हैं. इन स्कूलों में सिलेबस स्थायी नहीं है. यहां अलग-अलग उम्र के छात्र बिना वर्गीकरण के एक साथ पढ़ते हैं. बच्चा जितना बड़ा है, उसके लिए हिंदी और अंग्रेजी का कामचलाऊ ज्ञान हासिल करना उतना ही मुश्किल है. 2013 में जेआरएस ने चिन शरणार्थियों के बीच ये पता लगाया कि बच्चों में साक्षरता का स्तर माता-पिता से भी कम है.
बर्मा से ही शुरू हो जाती हैं समस्याएं
यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट कहती है कि ‘चिन प्रांत में सरकारी विश्वविद्यालय नहीं है और घरेलू पंजीकरण कागजात को बदलने जैसी नौकरशाही संबंधी अड़चनों समेत आगे की पढ़ाई के लिए बर्मा में दूसरी जगह जाने में आने वाला खर्च चिन समुदाय के लिए सबसे बड़ी बाधा है. इस कारण, कई छात्र चिन प्रांत में ईसाई संस्थानों में ही पढ़ते हैं. ईसाई धार्मिक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की ओर से दी जाने वाली डिग्री या दूसरी योग्यता को सरकार मान्यता नहीं देती है.
इन वजहों से ईसाई संस्थानों से पढ़ कर निकले छात्र सरकारी क्षेत्र में नौकरी नहीं पा सकते हैं.’ रिपोर्ट आगे कहती है कि ‘काचिन, नागा और चिन ईसाइयों को सिविल सर्विस और दूसरे सरकारी क्षेत्रों में बौद्धों के मुकाबले प्रमोशन के लिए हर बार अनदेखा किया जाता है. उदाहरण के लिए, चिन प्रांत की राजधानी हाकाह में, राज्य स्तरीय प्रशासन में दो विभागों के प्रमुखों को छोड़कर सभी बर्मा के बौद्ध हैं.
सरकारी पदों पर होने वाला ईसाई, अगर बौद्धों की गतिविधियों को समर्थन देने से इनकार करते है तो उस पर पाबंदियां लगाई जाती हैं. कुछ मामलों में, अथॉरिटी ईसाई नौकरशाहों से बौद्धों की गतिविधियों के लिए चंदा भी लेती है, जैसे कि पैगोडा का निर्माण और बौद्ध नया साल (थिंगयान) मनाने के लिए, यह प्रथा सैन्य शासन के समय से अब तक जारी है.’
दिल्ली में ही रोहिंग्या भी हैं इनके पड़ोस में
जनकपुरी से कुछ दूरी पर विकास नगर है, जहां दूसरा समुदाय चिन समुदाय को कड़ी टक्कर दे रहा है. रोहिंग्या ईसाई (150 से अधिक नहीं) यहां 30 टेंटों में रह रहे हैं. ये रोहिंग्या मुसलमान से ईसाई बने हैं और बर्मा के राखिन प्रांत से इनका ताल्लुक है. रोहिंग्या मुसलमानों की दुर्दशा, उत्पीड़न और मानव तस्करी के बारे में सबको पता है. , बर्मा में कई लोग इन्हें बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी मानते हैं. हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी ने कहा था कि म्यांमार रोहिंग्या मुसलमानों को "जातीय तौर पर खत्म (एथनिक क्लीजनिंग)" कर रहा है. बांग्लादेश भागने वाले हजारों रोहिंग्या मुसलमानों के साथ गैंगरेप, यातना और हत्या की कहानी सबके सामने आई. दूसरी तरफ, रोहिंग्या ईसाई छितरे हुए हैं और डरे हुए हैं. दिल्ली में इस समुदाय के नेता सोहना मियां कहते हैं कि उनका जन्म 1980 में स्टेटलैस (किसी भी देश का नागरिक नहीं होना) हुआ. उनके मुताबिक दिल्ली में उनके समुदाय के 60 बच्चे हैं. उनमें से केवल छह या सात ही स्कूल जाते हैं. चिन समुदाय से उनकी भाषा अलग है, इसलिए उनके बच्चे चिन समुदाय के स्कूलों का लाभ नहीं उठा पाते.
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रोहिंग्या बच्चे कचरा बीनने का काम करते हैं. युवा मुख्य रूप से कचरे को अलग करने या फिर पेपर मिलों में काम करते हैं. इन टेंटों में, मुस्लिम नाम वाले लोग– अनवर, सलाम, इमान हुसैन– बाइबिल की पंक्तियों को तेजी से पढ़ सकते हैं. साल के इस वक्त, उन्हें बेकार के पेपर से क्रिसमस के सजावटी सामान बनाते देखा जा सकता है. उनका कहना है, “बाइबिल हमें बचाता है. यह बुरे वक्त में हमें साथ रखता है.”
ईश्वर पर यकीन करने वालों को भी इन लोगों को देख कर लगता है कि कुछ लोगों ने क्रिसमस का मजा किरकिरा कर दिया है और सांता का कोई अस्तित्व नहीं है.
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