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गुजरे दौर में भी महिला पत्रकारों के पास 'लंपटों' से निपटने का था फॉर्मूला

1970 और 1980 के दशक में पत्रकारिता आज की मीडिया इंडस्ट्री के जैसी नहीं थी. ऐसे मामलों के खिलाफ बोलने वाली महिलाओं के पास संस्थागत सहारा नहीं था

Pragya Singh

नंदिनी मेहता 1980 के दशक में दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स में पत्रकार थीं. उस दौरान किसी ने उन्हें अजीबो-गरीब तरीके से परेशान किया. हालांकि, परेशान करने वाले शख्स के बारे में उन्हें कभी पता नहीं चल सका. दरअसल, कोई शख्स हर रोज उनकी डेस्क पर इस्तेमाल किया हुआ कॉन्डम रख देता था.

उनके मुताबिक, 'हर सुबह यह मेरे अखबारों के बीच यह (कॉन्डम) छुपा हुआ रहता था, ताकि मैं अचानक से इसे देख सकूं.' यह मेहता के प्रिंट पत्रकारिता और पब्लिशिंग के 40 साल से भी ज्यादा के करियर में उनके साथ हुए कुछ दुर्भाग्यपूर्ण वाकयों में से एक था.


70 के दशक के उत्तरार्द्ध में नंदिनी मेहता के साथ एक और शर्मनाक हरकत हुई थी. उस वक्त एक सांसद (एक मशहूर नेता के बड़े भाई) ने मेहता को डिनर पार्टी में बुलाया. उन्होंने बताया, 'मैंने पाया कि इस 'पार्टी' में सिर्फ मुझे ही बुलाया गया था. वह मुझ पर झपट पड़ा. मैंने दरवाजा खोला और बाहर निकल गई. मैंने इस बारे में अपने परिवार वालों को भी नहीं बताया, क्योंकि अगर मैं उन्हें यह बताती तो वे मुझे नौकरी छोड़ने या देर तक काम नहीं करने को कहते.'

70 और 80 के दशक से काफी बदल चुकी है पत्रकारिता

1970 और 1980 के दशक में पत्रकारिता आज की मीडिया इंडस्ट्री के जैसी नहीं थी. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों की पहचान और इसे रोकने के लिए किसी तरह का दिशा-निर्देश नहीं था. लिहाजा, ऐसे मामलों के खिलाफ बोलने वाली महिलाओं के पास संस्थागत सहारा नहीं था. साथ ही, महिला पत्रकारों की संख्या काफी कम थी. चूंकि सोशल मीडिया नहीं था, इसलिए मी टू स्टाइल के खुलासे भी संभव नहीं थे. अखबारों के ऑफिस में सीसीटीवी कैमरे तक नहीं थे. इसलिए मेहता का मूर्ख अपराधी कॉन्डम रखने जैसी हरकतें कर भी पकड़ में नहीं आया.

इन बातों पर गौर करें तो मेहता द्वारा मी टू आंदोलन का 'पूरी तरह से समर्थन' किए जाने को लेकर हैरानी नहीं होनी चाहिए. मी टू के तहत पिछले हफ्ते ट्विटर और फेसबुक पर महिलाएं वैसे पुरुषों के बारे में खुलासा कर रही हैं, जिन्होंने महिलाओं के साथ बुरा, अश्लील और आपत्तिजनक व्यवहार किया.

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मेहता कहती हैं, 'युवा महिला के तौर पर हम खुलकर बोलने में काफी डरते थे, क्योंकि हमारे पास किसी तरह का सहारा नहीं था. हम सिर्फ पुरुषों को बर्खास्त करने की मांग कर इस तरह के मामलों से निपटते थे. इसलिए मुझे लगता है कि जो घटनाएं उस वक्त हुई थीं, उसे भी अब बाहर निकलकर आना चाहिए.' वह सिर्फ इतना चाहती हैं कि कार्य स्थल पर सहमति से बने संबंधों और जोर-जबरदस्ती व परेशान करने वाले मामलों के बीच साफ तौर पर अंतर किया जा सके. वह कहती हैं, 'अगर कार्य स्थल पर बॉस और जूनियर के बीच रोमांस का मामला नहीं है, तो बाकी मामलों में समस्या नहीं रहती. मौजूदा खुलासों में यह अंतर थोड़ा सा खत्म होता नजर आ रहा है.'

आज के दौर में शायद महानगरीय दफ्तरों के सीसीटीवी कैमरे वाले ऑफिस में कॉन्डम रखने जैसी घटनाओं को अंजाम देना मुश्किल होगा. हालांकि, जैसा कि खुलासों से पता चल रहा है, आपत्तिजनक मैसेज, अश्लील क्लिप, संकेतों में छिछोरी बातें करना या सेक्स के लिए सीधा प्रस्ताव जैसी चीजें काफी देखने को मिल रही हैं. इससे पता चलता है कि यह समस्या कितनी व्यापक है. कार्य स्थल पर हर घटना यौन उत्पीड़न का मामला हो या नहीं, लेकिन इसकी बढ़ती संख्या बताती है कि महिलाएं क्यों गुस्से में हैं. उनके सहकर्मियों, सहपाठियों और सीनियर द्वारा इन महिलाओं को उपभोग की वस्तु जैसा अहसास कराया जा रहा है. ऐसे में इस तरह की गतिविधियों का खुलासा कर महिलाओं की इस तरह की पहचान को खारिज किया जा रहा है.

वरिष्ठ महिला पत्रकारों की नजर में भी मी टू कैंपेन काफी उपयोगी

वरिष्ठ महिला पत्रकारों के नजरिए से देखा जाए तो मी टू कैंपेन काफी मददगार रहा है. इससे यह पता चलने में मदद मिली है कि कुछ जगहों पर पहले उत्पीड़न को रूटीन के तौर पर देखा जाता था. कभी दिग्गज संपादक रहे एम जे अकबर को लेकर खुलासों ने इस तरफ भी ध्यान आकर्षित किया है कि उत्पीड़न आदि का मामला काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि संपादक कौन है और किस तरह का माहौल वह बनाता/बनाती है.

दिल्ली में 1980 के दशक से करियर शुरू करने वाली वरिष्ठ पत्रकार अंजली पुरी कहती हैं, 'ये युवा पत्रकार विचारधारा, प्रोफेशनल सम्मान और मित्रता जैसे मुद्दों से विचलित नहीं होते हैं. ऐसा हमारे समय में नहीं था. पहले लोग यह नहीं देख पाते थे कि यौन उत्पीड़न और इस तरह के हमले विचारधारा, प्रतिष्ठा और दोस्ती के मुकाबले ज्यादा अहम हो जाते हैं. नई और पुरानी पीढ़ी के बीच यह एक बड़ा अंतर है.' उन्होंने एक वरिष्ठ (पुरुष) पत्रकार का जिक्र भी किया, जो यौन उत्पीड़न को लेकर काफी कुख्यात थे. हालांकि, अब वह गुजर चुके हैं.

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पुरी ने बताया कि इस शख्स की कई प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिलाओं से दोस्ती थी, लेकिन किसी ने भी ढंग से उनके बारे में खुलासा नहीं किया. उन्होंने कहा, 'इसकी बजाय इस शख्स की मौत पर जरूरत से ज्यादा तारीफ वाली श्रद्धांजलि दी गई.' फेसबुक पर किसी शख्स द्वारा इस वरिष्ठ पत्रकार की तारीफ किए जाने पर पुरी ने उस शख्स से कहा कि वह संबंधित शख्स के सिलसिले में इस तरह की अंधाधुंध तारीफ को 'वीभत्स' मानती हैं, जिसका कोई आधार नहीं है. पुरी ने कहा, 'वह आखिरकार दरिंदा और धौंस जमाने वाला शख्स था. तारीफ करने वाले शख्स ने इस बात से सहमति जताई कि यह भी दिवंगत हुए उस वरिष्ठ पत्रकार के व्यक्तित्व का एक पहलू था.' बाद में उन्होंने यह भी सुना कि उस पत्रकार की याद में आयोजित कार्यक्रम में उनकी मित्र और महिला पत्रकार ने उन्हें 'नारीवादी' करार दिया, जिस पर किसी ने विरोध भी जताया था.

पुराने दौर की महिला पत्राकारों के सामने अलग तरह की चुनौती थी

बहरहाल, 1970 के दशक में करियर शुरू करने वाली एक और वरिष्ठ पत्रकार का कहना था कि उनकी पीढ़ी की महिलाएं (पत्रकार) मुख्य तौर पर अलग तरह की लड़ाई में सक्रिय थीं. उनके मुताबिक, 'उस वक्त मुख्य चुनौती यह साबित करने की थी कि आप काम करने में पुरुषों के बराबर अच्छे हैं और आपको गंभीरता से लेने की जरूरत है.' उनका कहना था कि पुरानी पीढ़ी के कुछ पुरुष संपादकों को अपनी युवा महिला सहकर्मियों को प्रोत्साहित करने और उनकी आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए श्रेय दिया जाना चाहिए. इस महिला पत्रकार की राय के अनुसार, जिन महिलाओं ने मी टू के तहत मुंह खोला है, उन्होंने अपनी समकक्षों के बीच एकजुटता की भावना को मजबूत किया है और कइयों को अपने पुराने जख्मों और गुम हुई आवाजों की फिर से भरपाई का मौका मुहैया कराया है. उनका कहना था, 'पहले के दौर में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी, जब सार्वजनिक रूप से अपनी इस तरह की परेशानी को बयां करने के लिए माहौल फिलहाल की तुलना में काफी कम अनुकूल था.'

दृष्टिकोण, संस्कृति और माहौल में बदलाव हुआ है. महिलाएं स्वतंत्र, युवा और साहसी बन रही हैं और इस तरह के मामले में विरोध करने की हिम्मत मुहैया कराने वाला कानूनी ढांचा बनाया गया है. सोशल मीडिया भी है. अगर आप ट्विटर पर भी कुछ 'खुलासा' करते हैं तो दोषी को नाम लेकर उसे शर्मिंदा करने वाले कई रीट्वीट भी नजर आने लगेंगे. ट्विटर से पहले के दौर में महिलाओं के लिए सहकर्मियों को छोड़कर किसी पर भरोसा करना संभव नहीं था. इनमें से कुछ सहकर्मी वरिष्ठों के खिलाफ शिकायत करने पर भयंकर परिणाम भुगतने को लेकर चेतावनी भी देते थे. अब सोशल मीडिया ने पलटवार करने वाली बागियों की नई जमात तैयार कर दी है. बहराल, यह 'नॉट इन माई नेम' जैसे विरोध-प्रदर्शन से काफी अलग नहीं है, जहां गायों के नाम पर हो रही हत्या से नाराज लोगों का समूह एकजुट हुआ था.

राजनीतिक टीकाकार आरती आर जेरथ ने अखबार में पहली नौकरी 1980 में शुरू की थी. उस वक्त अखबारों में बड़े पदों पर मौजूद लोगों और युवा संवाददाताओं के बीच 'काफी दूरी' हुआ करती थी. उन्होंने जहां भी काम किया, वहां वरिष्ठों को पहले से नाम से बुलाने का सवाल ही नहीं था और रिश्तों में औपचारिकता व्याप्त थी. उन्होंने बताया, 'हम प्रेस क्लब में सीनियर के साथ ज्यादा मेलजोल नहीं करते थे.'

जेरथ मी टू का समर्थन करती हैं और इस सिलसिले में उन्हें यह भी पता है कि खबरों के कारोबार में हालिया बदलाव का युवा महिला पत्रकारों पर क्या असर होगा. 1990 के दशक में जब वह 45 साल की उम्र में ब्यूरो प्रमुख बनी थीं, तो उन्हें 'युवा' माना जाता था, जबकि आज के पत्रकारों को 30 साल की उम्र में 'परिपक्व' माना जाने लगता है. वह कहती हैं, 'युवा पत्रकार 20 से 30 साल की उम्र में राजनीति कवर करना शुरू कर देते हैं और इसे मेहनत वाली बीट की बजाय ग्लैमरस बीट मानते हैं, जहां पहले वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद पहुंचा जाता था.' लिहाजा, एक परिपक्वव महिला के तौर पर उन्होंने जिन परिस्थितियों का सामना किया, उन परिस्थितियों का सामना अब युवा महिला पत्रकारों को भी करना पड़ रहा है.

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एक बार नरसिम्हा राव सरकार में एक बुजुर्ग और वरिष्ठ मंत्री ने जेरथ को अपने फिल्मों का संग्रह दिखाने की पेशकश की. इस संग्रह को मंत्री ने अपने बेडरूम में रखा हुआ था. जेरथ ने बताया, 'यह आकर्षक कलेक्शन था, लेकिन उन्होंने इसे दिखाने के दौरान अचानक से मेरा हाथ पकड़ लिया और इसे चूमने का प्रयास किया. इस अप्रिय मुलाकात से उन्होंने जितना डरा हुआ महसूस किया, उससे कहीं ज्यादा शर्म की बात ऐसा करने वाले मंत्री के लिए थी.' उन्होंने कहा, 'अगर कोई 22-24 साल की लड़की होती, तो मुमकिन है कि वह काफी डर जाती. युवा महिलाएं ताकतवर पुरुषों से मुकाबला करने और अपने करियर पर इन चीजों के असर को लेकर ज्यादा संवेदनशील होती हैं.'

विशाखा गाइडलाइंस बनने से काफी पहले पत्रकारिता शुरू करने वाली कई दिग्गज महिला पत्रकारों ने ऑफिस और उसके बाहर इस तरह के 'शिकारी' पुरुषों को चेतावनी देने के लिए 'कानाफूसी नेटवर्क' का सहारा लिया. यह नेटवर्क विशेष तौर पर ऑफिस की पार्टियों के बाद सक्रिय रहता था और इसमें तमाम तरह के डर और दहशत वाले किस्सों यानी किसके बुरा बर्ताव करने की संभावना है आदि के बारे में खबरें फैलाई जाती थीं. हालांकि, इस तरह के जुटान के मामले काफी कम होते थे. पुराने दिनों को याद करते हुए जेरथ कहती हैं, '1990 के दशक तक व्यावहारिक रूप से साल में आधे दिन शराब की दुकानें बंद रहती थीं. साथ ही, ये दुकानें दोपहर में खुलती थीं और रात के 8 बजे तक बंद हो जाती थीं. वह बिल्कुल अलग समय था.'

पहले के दौर की महिला पत्रकारों ने अपने लिए एक सीमा बनाई थी, जिसके तहत कहा गया था, 'मेरा शोषण मत करो'. हालांकि, आज की महिलाओं ने न सिर्फ शारीरिक बल्कि मनोवैज्ञानिक बाधाओं को भी खत्म किया हैः 34 साल की उम्र का राजनीतिक संपादक है, कार्य स्थल पर एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रचने के मामले बढ़े हैं, ऑफिस से संबंधित पार्टियों की संख्या बढ़ी है और पत्रकारिता में शराब का प्रचलन काफी बढ़ गया है. जेरथ का मानना है कि महिलाओं को अब भी एक निजी मनोवैज्ञानिक सीमा तैयार करनी चाहिए, जहां वह खुद को गैर-जरूरी प्रस्तावों के लिए नहीं कहने की खातिर तैयार कर सकें. साथ ही, उनका यह भी कहना है कि महिलाओं का लंबे समय से उत्पीड़न किया जाता रहा है और अगर मी टू का मामला कुछ फर्जी, मनगढ़ंत या बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए दावों के साथ खत्म हो जाता है, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. यह मामले की गंभीरता को बताने और लोगों को इस बारे में हकीकत से रूबरू कराने का एकमात्र तरीका है.

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अब महिलाएं आसानी से हार मानने वाली नहीं, मुश्किल घड़ी में भी नौकरी बनाए रखना चाहती हैं

दिल्ली और कोलकाता के बिजनेस अखबारों में काम कर चुकीं एक और वरिष्ठ महिला पत्रकार (55-60 साल) के लिए आज इन चीजों के मायने बदल गए हैं. उन्होंने कहा, 'पहले के दौर में संपादक से टकराव का परिणाम संस्थान से निष्कासन या दूसरा नौकरी खोजना था. उनके लिए किसी तरह की कानूनी सुरक्षा नहीं थी. आज महिलाएं आसानी से हार मानने वाली नहीं हैं- वे अपनी नौकरियों को बनाए रखना चाहती हैं.'

वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार पत्रलेखा चटर्जी ने 1980 के दशक में रिपोर्टिंग की पहली नौकरी की थी. नौकरी के पहले दिन से वह कमजोर और असुरक्षित महसूस करती थीं. हालांकि, इसका कारण घटिया हरकतों वाले सहकर्मी नहीं थे. दरअसल, पत्रकारिता में संपर्क बेहद जरूरी है और कोलकता से यहां आने वाली पत्रलेखा के पास दिल्ली में कोई संपर्क नहीं था. ऐसे में उन्होंने हर जॉब ऑफर की पृष्ठभूमि की गहन पड़ताल की. किसी भी तरह की असहजता और दिक्कत पाए जाने पर वह संस्थान का नाम तत्काल काट देती थीं.

वह कहती हैं, 'मैं ऐसे संस्थान में इंटरव्यू के लिए कभी नहीं गई, जहां संपादक अपने संस्थान के मुकाबले ज्यादा ताकतवर नजर आए और उनके (संपादक) के सिवा किसी अन्य के पास ताकत नहीं थी.' चटर्जी को लगता है कि ताकतवर शख्सियतों की अगुवाई वाली ऐसी जगह में संस्थागत तंत्र असफल हो सकता है और ऐसे में उन्होंने सुरक्षित संस्थानों का चुनाव किया. यह उस वक्त में जरूरी था, जब किसी शख्स की प्रतिभा को उसके व्यवहार से अलग नहीं देखा जाता था. वह कहती हैं, 'किसी भी मुद्दे मसलन महिलाओं के लिए बराबरी की वकालत पर किसी शख्स द्वारा अपनाए गए सार्वजनिक रुख को इस बात के साथ नहीं मिलाना चाहिए कि वह वास्तविक में काम में कैसा है. इसका मतलब यह हुआ कि मुझे आकर्षक अवसरों को खारिज करना है.'

एक बार एक पत्रकार देर रात की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद लिफ्ट देने के बहाने चटर्जी को अपने अपार्टमेंट में ले गया. खतरे का भांपते हुए वह तुरंत वहां से निकल गईं. चटर्जी कहती हैं, 'कभी भी शारीरिक स्तर पर दुर्व्यवहार तक मामला नहीं गया, लेकिन एक या दो ऐसे अनुभवों ने मुझे भरोसमंद और टिकाऊ दोस्ती बनाने का सबक सिखाया.' चटर्जी को सहयोग मुहैया कराने वाले नेटवर्क में वैसे प्रवासी पत्रकार भी थे, जो पूरी तरह से इस नए शहर में संघर्ष के एक जैसे अनुभव से गुजर रहे थे.

चटर्जी और ऊपर जिक्र किए गए अन्य महिला पत्रकारों ने जो किया, वह कुछ तरह से ट्विटर रीट्वीट के जरिए समर्थन जैसा ही है. महिलाओं ने हमेशा अपनापन का भाव खोजा और एक-दूसरे को ताकत दी. एम जे अकबर के न्यूजरूम के किस्सों के मामले में ठीक-ठीक इसी तरह से चीजें सामने आई हैं.