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हर आठ मिनट में देश में एक लड़की हो रही है अगवा

बच्चों के साथ हिंसा के ज्यादातर मामलों में परिवार, रिश्तेदार या जानपहचान के लोग शामिल होते हैं

Sushil K Tekriwal

वैश्विक स्तर पर सभ्य समाज की परिकल्पना तब तक अधूरी रहेगी जब तक बेबस, उपेक्षित, शोषित, कमजोर, लाचार और वंचित बच्चों का शारीरिक और मानसिक अत्याचार व उनकी दर्दनाक यंत्रणा बदस्तूर जारी रहेगी. आज इक्कीसवीं शताब्दी में संचार क्रांति से बाल-संरक्षण क्रांति तक का सफर तय करने के लिए एक ऐसे वैज्ञानिक सेतु की जरूरत है जो विधिक, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक सक्षमता से परिपूर्ण हो.

आंकड़ों की मानें तो भारत में हर आठवें मिनट में एक लड़की गायब हो जाती है. एक अनुमान ये भी है कि गायब होने वाली इन लड़कियों में से 16 मिलियन लड़कियों को अब तक देह व्यापार में धकेला जा चुका है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार, भारत में हर साल 40,000 से अधिक बच्चे लापता होते हैं, जिनमें से 11,000 से अधिक लापता बच्चों की पहचान नही हो पाती हैं.


आज बाल शोषण की समस्या इसके विभिन्न रूपों में फैली हुई है. टीआईपी रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में शोषण के विभिन्न रूपों में दो लाख से अधिक लोग बाल तस्करी के व्यापार से जुड़े हैं. वर्ष 2014 की अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष मानव तस्करी से उत्पन्न वैश्विक व्यापार का क्षेत्र लगभग 15.5 अरब डालर के करीब है.

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बच्चों के साथ हिंसक हैं भारतीय

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो 2014 के आकड़ें देश में बच्चों पर हो रही हिंसा की सबसे खतरनाक तस्वीर पेश करते हैं जिसके अनुसार 2014 में बच्चों के साथ हिंसा की कुल 89423 घटनायें हुई हैं तथा देश में कुल बच्चों के अपहरण के 37854 और बलात्कार के 13766 मामले दर्ज हुए हैं. ये तो वे संख्याऐं हैं जो दर्ज की गई हैं.

ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि बच्चियों के साथ यौन हिंसा की घटनाओं में ज्यादातर उनके परिवार के सदस्य, रिश्तेदार, पड़ोसी व जान पहचान के लोग ही शामिल रहते हैं. लिहाजा, आज बच्चे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. पहले माना जाता था कि बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित स्थान उनका घर होता है लेकिन आज यह सुरक्षित माना जाने वाला घर भी बच्चों को सुरक्षित वातावरण नहीं दे सकता है.

वास्तव में दूरदराज, ग्रामीण, अर्ध-शहरी और आदिवासी बहुल क्षेत्रों से कई शिकायतें थानों तक पहुंच ही नही पाती हैं. साथ ही बहुत सारी घटनाऐं परिवार के सम्मान से संबंधित होने, सामाजिक लज्जा और समाजिक कलंकता जैसे कारणों से सामने नही आ पाती हैं. पीड़ित बच्चों को तो दबाव डालकर खामोश करा दिया जाता है लेकिन इन भयानक घटनाओं का असर, सर्वाधिक गहन और गहरे रूप में, बच्चों के मनोविज्ञान पर हमेशा के लिए घर कर जाता है जो सारी जिंदगी इस चक्रवात से लड़ते रहते हैं.

ये मासूम बच्चे आज बाल-श्रम, गुलामी, नशाखोरी, ड्ग्स-व्यापार, विस्थापन, बाल-अंगों की तस्करी, पलायन, तस्करी, घरेलू काम, पोर्नोग्राफी, भिक्षावृति, बंधुआ-मजदूरी, अपराध में संलिप्तता, युद्ध, दंगे जैसी रोंगटे खड़ी कर देने वाली घटनाओं में तेजी से संलिप्त होते जा रहे हैं. इससे जुड़े आपराधिक गिरोहों का भी तेजी से विस्तार हो रहा है जिस पर तत्काल प्रभाव से कानूनी लगाम लगाए जाने की जरूरत है.

क्या कहता है कानून

इस विषय पर भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधान काफी संवेदनशील हैं.  संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत सरकार को पूरा अधिकार है कि वह बच्चों की सुरक्षा, उनकी देखभाल व विकार के लिए कोई भी कानून बनाए. अनुच्छेद 21 में बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार का उल्लेख है. अनुच्छेद 24 व 39 में बच्चों को खतरनाक कामों में जबरन लिप्त कराने व किसी भी काम को जबरदस्ती करने से रोकने का भी प्रावधान है और साथ में हर बच्चे को स्वस्थ व अनुकूल वातावरण देने की बात भी कही गई है.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी ‘बच्चों के अधिकार’ संबंधी घोषणा पत्र में बच्चों को जीवन का, पोषण का, विकास का, संरक्षण का और सहभागिता का अधिकार दिया है. इस घोषणा पत्र में भारत ने भी हस्ताक्षर कर इन अधिकारों को अपने देश के बच्चों को देने का दृढ़ संकल्प लिया है.

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बच्चों को सुरक्षा, संरक्षण और उनके सम्पूर्ण विकास के लिए भारत में की कानून हैं- जैसे किशोर न्याय (बालकों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015, बच्चों की सुरक्षा के लिए यौन अपराध अधिनियम 2012, बाल श्रम (निषेध एवं नियमन), बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 2002, अनैतिक मानव व्यापार (रोकथाम) अधिनियम 1986, एकीकृत बाल विकास योजना, राष्ट्रीय प्रारंभिक बाल्यावस्था देखरेख एवं शिक्षा नीति 2013 आदि.

प्रतीकात्मक तस्वीर

इसके अलावा बच्चों के हक में कई अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर भारत ने भी दस्तखत किए हैं जैसे ‘वैकल्पिक प्रोटोकाल बच्चों की बिक्री, बाल वेश्यावृति और बच्चों की पोर्नोग्राफी 2000’ और ‘वैकल्पिक प्रोटोकाल हथियारबंद संघर्ष में बच्चों की भागीदारी 2000’, ‘महिलाओं और बच्चों के तस्करी पर रोकथाम के लिए’ हुई संधि. इसके अतिरिक्त बाल अधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय और राज्य बाल संरक्षण आयोग भी बनाये गये हैं.

लेकिन विडंबना ये है कि इन सब काननूनी समग्रताओं के बावजूद भी बच्चों के इन कानूनी अधिकारों का निरंतर उल्लंधन हो रहा है. ये अधिकार बच्चों से लगातार छीने जा रहे हैं.

आज यह जरूरी हो गया है कि सरकार द्वारा कानूनों को फिर से परिभाषित किया जाए, उन्हें अधिक से अधिक सख्त बनाया जाए तथा इनका प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाए.

सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बाल अपराधों के विभिन्न रूपों की लंबी होती श्रृंखला में शामिल सभी अपराधियों की पहचान, गिरफ्तारी, मुकदमा चलाने के लिए जरूरी और प्रभावी बुनियादी ढांचे, प्रतिभाशाली अभियोग पक्ष की नियुक्ति और मुकदमों का निश्चित समय सीमा में निपटारा हो. जब तक यह नहीं होगा, हमारे बच्चों को इन भयानक अवसादों से जुझते ही रहना होगा.

साथ ही बाल अपराधों के विभिन्न रूपों के खिलाफ जन-जागरण व जागरूकता अभियानों की सघनता भी जरूरी है. साथ ही बाल अपराधों के विभिन्न रूपों पर रोक लगाने के लिए इसके होने के पीछे के प्राथमिक कारणों जैसे घरेलू हिंसा, अशिक्षा, बेरोज़गारी, गरीबी, असुरक्षित प्रवास और बाल विवाह आदि के संपूर्ण उन्मालन पर भी विधिक क्रियान्वयन प्रभावी रूप से लागू करना होगा. जब तक यह नहीं होगा, हम एक समाज और सभ्यता के तौर पर संवेदनहीन, नपुंसक व निष्क्रिय ही माने जाएंगे.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं. साथ ही रायन मर्डर केस में प्रद्युम्न के परिवार की तरफ से केस लड़ रहे हैं)