क्रिकेटर मोहम्मद शमी ने अपनी खूबसूरत पत्नी और बच्चे के साथ अपनी फोटो सोशल मीडिया पर साझा कर दी. आपत्ति हो गई. इसलिए कि उनकी पत्नी ने गहरे गले वाली एक ड्रेस पहनी थी जो स्लीवलेस भी थी.
तो क्या मोहम्मद शमी को अल्लाह से डर नहीं लगता? या वे किसी दूसरे के मुकाबले कम मुसलमान हैं? इसका सपाट सा जवाब देकर शमी तो आगे बढ़ गए.
लेकिन उन बंदों का क्या करेंगे जो अल्लाह के नाम पर लोगों को डराते हैं और धर्म को आगे बढ़ने से लगातार रोके रखना चाहते हैं?
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वे कभी तालिबान बन जाते हैं, कभी अल-कायदा तो कभी आईएसआईएस के नुमाइंदे. लेकिन उनका तर्क स्थायी रहता है, कथित तौर पर इस्लाम की रक्षा करना. मानों उन्हें इस्लाम की रक्षा के लिए सीधे अल्लाह ने ही नियुक्त किया हो.
सभी धर्म समान
ऐसा नहीं है कि यह समस्या सिर्फ इस्लाम के साथ हो. यह हिंदू धर्म में भी है और दूसरे कथित तौर पर आधुनिक धर्मों में भी.
एक षड्यंत्र की तरह धर्मों को संस्कृतियों से जोड़ दिया गया है और धर्मों के स्वयंभू पहरेदार संस्कृति की आड़ में आतंक खड़ा करते रहते हैं.
धर्म और संस्कृति के स्वयंभू पहरेदारों को कभी ‘वैलेंटाइंस डे’ से खतरा हो जाता है तो कभी लड़कियों के पब में जाने से.
कभी खुले कंधों और खुले घुटनों के साथ चर्च में प्रवेश पर आपत्ति होती है तो कभी महिलाओं का मंदिरों में प्रवेश ही खतरा बन जाता है.
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कितना आश्चर्यजनक है कि संस्कृति और धर्म के स्वत: नियुक्त पहरेदारों को महिलाओं के अपमान पर कभी आपत्ति नहीं होती.
क्या आपने कभी सुना-पढ़ा है कि इन धर्मरक्षकों ने कभी महिलाओं के अपमान को लेकर कोई मुद्दा खड़ा किया हो? इन्हें सड़कों के किनारे सरेआम पेशाब करते पुरुष अश्लील दिखाई नहीं देते लेकिन एक महिला का बिना बांह का कपड़ा पहन लेना अश्लीलता दिखाई देने लगता है.
वेश्यावृत्ति को मजबूर महिलाओं की चिंता करते ये कभी नहीं देखे जाएंगे, न वे उनके देवदासी होने का विरोध करेंगे, लेकिन जब भी महिलाओं के अधिकारों की बात आएगी तो उन्हें धर्म और संस्कृति का ख्याल आ जाएगा.
ठहरा हुआ धर्म
दरअसल समस्या यह है कि समाज पिछली कुछ सदियों में तेजी से बदला है लेकिन धर्म ठहरा हुआ है. बदलने के नाम पर सिर्फ इतना ही हुआ है कि वह टूटकर एक नए नाम से स्थापित हो गया. लेकिन उसकी कट्टरता और महिलाओं के प्रति उसका दृष्टिकोण वैसा ही रहा है.
वैज्ञानिक तथ्य है कि धर्म की स्थापना मनुष्य ने की. शायद समाज को नियंत्रित रखने की इच्छा रखने वाले कुछ निहित स्वार्थों ने. उन्होंने षड्यंत्रपूर्वक धर्म को आस्था का सवाल बना दिया और तर्कों से इसे दूर रखा.
इसलिए जब भी परिवर्तन या सुधार के तर्क आए तो पंडों, मुल्ला-मौलवियों और पादरियों ने एक सुर में इसे खारिज कर दिया.
धर्म को सबसे अधिक खतरा वैज्ञानिकता से हो सकता है लेकिन तथ्य है कि वैज्ञानिकता बढ़ने के साथ ही धार्मिक कट्टरता भी बढ़ी है. सुनियोजित ढंग से ही.
इसलिए लोगों को अब जितना डर अल्लाह, ईश्वर और गॉड से नहीं लगता उससे ज्यादा डर उसके बंदों से लगता है.
अभी यह डर और बढ़ेगा. कहां तक जाएगा, यह कहना मुश्किल है.
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