भारत सरकार ने गुरुवार को मैटरनिटी बेनेफिट एमेंडमेंट बिल-2016 को लोकसभा में पास कर दिया. इसके साथ ही देश को नया और संशोधित मैटरनिटी कानून मिल गया.
इससे पहले मैटरनिटी बेनेफिट एमेंडमेंट बिल एक एक्ट के रुप में साल 1961 से ही लागू था. तब के एक्ट के अनुसार एक कामकाजी गर्भवती महिला को 12 हफ्ते यानी 84 दिनों की पेड लीव देने का प्रावधान था.
मैटरनिटी लीव बढ़ाने की डिमांड
ऐसा करने का मकसद तब महिलाओं की उनके कार्यस्थल से गैरमौजूदगी के दौरान नौकरी बचाने की होती थी. लेकिन, समय बीतने और दिनों-दिन हर क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ने के साथ ऐसी मांग बढ़ने लगी कि उनको दी जाने वाली छुट्टी बढ़ाई जाए.
लंबे संघर्ष और लगातार मांग के बाद आखिरकार सफलता मिली और गुरुवार को यह कानून पारित हो गया. कानून पारित होने के साथ ही इसकी सफलता के औचित्य को लेकर एक साथ कई सवाल खड़े हो गए.
नियम तो बना पर लागू कैसे होगा
चूकिं, इस कानून को देश के सभी सरकारी और गैर-सरकारी संगठित क्षेत्रों में एक साथ लागू करने की बात कही गई है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस कानून को सही तरीके से अमल करने की जिम्मेदारी किसकी होगी.
सरकारी दफ्तरों में जहां छुट्टी पर जाने वाली महिलाओं की सैलरी सरकार की तरफ से दी जाएगी और उनकी नौकरी पर फौरी तौर पर कोई खतरा नहीं होगा वहां शायद इस कानून के सफल और प्रभावी होने की उम्मीद ज्यादा है.
निजी क्षेत्र में कैसे बनेगी बात
लेकिन, निजी क्षेत्र में ऐसा हो पाना थोड़ा मुश्किल है. डर ये है कि कहीं ये फैसला महिलाओं के कामकाजी स्टेट्स या फिर यूं कहे कि उनकी आर्थिक स्वतंत्रता और मजबूती के आड़े न आ जाए.
निजी क्षेत्र का दखल
आज जिस तरह से ज्यादा से ज्यादा व्यवसायिक क्षेत्रों में निजी सेक्टर्स की दखल बढ़ती जा रही है, वैसे में सवाल ये उठता है कि इन संस्थानों में होने वाली गलाकाट प्रतिस्पर्धा और कर्मचारियों पर लगाए पैसे का पर्याप्त रिटर्न पाने की रणनीति की चुनौती का सामना ये कानून कैसे कर पाएगा?
क्या इसका नतीजा, महिलाओं को मिलने वाली नौकरी के कम अवसर या मौकों के रूप में सामने आने वाला है?
छोटे या मझोले शहरों की छोड़ें, दिल्ली..मुबंई और बेंगलुरू जैसे मेट्रोपॉलिटन और बड़े शहरों में भी अक्सर महिलाओं के साथ ऐसे हालातों में भेदभाव होते नजर आए हैं.
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मैं खुद और मेरी कई महिला सहकर्मियों ने अपने लंबे कामकाजी जीवन में कई बार इस तरह के भेदभाव को झेला है.
जब उन्हें मैटरनिटी लीव पर जाने, छोटे बच्चे की देखभाल करने और नाइट शिफ्ट न कर पाने जैसी प्रैक्टिकल प्रॉब्लम्स के कारण या तो नौकरी गंवानी पड़ी या दफ्तर में उनके प्रमोशन से लेकर इन्क्रीमेंट तक में भेदभाव झेलना पड़ा.
ज्यादातर मौकों पर या तो इन महिलाओं को दफ्तर की मुख्यधारा से दूर कर दिया गया या फिर उन्हें नौकरी छोड़कर घर बैठना पड़ा.
सुविधाओं का नहीं रखा जाता ख्याल
दफ्तर में क्रेच की मांग, गर्भवती महिलाओं को आने-जाने की सुविधा देना, काम के घंटे कम करने जैसी सुविधा की मांग लंबे अर्से से चल रही है, लेकिन अपने 14 साल के करियर मुझे नहीं लगता कि इक्का-दुक्का जगहों के अलावा कहीं भी इसको लेकर प्रबंधन में संवेदनशीलता नजर आयी है.
कई बार ऐसी मांग करना, मालिक के खिलाफ विद्रोह भी माना गया है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि सरकार इन बड़े व्यवसायिक घरानों, निजी कंपनियों और हर तिमाही पर अपना रेवेन्यू जांचने वाली सत्ताओं को पूरी संवेदनशीलता और महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा करते हुए, नया कानून अपनाने को किस तरह से राजी कर पाएगी?
पैटरनिटी बिल
कई लोगों की राय है, इस कानून के साथ ही सरकार पैटरनिटी बिल को भी पारित कर दें ताकि पुरुष भी पिता बनने पर छुट्टी पर जांए और दफ्तर में कम आउटपुट देने का सारा आरोप महिलाओं के सिर पर न मढ़ा जाए.
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हालांकि, पिता को पेटरनिटी लीव दिए जाने के लिए कई वाजिब तर्क भी है. मसलन, नवजात को मां के साथ पिता की भी जरुरत होती है और ये कि शहरी परिवेश में एकल परिवार के दौर में- पुरुष को भी ये छुट्टी मिलनी चाहिए ताकि वो ऐसे हालात में पत्नी और बच्चे के साथ मौजूद रहे.
अंत में ये कि, भारत में हर साल तकरीबन 30 लाख महिलाएं गर्भ धारण करती हैं और बच्चों को जन्म देती हैं और इनमें से ज्यादातर असंगठित क्षेत्र से आती हैं जिसमें मजदूर, किसान और हाउसवाइफ शामिल हैं.
जिन महिलाओं को ये सुविधा प्रभावी रुप से हासिल होगी वो इस आधी आबादी का एक छोटा सा हिस्सा भर है. जरुरत इस कानून को इन सभी वंचित महिलाओं तक पहुंचाने की है.
तभी ये कानून देश की तमाम महिलाओं के साथ इंसाफ कर पाएगा.