बेंगलुरु की मेयर पद्मावती जी, 3 मार्च को बेहद गुस्से में थीं. उन्होंने बेंगलुरु के टाउनहाल में महिलाओं के एक समूह को संबोधित करते हुए कहा कि ‘अगर आप लोग सरकार या बीबीएमपी यानी बृहद बेंगलुरु महानगर पालिका के खिलाफ प्रदर्शन करेंगी तो मैं उसे बर्दाश्त नहीं करूंगी.’
उस दिन पद्मावती, टाउन हाल में जमा हजारों सफाई कर्मचारियों को संबोधित कर रही थीं. इन महिलाओं को बेंगलुरु में पौराकार्मिक कहा जाता है. इनका काम सड़कों पर झाड़ू लगाना और कूड़ा जमा करना है.
ये महिलाएं अपने अधिकार के लिए प्रदर्शन कर रही थीं. वो महीनों से नहीं मिली अपनी तनख्वाह चाहती थीं. साथ में वो काम करने के लिए दस्ताने, हाथ गाड़ियां और झाड़ू की मांग कर रही थीं, ताकि उन्हें काम करने में सहूलियत हो.
ये महिला सफाईकर्मी कई सालों से ये मांग कर रही हैं, मगर उन्हें ये बुनियादी सामान भी नहीं मुहैया कराया जा रहा है.
पद्मावती की चेतावनी को दरकिनार करके ये पौराकार्मिक 8 मार्च को भी हड़ताल कर रही हैं. 8 मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को कभी दुनिया भर की कामकाजी महिलाओं की एकजुटता का दिन माना जाता था. मगर जब से इसमें गुलाबी रंग चढ़ा है, इसे लेकर महिलावादियों की त्यौरियां चढ़ जाती हैं.
लेकिन जब बेंगलुरु के पॉश इलाके इंदिरानगर में काम करने वाली पौराकार्मिक दीपम्मा ये कहती हैं कि 8 मार्च को वो काम नहीं करेंगी. उन्हें टाउन हॉल जाकर विरोध प्रदर्शन में शामिल होना है, तो हमें महिला दिवस की अहमियत का एक बार फिर अंदाजा होता है.
दस्ताने और झाड़ू की जंग
दीपम्मा को पिछले महीने से तनख्वाह नहीं मिली है. उन्हें अपनी साथी महिला कर्मचारियों से इस विरोध प्रदर्शन की खबर हुई. उन महिलाओं को पिछले दो महीने से पांच हजार रुपए तनख्वाह मिल रही है.
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दीपम्मा के पास अपना झाड़ू है, जिसे उन्होंने अपने पैसे से खरीदा था. मगर उनकी कई साथी कर्मचारियों के पास तो दस्ताने भी नहीं हैं. उन्हें कूड़ा कचरा अपने नंगे हाथों से ही उठाना पड़ता है.
बुधवार का विरोध प्रदर्शन अपनी आवाज इतनी बुलंद करने के लिए है, जिससे हुक्मरान उसे सुन सकें. हालांकि, दीपम्मा को ये पता नहीं है कि 8 मार्च को महिला दिवस है. वो बस ये कहती हैं कि कल देखना सड़कें कितनी गंदी रहेंगी.
पिछले साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मैं जूतों और 'स्पा' के तमाम गुलाबी इश्तिहार देख-देखकर परेशान हो गई थी. इस साल मैंने व्हाट्सऐप पर आने वाले तमाम घटिया मैसेज के लिए खुद को जहनी तौर पर तैयार किया हुआ है. ऐसे संदेश जिसमें कहा जाता है कि महिलाएं शानदार हैं क्योंकि वो बेटियां हैं, मांए हैं, बहनें हैं.
फिर #NotAllMen मैसेज भी बड़ी तादाद में आते हैं. क्योंकि महिला दिवस पर मर्द तो औरतों से भी ज्यादा अहम हो जाते हैं. ये तो आज के महिला दिवस का सिर्फ एक पहलू है. लेकिन इस साल बेंगलुरु में हजारों महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर अपनी आवाज बुलंद करेंगी. महिला दिवस पर इससे अच्छी बात क्या हो सकती है.
सोमवार को, महिला दिवस कार्यक्रमों से पहले, बेंगलुरु के पीनया इलाके में कामकाजी महिलाओं ने एक मार्च निकाला. इसमें कपड़ा फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाएं शामिल हुईं.
इन महिलाओं ने काले कपड़े पहने हुए थे. वो अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज उठा रही थीं. वो अपने यौन शोषण के विरोध में आवाज बुलंद कर रही थीं. साथ ही वो काम के बदले मिलने वाली कम पगार, फैक्ट्री के खराब माहौल, महिलाओं के लिए अलग शौचालय न होने पर भी विरोध जताने निकली थीं.
पीनया वो इलाका है जहां करीब सवा लाख कर्मचारी कपड़ा फैक्ट्रियों में काम करते हैं. इनमें महिलाओं की तादाद काफी ज्यादा है. उन्होंने पिछले साल अप्रैल में अचानक ही, बिना किसी योजना के ये विरोध मार्च निकाला था.
उस वक्त उनका कोई नेता भी नहीं था. तब उनका विरोध पीएफ खातों के नियमों में बदलाव के सरकारी आदेश के खिलाफ था. देश का हर कामकाजी इन महिलाओं का कर्जदार है. क्योंकि इनके प्रदर्शन के कुछ दिनों बाद ही सरकार ने पीएफ को लेकर अपने नए नियम वापस ले लिए थे.
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कर्नाटक की गारमेंट लेबर यूनियन की सरोजा कहती हैं कि महिलाओं को महिला दिवस पर जरूर से विरोध प्रदर्शन करना चाहिए. वो कहती हैं कि जब सब लोग इस दिन को लेकर इतना शोर मचाते हैं. तो हम क्यों न प्रदर्शन करें. भले ही महिला दिवस के शोर में विरोध की आवाज गुम हो जाए, फिर भी प्रदर्शन होने चाहिए.
कारखानों में यौन-शोषण
बेंगलुरु की सफाई कर्मचारी रंगम्मा ने जब अपनी बकाया तनख्वाह मांगी, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया. इसके बाद वो पौराकार्मिक संघ से जुड़ गईं. वो कहती हैं कि विरोध प्रदर्शन महिला कामगारों की एकता के लिहाज से बेहद जरूरी है.
सवाल उठता है कि क्या ये विरोध-प्रदर्शन एक मौका हैं? जिससे हर दर्जे की महिलाएं, एक दूसरे के संघर्ष को समझ सकें.
दो हफ्ते पहले मैंने एक बैठक में हिस्सा लिया था. इसमें कामकाजी महिलाओं के यौन शोषण के खिलाफ बने एक्ट को बेंगलुरु के आस-पास की फैक्ट्रियों में लागू करने पर चर्चा हुई.
जिस वक्त मैं इस बैठक से निकली, मुझे बेहद गुस्सा आया हुआ था. क्योंकि करीब साढ़े तीन घंटे की बैठक के बाद दो फैक्ट्रियों के नुमाइंदों ने उठकर कहा कि उनके कारखानों में महिलाओं का बिल्कुल भी शोषण नहीं होता, उनके यहां इस पर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनायी जाती है.
इतनी लंबी बैठक के बाद उनके पास कहने के लिए इतना भर ही था. जबकि हम बैठक में सुन चुके थे कि किस तरह से इन कारखानों में महिलाओं का यौन शोषण हो रहा था.
जब फैक्ट्री के इन नुमाइंदों ने महिला कामगारों की बात मानने से इनकार किया तो हमें बेहद गुस्सा आया. मगर शिकायत करने वाली महिला मुस्कुराती रही. शायद उस महिला को ये अंदाजा था कि उसकी शिकायत का यही हाल होना था.
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शायद उसे इसका भी बखूबी अंदाजा था कि ये बैठक तो महज एक शुरुआत है. इस घटना से मुझे दीपम्मा की बात याद आती है. उनका कहना था कि भले ही कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. मगर तीन मार्च को जब उनके समर्थन में कई छात्र उतरे तो हौसला बढ़ा.
इंदिरानगर इलाके के कई बाशिंदे इन पौराकार्मिकों के हक को लेकर बातचीत कर रहे थे. दीपम्मा का मानना है कि उनके विरोध प्रदर्शन से कम से कम चर्चा तो शुरू हुई. ये तब तक ठीक ही है जब तक उनकी कहानी पर किसी और की कहानी हावी नहीं होती.
महिलाओं का ऐसा हर प्रदर्शन उनकी असल दिक्कतों को लेकर है. ये ऐसी समस्याएं हैं जिनकी बार-बार अनदेखी की जाती रही है.
ऐसे हर प्रदर्शन से, जिसमें हजारों महिलाएं एक दूसरे के साथ खड़ी नजर आती हैं, दूसरे तबके की महिलाओं को एक मौका मिलता है. जिनके जरिए वो दूसरी महिलाओं की चुनौतियों को समझ सकती हैं.
फिर जैसा कि दीपम्मा कहती हैं कि, 'इन प्रदर्शनों से जब और लोग जुड़ते हैं, तो अच्छा लगता है. बेहतर होता कि इससे वो लोग हमारा सम्मान करते, हम जिनके लिए काम करते हैं.'
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