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धारा 377: 157 साल बाद बदला है कानून, अब जरूरत लोगों की सोच बदलने की है

कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि वो हर हाल में ये सुनिश्चित करे कि इस फैसले को पब्लिक मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जा सके

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सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले ने 157 साल पुराने कानून को पलट दिया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश 72 देशों के उस समूह में से, जहां समलैंगिकता अपराध है, से बाहर होकर 124 उन देशों की श्रेणियों में शामिल हो गया जहां पर समलैंगिकता को केवल एक सामान्य मानव स्वभाव माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने याद दिलाने की कोशिश की है कि बहुमत और सामाजिक नैतिकता देश के संविधान के ऊपर नहीं हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन पीनल कोड की धारा 377 को उस स्तर तक अंसवैधानिक करार दिया है जहां पर दो व्यस्क लोगों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए शारीरिक संबंधों को आपराधिक कृत्य माना जाता था. हालांकि अदालत ने ये साफ किया है कि बिना सहमति यानी कि जबरन अप्राकृतिक सेक्स और बच्चों और पशुओं के साथ यौनाचार करने को अभी भी धारा 377 के तहत अपराध माना जाएगा.


गुरुवार को अपने फैसले की शुरुआत करते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि 'मैं जो हूं वो हूं, इसलिए मैं जैसा हूं मुझे वैसा ही स्वीकार करिए.' जस्टिस मिश्रा ने कहा कि 'अपने आपको व्यक्त नहीं करने देना मौत को दावत देने जैसा है.' पांच जजों की संविधान पीठ ने इस मामले में अपना फैसला सुनाया है. इस पीठ में जस्टिस मिश्रा के साथ-साथ जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस फली नरीमन, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा भी शामिल थे. पाचों जजों ने एकमत से धारा 377 के लगभग डेढ़ सौ सालों से ज्यादा से चले आ रहे कानून को पलट दिया. जस्टिस मिश्रा ने जस्टिस एएम खानविलकर के साथ अपना जजमेंट दिया जबकि बाकी के तीन जजों ने अपना अपना फैसला अलग से दिया.

यौन क्रियाओं में संपूर्णता प्राप्त करना अधिकार और इसका सम्मान होना चाहिए

इस मामले में फैसला देने वालों जजों में से एक जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लिखा कि LGBTQI (लेस्बियन,गे,बाइसेक्सुअल,ट्रांसजेंडर,क्वर,इंटरसेक्स) समुदाय के सदस्यों को भी देश के अन्य सामान्य नागरिकों की तरह ही पूरे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं. जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि पार्टनर चुनने का अधिकार व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर है. यौन क्रियाओं में संपूर्णता प्राप्त करना उनका अधिकार है और इस अधिकार के लिए उनके साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना गलत है. इनके सेक्सुअल ओरिएंटेशन की रक्षा करना संवैधानिक दायित्व है.

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जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपने फैसले में कहा कि LGBT समुदाय को गैरकानूनी नहीं बनाया जा सकता है और न ही उसके साथ सामाजिक नैतिकता के नाम पर सौतेला व्यवहार किया जा सकता है. जस्टिस नरीमन ने अपने फैसले में कहा कि 'नैतिकता और अपराध एक साथ नहीं चल सकते. धरती पर पाप की सजा नहीं मिल सकती है. धरती पर केवल अपराध की सजा मिल सकती है.'

जस्टिस नरीमन ने तो अपने फैसले में ये तक कह दिया कि हमारे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन करने का मकसद ही ये रहा है कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत आजादी और प्रतिष्ठा एक बहुसंख्यक सरकार की पहुंच से दूर रहे. ये इस तरह से है कि संवैधानिक नैतिकता ये सुनिश्चित करे कि सभी के अधिकारों की रक्षा हो सके जिसमें अलग और एकांत में रहने वाले अल्पसंख्यक भी शामिल हैं. जस्टिस नरीमन ने कहा कि ये मौलिक अधिकार चुनावों के परिणाम से जुड़े हुए नहीं होने चाहिए.

जस्टिस चंद्रचूड़ के मुताबिक, ये इस कदर प्रजातांत्रिक है कि हमारा संविधान अनुकूलता की मांग नहीं करता और न ही संस्कृति की मुख्यधारा पर चिंतन करता है. 29 अगस्त 2018 को दिए गए अपने फैसले को याद करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ कहते हैं कि असहमति प्रजातंत्र का सेफ्टीवाल्व है. चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र पुलिस के द्वारा भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद गिरफ्तार किए गए पांच मानवाधिकार एक्टविस्टों के मामले पर सुनवाई के दौरान ये कहा था. चंद्रचूड़ कहते हैं कि 'हमारी ये पहचानने कि शक्ति कि दूसरे हमसे अलग हैं, हमारी खुद की उत्पत्ति की पहचान है. हम लोग सहानुभूति और मानवीय समाज के प्रतीक को खो रहे हैं और वो भी अपने जोखिम पर.'

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धारा 377, दो व्यस्कों के बीच सहमति के साथ बनाए गए सेक्स संबंधों के लिए उन्हें डराता है और शर्मिंदा करता है. जो लोग सहमति के साथ एनल और ओरल सेक्स करते हैं और स्वास्थ्य संबंधी सलाह चाहते हैं उनपर आपराधिक मामला दायर होने का खतरा बना रहता है. चंद्रचूड़ कहते है कि इस वजह से वो लोग स्वास्थ्य के मोर्चे पर कमजोर रहते हैं और उनपर बीमारियों का खतरा बना रहता है. ऐसे में अन्य समुदायों की तुलना में खास करके सेक्सुअल और जेंडर माइनॉरिटीज के बीच स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादा उत्पन्न होती हैं.

जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने अपने फैसले में लिखा है कि 'इतिहास को माफी मांगनी होगी इस समुदाय और उनके परिजनों से.' पांच जजों वाली इस बेंच की इकलौती महिला जज इंदु मल्होत्रा ने कहा कि 'इतिहास को इस समुदाय और उनके परिजनों से माफी मांगनी पड़ेगी क्योंकि इनके शिकायत के निपटारे में काफी देर हुई है. इससे पहले सदियों तक इन्होंने अपमान, बदनामी और बहिष्कार का दंश झेला है.'

LGBTQI समुदाय के लोग हमेशा से भय के वातावरण में जीते आए हैं क्योंकि बहुसंख्यक आबादी ने कभी इनके दर्द को समझने की कोशिश ही नहीं की. लोग कभी ये मानने को तैयार ही नहीं हुए कि समलैंगिकता मनुष्य का एक सामान्य व्यवहार है और ये मानवीय सेक्सुअलिटी का ही एक अंग है. जस्टिस मल्होत्रा ने माना कि इसी वजह से इस समुदाय को भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 (कानून की नजर में समानता का अधिकार),15 भेदभाव निषेध),19 (बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी) और 21 (जीवन का अधिकार) के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों से इन्हें वंचित रखा गया. मल्होत्रा ने कहा कि LGBT समुदाय एक साफ-सुथरे और अच्छे जीवन की उम्मीद रखते हैं और वो एक अपराधी की तरह गिरफ्तार होने की छाया से भी दूर रहना चाहते हैं.

'भारतीय संविधान एक जीवित और धड़कने वाला दस्तावेज है'

जस्टिस मिश्रा ने जोर देते हुए कहा कि भारतीय संविधान एक जैविक और धड़कनयुक्त दस्तावेज है जिसमें समझ और परिस्थियों के अनुकूल ढालने की व्यवस्था है. जस्टिस मिश्रा ने कहा कि 'न्यायपालिका केवल इस तथ्य के आधार पर बेखबर नहीं रह सकती है कि समाज लगातार विकसित हो रहा है.'

जस्टिस चंद्रचूड़ ने पूछा कि 'क्या हमारा संविधान ये अनुमति देता है कि अंतरंग क्षणों में जब अपने ही नागरिक अपने-आप को तलाशने की कोशिश कर रहे हों तो उनके शरीर पर भय की चादर लिपटी रहे?' चंद्रचूड़ कहते हैं कि 'जिस तरह से धारा 377 की वजह से इस समुदाय के लोगों को त्रासदी और पीड़ा से गुजरना पड़ा है, अब समय आ गया है कि इस समस्या से उन्हें निजात दिलाई जाए. समलैंगिकता मानसिक बीमारी नहीं है.’

मानसिक बीमारी की पहचान, नैतिक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक झुकाव और धार्मिक मान्यताएं और अन्य विश्वास जो कि उस व्यक्ति के समुदाय में जारी है, उस पर असहमति जताने के आधार पर नहीं की जानी चाहिए. जस्टिस नरीमन ने फैसले में कहा कि समलैंगिकता को मानसिक गड़बड़ी के रूप में नहीं देखा जा सकता है.

जजमेंट में 6 जून 2018 को इंडियन सायकेट्री सोसायटी (आईपीएस) के द्वारा जारी किए गए बयान को भी उद्धरित किया गया है. इस बयान में कहा गया था कि 'इंडियन सायकेट्री सोसायटी इस बात को सामने रखना चाहती है कि हमें इस बात का कोई सुबूत नहीं मिला है जिससे कि ये सबित हो सके कि समलैंगिकता एक मानसिक रोग या बीमारी है.'

वर्तमान में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के पदचिह्नों पर चलते हुए बीमारियों के वर्गीकरण में समलैंगिकता को F-66 के अंतर्गत मानसिक रोगों की श्रेणी में रखती है. F-66 रोगों के अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण-10 की श्रेणी में आता है. वर्गीकरण के मुताबिक एक रोगी जिसकी पहचान LGBTQI समुदाय से होती है, वो पहचान के संकट से गुजर रहे हैं ऐसे में उस रोगी को इलाज की जरुरत है.

1990 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने वर्गीकरण में सुधार किया था और उसके अंतर्गत समलैंगिकता को मानसिक बीमारियों की उस श्रेणी से निकाल दिया था जिसके लिए जांच की आवश्यकता होती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उस समय कहा कि केवल अलग सेक्सुअल ओरियंटेशन को गड़बड़ी की संज्ञा नहीं दी जा सकती है. लेकिन इसके बाद भी समलैंगिकता आज भी F-66 के अंर्तगत शामिल है.

WHO का कहना है कि समलैंगिकता को अभी भी सायकेट्री डायग्नोसिस की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है लेकिन केवल तब-जब संबंधित व्यक्ति इसको लेकर परेशान हो.

विश्व स्वास्थ्य संगठन में किसी ने स्पष्ट किया कि क्यों समलैंगिकता को ICD-10 की सूची में शामिल किया गया है. उस व्यक्ति ने जो कारण बताए हैं उसमें से एक कारण ये गिनाया है कि विश्व के कुछ हिस्सों में समलैंगिक संबंधों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है और ये कड़ी सजा, सजा ए मौत की है. ऐसे मामलों में रोग को मानसिक बीमारी की तरह मानकर उसका इलाज किया जाता है जिससे कि उन लोगों को उससे मदद भी मिलती है.

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इस दृष्टिकोण के अंतर्गत भारत में कन्वर्जन थेरेपी को मंजूरी मिली हुई है. इस थेरेपी के सहारे क्वीयर को हेट्रोसेक्सुअल्स में बदलने के लिए इलेक्ट्रो कंवल्सिव थेरेपी या हारमोन थेरेपी का इस्तेमाल किया जाता है. वैसे आईसीडी-11 के लिए पुनर्मूल्यांकन 2022 में निर्धारित किया गया है. इसमें सिफारिश की गई है कि इस सूची से समलैंगिकता को पूरी तरह से हटा ही दिया जाए.

सहमति की समझ: धारा 377 और 375

देश के सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने धारा 377 और धारा 375 की भाषा में जबरदस्त अंतर की भी समीक्षा की है. धारा 375 महिलाओं के बलात्कार से संबंधित है जिसके अंतर्गत वेजाइनल, एनल और ओरल पेनीट्रेशन किया जाता है. ये कानूनी रूप से अरक्षणीय है.

धारा 375 इस बात को विस्तार से बताता है कि शारीरिक संबंध में अगर आपसी सहमति नहीं है तो ये बलात्कार है और बलात्कार अपराध की श्रेणी में आता है. लेकिन धारा 377 में होमोसेक्सुअलस और हेट्रोसेक्सुअलस के बारे में इस तरह की समझ की व्याख्या नहीं की गई है.

अगर हेट्रोसेक्सुअल लोगों में सहमति से इंटरकोर्स को क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट 2013 के अंतर्गत अनुमति दी गई है तो ऐसे में किसी भी दो व्यक्तियों के बीच, जिसमें एलजीबीटी समुदाय के लोग भी शामिल हैं, रुझान को लंबे समय तक अरक्षणीय के रूप में व्यवहार नहीं किया जा सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों के बीच का संबंध आपसी सहमति का है और उनके बीच बिताए जा रहे ये अंतरंग पल उनके व्यक्तिगत और निजी स्थानों के भीतर ही समाहित होते हैं.

‘समलैंगिकता प्रकृति के नियम के खिलाफ नहीं है यानी कि ये अप्राकृतिक कतई नहीं है.’

‘प्रकृति के नियम के खिलाफ जाकर शारीरिक संभोग करने वाले’ विचार का मूल्यांकन करते हुए इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट और देश के कई हाईकोर्टों ने इस पर सहमति जताई है. इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने माना है कि इस विषय में उनके द्वारा दिया गया विवरण स्प्ष्ट नहीं है और ये कोर्ट के हालिया दिए गए फैसले के खांचे में फिट नहीं बैठता है. यहां पर उनका संदर्भ खास करके 2014 के NALSA केस से था जहां पर कोर्ट ट्रांसजेंडर्स की पहचान के बारे मे विचार कर रही थी. इसके अलावा 2017 के राइट टू प्राइवेसी के जजमेंट और अन्य फैसलों के संदर्भ में भी ये बात कही गयी है.

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जजों का मानना था कि आज के जमाने में अब केवल शादी को ही उत्पत्ति या प्रजनन का आधार नहीं माना जाता है. जस्टिस मिश्रा का कहना था कि 'ये दो व्यस्कों के बीच का मामला है और ये उनकी आपसी सहमति से जुड़ा हुआ है. उन्हें इस बात को चुनने की आजादी है कि वो सेक्स बच्चे पैदा करने के लिए करना चाहते हैं या फिर किसी और चीज के लिए और अगर उनकी इच्छा दूसरी वाली है तो भी उन्हें ये नहीं कहा जा सकता कि ये प्रकृति के नियम के खिलाफ है.' चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा का कहना था कि दो व्यस्कों के बीच सहमति के साथ अलग तरीके से सेक्स करना जो अब तक इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 377 के अंतर्गत अपराध माना जाता था, इसके बावजूद इससे ये साबित नहीं हो जाता है कि ये प्रकृति के नियम के खिलाफ है.

आगे की राह: जागरुकता और संवेदनशीलता पैदा करना

जस्टिस नरीमन ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वो हर हाल में ये सुनिश्चित करने का प्रयास करे कि इस फैसले को पब्लिक मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जा सके और इसका पूरा प्रचार-प्रसार समय-समय पर अंतराल के साथ किया जा सके. उन्होंने सरकार से कहा कि वो सबसे पहले इस तरह के लोगों का विश्वास जीतने के लिए कार्यक्रम बनाए और उस समुदाय के मन में इसके प्रति बैठे डर और कलंक को समाप्त करने की कोशिश करे.

नरीमन से सरकार को निर्देश देते हुए कहा कि सभी सरकारी अधिकारी खास करके पुलिस अधिकारियों को ऐसे लोगों की पीड़ा को समझने के लिए समय समय पर जागरुकता कार्यक्रम का आयोजन करके उनको इसके प्रति संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाए.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 377 के अंतर्गत पक्षपात, भेदभाव और कलंक के परिणामस्वरूप इन लोगों के मनोवैज्ञानिक स्वभाव पर असर पड़ा है. ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े प्रोफेशनल कानून में हुए इस बदलाव को एक अवसर के रूप में मान सकते हैं जिसमें वो खुद समलैंगिकता को लेकर अपने विचारों का पुनर्परीक्षण कर सकते हैं.

(इंडिया स्पेंड की असिस्टेंट एडिटर एलिसन सलदाना और एनालिस्ट प्राची साल्वे की रिपोर्ट)