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Surrogacy Bill: कॉमर्शियल सरोगेसी पर 'ब्लैंकेट बैन' लगाकर सरकार ने कई परिवारों में अंधेरा कर दिया है!

जिस बिल से उम्मीद की जानी चाहिए थी कि वो इस प्रक्रिया में मौजूद शोषण को संबोधित करेगा उस बिल ने सरोगेसी को पूरे तरीके से खत्म ही कर दिया

Ankita Virmani

'हमारी शादी को 18 साल हो गए थे लेकिन इन सालों में हम बेऔलाद ही रहे. मेरी पत्नी इस दौरान कई बार प्रेगनेंट हुई लेकिन कमजोर गर्भ के कारण हमारा मां-बाप बनने का सपना पूरा नहीं हुआ. हां, एक बार हमें जुड़वां बच्चे भी हुए लेकिन प्री-मैच्योर यानी समय से पहले पैदा होने के कारण वो छह महीने भी नहीं जी पाएं. हमने मां-बाप बनने की सारी उम्मीदें खो दी थी जब तक हमने सरोगेसी जैसे विकल्प के बारे में नहीं सोचा था. सरोगेसी के जरिए हमें एक बेटी पैदा हुई जो बिल्कुल मेरे जैसी दिखती है, मां-बाप बनने का हमारा सपना पूरा हुआ.  आज वो 17 महीने की है.पैसा कभी हमारे लिए ये खुशी नहीं खरीद सकता था.'-  ये कहानी है बेंगलुरू के एक व्यवसायी की, जो अपना नाम गोपनीय रखना चाहते हैं.

चेन्नई की एक और महिला जिन्होंने मां बनने का सपना पूरा करने के लिए कॉमर्शियल सरोगेसी का रास्ता चुना बताती है, 'मैंने पांच बार से ज्यादा आईवीएफ का रास्ता चुना और बहुत पैसा खर्च किया लेकिन हमें कोई मदद नहीं मिली, जिसके बाद एक सरोगेसी वकील ने सरोगेसी की प्रक्रिया में हमारी मदद की. सरोगेसी के दौरान दोनों पार्टियों के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट साइन किया जाता है. एक सरोगेट महिला ने हमारे जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. इन नौ महीनों के दौरान हमने उस सरोगेट महिला का पूरा ध्यान रखा, उसे रहने के लिए घर दिया. मैं आज भी बच्चों की तस्वीरें उन्हें भेजा करती हूं. उन्होंने जो हमारे लिए किया उसके बदले हम उनके लिए जो भी करें वो कम ही है. पर फिर भी हमने ये तय किया कि हम उनके खुद के दो बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाएंगे.'


करीबी रिश्तेदार और पांच साल के संबंध की शर्त

कॉमर्शियल सरोगेसी के जिस विकल्प को चुनकर इन लोगों ने अपने माता-पिता बनने की ख्वाहिश को पूरा किया वो अब समाप्त हो चुकी है. लोकसभा में हाल ही में पारित हुआ सरोगेसी (रेगुलेशन) बिल, 2016 अब सिर्फ 'एलट्रिूस्टक' यानी 'परोपकारी' सरोगेसी की अनुमति देता है और वो भी सिर्फ उन लोगों को जो कानूनी तौर पर 5 साल से विवाहित हैं. इसके साथ ही सरोगेट महिला शादीशुदा होने के साथ-साथ 'करीबी रिश्तेदार’ भी होनी चाहिए. बिल पूरी तरह से वाणिज्यिक यानी कॉमर्शियल सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाता है. इसके अलावा नया बिल तलाकशुदा, विधवा, लिव-इन रिलेशनशिप में रहे रहे लोगों, समलैंगिक जोड़ों और शादीशुदा जोड़े जिनके पहले से बच्चे हैं पर पूरी तरह से पाबंदी लगाता है.

लेकिन अहम सवाल ये कि जिस समाज में बांझपना आज भी वर्जना है, क्या ऐसे में परिवारों और करीबी रिश्तेदारों के बीच कोख साझा करना सच में वास्तविकता बन सकता है? तुषार कपूर और करण जौहर जैसी बॉलीवुड हस्तियों की बात छोड़ दें, जो गर्व से बताते हैं कि उन्होंने पितृत्व के सुख के लिए सरोगेसी का रास्ता चुना तो आमतौर पर वो ही लोग सरोगेसी का रास्ता अपनाते है जिनके लिए आईवीएफ जैसे विकल्प भी विफल हो जाते हैं.

इस विधेयक को लोकसभा में पहली बार 21 नवंबर 2016 में पेश किया था, जिसके बाद जनवरी 2017 में ये बिल स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर संसदीय स्थायी समिति को भेजा गया. समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई सिफारिशें की थी लेकिन हाल ही में पास हुए नए बिल में शायद ही इन सिफारिशों का असर देखने को मिले.

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परोपकारी सरोगेसी की पेचीदगियां

शुरूआत करते हैं नए विधेयक के उस अनुच्छेद से जो सबसे ज्यादा विवादास्पद है- 'एलट्रिूस्टक' सरोगेसी के रास्ते अपना माता पिता बनने की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए युगल सिर्फ उस महिला को सरोगेट बना सकते हैं जो शादीशुदा हो और 'करीबी रिश्तेदार' हो. समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इसे हटाने की सिफारिश की थी और कहा था कि सरोगेसी की प्रथा को करीबी रिश्तेदारों तक सीमित करना न केवल गैर-व्यावहारिक और अयोग्य है, बल्कि बिल के मुख्य उद्देश्य जो कि सरोगेट्स के शोषण को रोकना है- से भी एकदम अलग है.

अगर बिल का मुख्य उद्देश्य सरोगेट्स के शोषण को रोकना है तो फिर ये कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि ये शोषण परिवार में नहीं होगा? क्या यह आश्वासन दिया जा सकता है कि परोपकारी सरोगेसी के मामलों में एक महिला जो परिवार की किसी अन्य महिला की खुशी के लिए गर्भ साझा करेगी, वो उसकी पसंद है और जबरदस्ती नहीं? बच्चे को जन्म देना कोई एक दिन का तो काम नहीं, इसमे किसी की जिंदगी के 9 महीने शामिल होते हैं, साथ ही शारीरिक दर्द और भावनाएं भी. चलिए मान भी लिया जाए कि परिवार में एक महिला ने अपनी मर्जी से दूसरी महिला की खुशी के लिए किया है लेकिन क्या होंगी उस मां की भावनाएं जब वो अपनी कोख से जन्मे बच्चे को नियमित रूप से अपने सामने बढ़ते देखेगी और क्या ये बच्चे के जीवन पर असर नहीं डालेगा?

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भारतीय सरोगेसी लॉ सेंटर,चेन्नई के मुख्य सलाहकार हरि जी रामसुब्रमण्यन कहते हैं कि, 'विधेयक महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने का दावा तो करता है लेकिन विधेयक को देख ऐसा लगता है कि सरोगेसी को बहुत ही नकारात्मक अर्थों में देखा-समझा गया है. केवल परोपकारी सरोगेसी की अनुमति देकर इस प्रक्रिया के व्यावसायिक हिस्से को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है और ये केवल महिलाओं पर वो करने के लिए दबाव बनाएगा जो वो कर सकती है.'

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रामासुब्रमण्यन ने यह भी बताया कि, 'भारत में बांझपन की दर आठ प्रतिशत है और सरोगेट महिलाओं की जबरदस्त मांग है. कॉमर्शियल सरोगेसी पर बैन सिर्फ ब्लैक-मार्केटिंग को बढ़ावा देगा. फिलहाल, सरोगेट महिला और इच्छुक दंपत्तियों के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट साइन किया जाता है जिसमें मुआवजे, माता-पिता के अधिकारों का हस्तांतरण और अन्य सभी बातों का उल्लेख किया जाता है.'

गोपनीयता जैसे अहम पहलू पर सोचा ही नहीं गया

गुजरात के आकांक्षा हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर की सरोगेसी और इनफर्टिलिटी एक्सपर्ट डा नयना पटेल कहती हैं कि 'सबसे पहले हमें इसे 'कॉमर्शियल' सरोगेसी नहीं बल्कि 'कम्पनसेट्री' सरोगेसी कहना सीख लेना चाहिए क्योंकि आपके मां-बाप बनने की इच्छा को कोई पूरा करे उसकी कीमत आप कैसे भी नहीं चुका सकते. हमारी रोज की जिंदगी में भी हम किसी से कोई छोटा-सा एहसान भी नहीं लेना चाहते और फिर भी कोई हमारे लिए कुछ करे भी तो हम कोशिश करते है कैसे भी उस चुकाने की. फिर जिस महिला ने आपकी खुशी को नौ महीने अपने कोख में रखा उसकी भरपाई क्यों ना की जाए? मैंने सरोगेसी की मदद से अब तक लगभग 1400 बच्चों का जन्म करवाया है जिसमें सिर्फ 25 से 30 मामले परोपकारी या एलट्रिूस्टक सरोगेसी के थे बाकी सभी कॉमर्शियल सरोगेसी के. लोग अपने नजदीकी रिश्तेदारों को भी ये नहीं बताना चाहते कि उन्होंने सरोगेसी का रास्ता चुना है. नए बिल में गोपनीयता के महत्वपूर्ण पहलू पर मंथन ही नहीं किया गया. परोपकारी सरोगेसी सिर्फ पारिवारिक महिलाओं में दबाव और शोषण के मामलों और अंडरग्राउंड सरोगेसी को बढ़ावा देगा.'

इस बिल का दूसरा परेशान करने वाला अनुच्छेद है पांच साल की समयसीमा, जो ऐसे जोड़ों की मुश्किलों को और बढ़ाएगा. इसके तहत शादीशुदा लोगों को परोपकारी सरोगेसी के लिए भी शादी के पांच साल पूरा होने का इंतजार करना होगा. समिति ने अपनी रिपार्ट में इसे मनमाना, भेदभावपूर्ण और बिना किसी निश्चित तर्क का बताया था और इसे एक साल में बदलने की सिफारिश की थी. पांच साल का इंतजार प्रजनन करने के अधिकार और निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है.

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जीवनशैली में बदलाव और देर से विवाह में वृद्धि को देखते हुए, जब लोग अपने 30 या 40 के दशक में अच्छी तरह से घर बसाने के लिए चुनते हैं तो पांच साल की प्रतीक्षा गैमीट की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती है साथ ही सरोगेसी के माध्यम से पैदा होने वाले बच्चों की संभावना को भी कम कर सकती है और जिन महिलाओं को गर्भ की अनुपस्थिति या फिर किसी वजह से उसका हटाया जाना या फिर फाइब्रॉएड जैसी बीमारी है उन्हें इस सुख के लिए एक साल का भी इंतजार करने की जरूरत क्यों है?

डा पटेल कहती हैं, 'अगर कोई महिला 35 साल की उम्र में शादी करती है और किसी भी वजह से उसके गर्भ को हटा दिया गया हो तो वो मां बनने के लिए 5 साल का इंतजार क्यों करें?'

समलैंगिकों के पास तो अब कोई विकल्प ही नहीं

इस बिल का तीसरा ध्यान देने वाला अनुच्छेद समलैंगिक लोगों पर इस विकल्प के लिए प्रतिबंध लगाना है. एलजीबीटी राइट एक्टिविस्ट कल्कि सुब्रमण्यम कहती है, 'भले ही सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को हतोत्साहित कर हमें इस सामाज में बराबरी का हक दिया है लेकिन ये समाज अभी भी हमें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और यह बिल इसका एक आदर्श उदाहरण है. यह भेदभाव क्यों? क्यों हमारा अपना परिवार नहीं हो सकता? हम में से कई लोग पहले से ही जीवन में परिवार से वंचित हैं, क्योंकि हमारे माता-पिता,परिवार हमारी यौन पसंद जानने पर हमें छोड़ देते हैं. हमारे लिए सिर्फ सरोगेसी ही एक तरीका है जिससे हम खुद का बच्चा कर सकें लेकिन इस बिल ने हमारे लिए अपना परिवार बनाने की एक आखिरी उम्मीद को भी खत्म कर दिया है.'

इसमें कोई शक नहीं कि इस 1 बिलियन डॉलर उद्योग को नियंत्रण करने की जरूरत थी लेकिन क्या उसके लिए व्यावसायिक सरोगेसी पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना ही एकमात्र रास्ता था? इसे एथिकल यानी नैतिक सरोगेसी जैसे कुछ में तब्दील किया जा सकता था जहां कड़े कानूनों के साथ ऐसे लोगों और सरोगेट महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित किया जाता. व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाना उन दंपतियों की आशाओं पर पूरी तरह से पूर्ण विराम लगाता है, जो परोपकारी सरोगेसी का विकल्प नहीं चुन सकते हैं, या फिर जो अपनी निजी समस्याओं को और लोगों से बांटना नहीं चाहते.

102वीं संसदीय रिपोर्ट में कहा गया था कि इसमें कोई संदेह नहीं कि मौजूदा सरोगेसी मॉडल में शोषण की संभावनाएं है लेकिन शोषण की यह क्षमता नियामक निगरानी की कमी और सरोगेट को कानूनी संरक्षण की कमी के वजह से है और इसे कानून के माध्यम से कम से कम किया जा सकता है.रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि अगर कई गरीब महिला किसी और जरूरतमंद महिला के लिए सरोगेट बन अपने बच्चों को शिक्षा दे सकती है या फिर घर बना सकती है या फिर कोई छोटा व्यवसाय शुरू कर सकती है तो ये उस से छीना नहीं जाना चाहिए.

ये समझने की जरूरत है कि ना तो कोई जोड़े ना ही सरोगेट महिला इसे अपने शौक के लिए चुनते हैं. दोनों ही पक्षों की अपनी अपनी मजबूरियां और आवश्यकताएं है. जोड़े के लिए बच्चा और सरोगेट के लिए अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा. जिस बिल से उम्मीद की जानी चाहिए थी कि वो इस प्रक्रिया में मौजूद शोषण को संबोधित करेगा उस बिल ने सरोगेसी को पूरे तरीके से खत्म ही कर दिया.