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कठुआ रेप: भेदभाव और टकराव से भरे अतीत ने मिटा दी एक मासूम जिंदगी

अपनी बेटी के खोने से निराश दंपत्ति जानते थे कि सांजी राम कौन है? दीपक खजुरिया कौन है? वो उन लोगों को भी पहचानते थे जिन्होंने उन लोगों को गांव से बाहर निकालने की साजिश रची

Sameer Yasir

बात 18 जनवरी की है, उस समय जम्मू कश्मीर विधानसभा का सत्र चल रहा था. मैं भी सुबह में विधानसभा सत्र की कार्यवाही देखने और कवर करने के लिए प्रेस गैलरी में बैठा हुआ था. उसी दौरान गुज्जरों के एक प्रभावशाली विपक्षी नेता मियां अल्ताफ ने एक ऊर्दू अखबार को सदन में लहराया.

उस अखबार में एक आठ वर्षीय बकरवाल लड़की की चौंका देने वाली हत्या से जुड़ी खबर छपी थी. खबर के साथ लड़की का नाम और उसकी फोटो भी छपी हुई थी. मियां अल्ताफ के इस मुद्दे को उठाने के बाद विपक्षी दल कांग्रेस और एनसीपी के नेताओं ने भी सदन में विरोध करना शुरु कर दिया और सरकार से इस हत्याकांड की जांच कराने की मांग की. सदन में प्रदर्शन के दौरान अल्ताफ स्पीकर के सामने चिल्ला रहे थे कि क्या यही ‘बेटी पढ़ाओ,बेटी बचाओ’ आंदोलन है. लेकिन जल्द ही अल्ताफ की आवाज सत्ताधारी बीजेपी विधायकों के शोर के बीच में गुम हो गई. बीजेपी विधायक राजीव जसरोटिया ने सदन में बताया कि ये हत्या पारिवारिक विवाद और भूमि हड़पने का मामला है.


किसी ने इस मामले को खास तवज्जो नहीं दी. जम्मू के अधिकतर अंग्रेजी अखबारों ने इस खबर को अपने अखबार में जगह नहीं दी ऐसे में हम लोगों को भी लगा कि ये एक और लड़की या यों कहें कि ये एक बच्ची के कत्ल का मामला था जो कि एक निम्न आर्थिक वर्ग से आती थी और उसकी हत्या वहां के दंबग भूमिपतियों ने की थी. ऐसे कई मामले पहले भी सामने आते रहे हैं.

आंतरिक सुरक्षा के लिए काफी अहम, लेकिन फिर भी भेदभाव

गुज्जर और बकरवाल जम्मू कश्मीर के दो खानाबदोश समुदाय हैं. ये ऐसे समुदाय हैं जिन्होंने कश्मीर में पिछले लगभग तीन दशकों से चल रही राजनीतिक उथल-पुथल के बीच भी नई दिल्ली से दोस्ती गांठे रखी और उसके विश्वासपात्र बने रहे. इन समुदायों की आबादी राज्य में अच्छी खासी है और ये जम्मू कश्मीर की कुल जनसंख्या का 12 फीसदी हैं.

इनके महत्व के बारे में अगर आपको जानना है तो आपको जम्मू कश्मीर में आईबी में तैनात रहे अधिकारी या फिर लाइन ऑफ कंट्रोल के पास ड्यूटी कर रहे या कर चुके सेना के अधिकारियों से मिलना चाहिए. ये आपको बताएंगे कि गुज्जर या पहाड़ी किस तरह से उनके आंख और कान बने हुए हैं. ये लोग हमेशा से आंतरिक सुरक्षा में अहम कड़ी साबित हुए हैं जबकि इन्हें तो कश्मीरी माना भी नहीं जाता है. 1990 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद ने पैर पसारना शुरु किया तो कश्मीरियों के नजदीक रहने वाले पहाड़ियों के एक वर्ग ने कश्मीरी आतंकवादियों के लिए गाइड का काम करना शुरु किया और उन्हें पाकिस्तान भेजने में मदद की थी.

गुज्जरों और बक्करवालों के साथ राज्य में हमेशा से भेदभाव होता आया है. उन्हें यहां पर नीची नजरों से देखा जाता है. जब गुलाम नबी आजाद जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने तो उन्हें कई बार गुज्जर कह दिया जाता था. जम्मू कश्मीर की राजधानी और राज्य के सबसे प्रमुख शहर कश्मीर में अगर आप किसी बात पर बहस या झगड़ा करते हैं तो आपको वहां कई लोग तुंरत गुज्जर की उपाधि दे डालेंगे भले ही आप शहर से आए हों या फिर किसी गांव से. दरअसल वहां पर लोग गुज्जर शब्द का इस्तेमाल अपशब्द के रूप में करते हैं जिसका मतलब होता है गंदा या फिर जिसके पास तहजीब नहीं है.

बकरवाल समुदाय की एक महिला. (इमेज- रॉयटर्स)

लोकल मीडिया ने नहीं उठाई स्टोरी

लेकिन गुज्जरों का कई लोग काफी सम्मान भी करते हैं. राजनेताओं और जम्मू के लोग गुज्जरों को सच्चा राष्ट्रवादी मानते हैं. ऐसे में मीडिया का उस स्टोरी को नजरंदाज करना मेरे समझ से परे था. ये आश्चर्यजनक था कि जम्मू में बैठे मेरे दोस्त खास करके टीवी चैनलों के रिपोर्टरों ने भी इस स्टोरी को उठाना उचित नहीं समझा जबकि उनलोगों ने बॉर्डर पर लगातार हो रहे हमलों के दौरान शानदार रिपोर्टिंग की थी. लेकिन कश्मीर से दो टीवी संवाददाता बाद में वहां पहुंचे. उनमें से एक वहां रुक गया और उसने लागातर इस घटना की रिपोर्टिंग की.

दो दिन बाद एक मित्र जो कि एक राष्ट्रीय अखबार के लिए काम करते हैं वो विधानसभा में नहीं दिखे. जब मैंने उनके बारे में कश्मीर के एक सहयोगी रिपोर्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि वो कठुआ जिले के रसाना गांव गए हुए हैं. ये वही गांव था जहां पर उस लड़की का क्रूरतम तरीके से बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गई थी. हालांकि मैंने कभी उस गांव का नाम नहीं सुना था. कई दिनों के बाद उस मित्र ने बताया कि उनके साथ उस गांव में जाने के बाद क्या हुआ था. उन्होंने लिखा कि जब वो पहुंचे तो उन्हें अपनी पहचान बताने के लिए कहा गया और उनसे उनके होटल का पता बताने को बाध्य किया गया जिसमें वो रुके हुए थे. इस घटना ने उन्हें सहमा दिया था.

इसके तीन दिनों के बाद मेरे एक और पत्रकार मित्र ने शाम को फोन किया. उसने मुझसे कहा कि रसाना जाओ क्योंकि जम्मू का मीडिया उस खबर को कवर नहीं करेगा. उसने ऐसा क्यों कहा मैं समझ नहीं पाया. पीड़िता की बॉडी मिलने के चार दिनों के बाद में कठुआ जिले के उसी रसाना गांव पहुंचा.

जब मैं गांव पहुंचा तो वहां पर एक लंबा, चौड़े कंधे और मूंछों वाला एक व्यक्ति मिला. उस व्यक्ति ने मेरे ड्राइवर से पूछा, 'कहां जाना है', गांव में मैं अपने ड्राइवर के साथ पहुंचा था जो कि जम्मू का ही रहने वाला डोगरा समुदाय से था. वह मेरा पुराना आजमाया हुआ सहयोगी था और वो मेरे लिए उस गाइड की तरह था जिसके साथ मैं अपने रिपोर्टिंग के दौरान जम्मू में भारत-पाकिस्तान के बार्डर के आखिरी पॉइंट तक कई बार बेधड़क तरीके से पहुंचा था. उस अनजान व्यक्ति के सवाल पूछने के बाद मेरा ड्राइवर शुरू में तो चुप रहा लेकिन थोड़ी देर बाद उसने बताया कि उसे गुज्जरों के यहां जाना है.

उस युवक ने जंगलों के बीच के एक पहाड़ी मैदान की ओर इशारा किया. हम लोगों ने राहत की सांस ली और आगे की ओर बढ़ चले. वहां पहुंचने का रास्ता उबड़-खाबड़ था. हम लोगों को वहां की नजदीकी सड़क से ऊपर पहुंचने में आधे घंटे का सफर तय करना पड़ा. घने जगंलों से होते हुए आखिरकार हम रसाना गांव पहुंच ही गए.

छोटे-छोटे टकराव से शुरू हुआ था मामला

कहानी कुछ यूं है- सात साल पहले मोहम्मद युसुफ पुजवाला ने रसाना गांव में एक जमीन का टुकड़ा खरीदा और उसपर एक मंजिला घर बनाकर अपने परिवार के साथ रहने लगे. गांव के लोगों के मुताबिक पिछले तीन सालों में वहां पर ग्रामीण हिंदुओं और खानाबदोश मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ने लगा. पिछले साल दोनों के बीच तनाव उस समय चरम पर पहुंच गया जब हिंदुओं ने मुसलमानों को बेची अपनी एक एकड़ जमीन वापस मांगनी शुरु कर दी.

इसके बाद दोनों पक्षों के बीच गायों और भेड़ों के एक दूसरे की जगहों पर घुसने को लेकर झगड़े होने लगे. हाल ही के एक मामले में एक रिटायर्ड नौकरशाह सांजी राम जिसे हत्या और बलात्कार के मामले में गिरफ्तार किया गया है उसने अपने खेतों में खानाबदोशों के भैंसों के घुसने के बाद खानाबदोशों से एक हजार रुपए हर्जाना वसूल किया था.

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पुजवाला एक गुज्जर खानाबदोश समुदाय है जो कि वहां पर हिंदू नागरिकों पर अपने जानवरों के चारे के लिए आश्रित है. हिंदुओं से मिलने वाले चारे को ये लोग बकायदा पैसे देकर खरीदते हैं. पीड़िता का ज्यादातर समय पास के जंगलों में ही बीतता था.

पीड़िता ने की थी शिकायत

जब मैं पीड़िता के मां-बाप से मिला तो लोग अपनी बेटी के गम के टूटे दिखाई दिए. अपनी पत्नी के साथ बैठे पीड़िता के पिता ने रुंधे गले से मुझे कहा कि 'शायद मेरी बेटी का प्यार मेरे किस्मत में नहीं था.' उनकी पत्नी बातचीत के दौरान शांत बैठी रहीं. मुझे लगा कि शायद वो भी कुछ बोलना चाहती हैं लेकिन उनके पास अपने गम को जाहिर करने के लिए शब्द नहीं थे. पीड़िता के अपहरण के तीन दिन पहले ही उसने अपनी मां नसीमा को बताया था कि पड़ोस के एक लड़के के साथ उसकी लड़ाई रोज हो रही थी.

'बहुत गंदा है वो लड़का', पीड़िता ने अपनी मां नसीमा से कहा. नसीमा अपने बरामदे पर बैठी अपने दो घोड़ों को छप्पड़ के नीचे बांध रही थीं. पीड़िता ने नसीमा के आगे अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि वो लड़का बोलता है कि 'मेरे साथ बैठ कर सिगरेट पी', नसीमा ने इसे बच्ची की सामान्य शिकायत मानते हुए उसे समझाया कि वो उससे दूर रहे और अपना काम करे. नसीमा को एहसास नहीं था कि इस शिकायत पर ध्यान नहीं देना उसे उनसे हमेशा के लिए दूर कर देगा.

इस संक्षिप्त बातचीत के अलावा अपनी बेटी के खोने से निराश दंपत्ति ने शायद ही कुछ और कहा. वो जानते थे कि सांजी राम कौन है? दीपक खजुरिया कौन है? वो उस नाबालिग को भी जानते थे कि उन लोगों को भी पहचानते थे जिन्होंने उन लोगों को गांव से बाहर निकालने की साजिश रची. इस घटना का मास्टरमाइंड सांजी राम बताया जा रहा है नाबालिग लड़का सांजी राम का भतीजा था. सांजी राम के साथ उस नाबिलग लड़के को भी इस मामले में गिरफ्तार कर लिया गया है.

लेकिन इसके बाद भी वो लोग सहमे हुए थे. कुछ दिनों के बाद मैं उस गांव में दोबारा पहुंचा. आदिवासी हितों की रक्षा करने वाले तालिब हुसैन के समर्थन से पीड़ित बच्ची को न्याय दिलाने की मांग को लेकर वहां पर लोगों ने सड़क जाम किया और अपराधियों की गिरफ्तारी की मांग की.

बाद में शुरू हुआ विरोध

दूसरी बार गांव पहुंचने के रास्ते में एक बार फिर से स्थानीय युवकों ने मेरा रास्ता रोका. उन्होंने मुझसे मेरा पहचान पत्र मांगा. लेकिन मैं अपना पहचान पत्र होटल के कमरे में ही भूल आया था. ये बताने के बाद उन युवकों ने मेरा सामान चेक किया और उसके बाद मुझे शांतिपूर्वक जाने दिया. मेरे ड्राइवर जो कि उनकी स्थानीय भाषा का जानकार था उसने बताया कि ये लड़के अच्छे हैं लेकिन यहां कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है.

जब मैं पीड़िता के घर पर पहुंचा तो उसके घरवालों का दूसरा रूप देखा. इस बार वो चुप नहीं थे, वो बात करना चाहते थे. यूसुफ की एक रिश्तेदार शरीफा बेगम वहां पहुंची. शरीफा एक मुखर महिला थीं और वो बात करना चाह रही थीं. शरीफा ने नसीमा का हाथ पकड़कर उनसे कहा कि वो हमें पीड़िता के कपड़े दिखाए. नसीमा एक कमरे में गईं और वहां पर उन्होंने एक ट्रंक खोला. उस ट्रंक में बच्ची का एक मैरुन कलर का फ्रॉक और एक चॉकलेट पड़ा हुआ था. सामान दिखाते-दिखाते नसीमा की आंखों से आंसू टपकने लगे.

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शरीफा ने मुझे बताया कि वो जानती हैं कि अपराधी सांजी ही है. शरीफा ने कहा कि जब उनके बच्चे छोटे थे तो वो अपने बच्चों को कहती थीं कि 'सो जाओ नहीं तो सांजी राम आ जाएगा.' शरीफा के अनुसार सांजी एक कुख्यात व्यक्ति है. शरीफा ने कहा कि वो जानती हैं कि पीड़िता के साथ दुष्कर्म हुआ था. उन्होंने ही पीड़िता का अंतिम संस्कार किया था और उस दौरान उन्होंने देखा था कि उसके बाहों और पैरों पर लाल और नीले निशान पड़े हुए थे. आठ साल की बच्ची के साथ ऐसा कोई जानवर ही कर सकता है.

गुरूवार की मध्यरात्रि में जब राहुल गांधी कैंडिल मार्च लेकर इंडिया गेट जा रहे थे तो मेरे जेहन में उस बच्ची की मां का ख्याल आया. नसीमा पटनीटॉप के पास किसी जंगल के एक कोने में अपने पति और दो बेटों के साथ आंखों में आंसू लिए बैठी हुई अपनी बेटी को याद कर रही होंगी.

मैंने कश्मीर में रिपोर्टिंग के दौरान वहां पर होने वाले टकराव और उससे लोगों को होनेवाली हानि से हमेशा खुद को दूर रखने की कोशिश की. जब 2016 में मेरे एक खुद के संबंधी को पैलेट लग गया तो मैं अस्पताल में उनके बगल में बैठा लेकिन स्टोरी लिखी.

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लेकिन उस दिन शाम को जब मैं पीड़िता के परिवारवालों से मिलकर होटल पहुंचा तो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मैं घंटों खाली कंप्यूटर को देखता रहा. मेरी ऊंगलियां कांप रही थी, मेरा शरीर भय से सिहर रहा था. मेरा दिमाग उस 8 वर्षीय मासूम बच्ची के चेहरे से हट ही नहीं रहा था. मैं जब लिखने कि कोशिश करता तो मेरे लैपटॉप के सामने उसकी तस्वीर नाच जाती थी. मैं अगले दिन फिर विधानसभा पहुंचा और मैंने वो स्टोरी भी लिखी लेकिन कई घंटों के बाद. उस स्टोरी को शुरू में अन्य स्टोरीज की तरह से देखने का अफसोस मेरे साथ हमेशा बना रहेगा.