हर बार हमें लगता है कि इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता. हर बार हम कहते हैं- अब बस, बहुत हुआ. लेकिन देश के किसी न किसी कोने से हर बार हमें गलत साबित कर दिया जाता है. घृणित मानसिकता का कोई न कोई हैवान इतनी हैवानियत के साथ सामने आता है कि हर बार हम भौंचक्के हो जाते हैं कि क्या ऐसा संभव भी है? लेकिन इस बार भी ऐसा ही हुआ है. इस घटना ने सारी दरिंदगी पार कर दी है. और हम फिर सुन्न हैं.
जम्मू-कश्मीर के इतने दूरदराज के एक गांव में 8 साल की बच्ची के साथ दरिंदगी हुई कि उसे दिल्ली तक पहुंचने में 2 महीने से ज्यादा का वक्त लग गया. बच्ची के साथ इस दरिंदगी ने एक और घिनौना चेहरा सामने रख दिया- धर्म के नशे में अंधे हो चुके लोगों का, जिन्होंने ये नहीं सोचा कि धर्म के नाम पर वो जिसका बचाव कर रहे हैं, उनका खुद का कोई धर्म नहीं है, वो हैवान हैं.
क्या अंदर का इंसान मर जाता है?
जनवरी में नोमाद समुदाय की 8 साल की बच्ची को एक मंदिर में कैद रखकर, नशीली दवाइयां देकर 5 दिनों तक बार-बार उसके साथ रेप किया गया. आखिर में उसके हाथ-पैर तोड़कर मार डाला और उसे जंगल में फेंक दिया. तबसे उसका परिवार और उसका समुदाय न्याय की मांग उठा रहा है. पुलिस ने रेप और हत्या के 8 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया. मंदिर में 8 साल की बच्ची के साथ लगातार रेप होते रहने के इस भयावह अपराध के अपराधियों की पहचान भी एक विडंबना ही है. इनमें से एक रिटायर्ड अफसर है, एक नाबालिग है और दो पुलिस वाले हैं.
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5 दिनों तक इन जानवरों ने उस बच्ची के साथ अमानवीय सलूक किया. चार्जशीट में दाखिल उनकी करतूत से लगता नहीं कि वो इंसान थे भी. समझ नहीं आता कि इतनी डरावनी और घिनौनी हरकत करते वक्त उस इंसान का अंत:करण जिंदा भी होता होगा या नहीं.
तिरंगा लेकर बलात्कारी का समर्थन, क्या ऐसे हालात आ गए?
इन जानवरों को जो सजा दी जाए, कम है लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसने न्यायपालिका तक को शर्मसार कर दिया. चार्जशीट दाखिल होने के बाद जम्मू-कश्मीर के बार एसोसिएशन ने आरोपियों के समर्थन में प्रदर्शन कर दिया. वकील सड़कों पर उतर आए. जख्म पर नमक छिड़कने की बात ये कि इस प्रदर्शन में ऐसे लोग भी नजर आए, जो हाथ में तिरंगा लेकर, जय श्री राम के नारे लगा रहे थे, वो भी किसलिए, एक 8 साल की मुस्लिम बच्ची के साथ रेप करने वाले बलात्कारियों के गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए. इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता.
हालात इस कदर उलट चुके हैं कि आज तर्क पर बात करने वाला और बुनियादी सुविधा की मांग करने वाला इंसान गालियां खाता है और बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार अपराधियों के समर्थन में तिरंगा लहराया जाता है और जय श्री राम के नारे लगाए जाते हैं. कोई इनके हाथ से तिरंगा छीन क्यों नहीं लेता? क्यों नहीं इनके बेशर्म चेहरों पर थप्पड़ मारकर समझाया जा सकता है कि जिस मुंह से ये बलात्कारियों का समर्थन कर रहे हैं, उस मुंह से इन्हें जय श्री राम के नारे लगाने का हक नहीं है? ऐसा करना जरूरी है क्योंकि इन्होंने आदत बना ली है कि जहां कहीं भी प्रदर्शन करना हो, बवाल करना हो वहां तिरंगा फहराकर देशभक्ति की छौंक लगा दो, बस राष्ट्रभक्त का ठप्पा लग जाएगा और कोई कुछ कर नहीं पाएगा.
यहां तक कि बार एसोसिएशन के इस प्रदर्शन में दो बीजेपी मंत्री चंद्र प्रकाश गंगा और लाल सिंह भी शामिल हुए और बाकायदा भाषण भी दिया कि गिरफ्तार किए लोगों को छोड़ना होगा. उन्होंने इस कार्रवाई को जंगल राज तक बता दिया. इसके बाद क्या कहने को रह जाता है? लगता है कि बलात्कारियों के छुट्टा घूमने को ही वो सुशासन समझते हैं.
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पीड़िताओं का मजाक बनाता सिस्टम और नेता
उन्नाव रेप का मामला भी करप्ट सिस्टम का एक नमूना है. 1 साल से न्याय के लिए लड़ रही रेप पीड़िता के साथ जो हुआ, उसके दर्द के साथ-साथ अपने पिता के मौत का दुख भी झेलना है. इससे ज्यादा वो कुछ कर नहीं कर सकती क्योंकि कानून के कर्ता-धर्ता आरोपी को बचाने में अपने पद और पावर का सदुपयोग कर रहे थे.
वैसे तो देश के अधिकतर नेताओं से संवेदना और समझदारी की उम्मीद करना बेमानी ही है, लेकिन इस मामले में तो हद ही हो गई. एक नेता ने कह दिया कि पीड़िता तीन बच्चों की मां है और तीन बच्चों की मां से रेप नहीं होता? कहां से लाते हैं ये इतनी समझदारी?
एक और बात है जिसे देखकर कोफ्त होती है, वो है सोशल मीडिया पर लोगों का इग्नोरेंस. कठुआ की बात करो तो आपने यहां का मुद्दा तो उठाया नहीं. सासाराम का मुद्दा उठाओ तो आपने वहां ये हुआ था तब तो कुछ नहीं बोला था. कुछ लोग विरोध करने की धुन में इतने अंधे हो जाते हैं कि उन्हें ये तक कहने में शर्म नहीं आती कि केस फर्जी है या पीड़िता अपनी इज्जत उछाल रही है. माफ कीजिए, लेकिन अगर क्या इनके घर में खुदा न खास्ता कभी ऐसा होता है, तो क्या ये तब भी इतनी बेगैरत से ऐसी बातें करेंगे? रेप पीड़ित महिलाएं-बच्चियां अब हिंदू-मुस्लिम के खांचे में बंधकर ही अपने साथ हुए अन्याय का मुद्दा उठा सकती हैं. अगर वो बस औरत हैं तो शायद उनकी कहने वाला कोई नहीं.
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परिवार नहीं थके, हमें भी नहीं थकना है
जब भी ऐसी दरिंदगी होती है, बेटियों के पैदा होने पर अफसोस जताया जाता है. इस बार कुछ लोगों से ये सुना कि अब लड़कियों को पैदा ही करना चाहिए, उन्हें कोख में ही मार देना चाहिए लेकिन क्यों? ये तो सबसे बड़ी हार होगी. इसमें लड़कियों का क्या दोष है? इन जानवरों से डरकर बच्चियों को पैदा न करने से क्या मिल जाएगा? हमने कुछ नहीं किया और हम जिएंगे. ये कानून और सिस्टम का फेलियर है कि वो हमें एक इंसान के तौर पर सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवा पा रहे.
इस बार इन मामलों को यूं ही नहीं जाने देना है. हर बार तो हम हारते ही है, एक बार तो हम ये महसूसना चाहते हैं कि इतनी दरिंदगी करने वाले जानवरों को जब फांसी दी जाती है तो कैसा लगता है. जब सख्त से सख्त कानून बनाए जाते हैं और उनका फायदा दिखता है तो कैसा लगता है. अभी कठुआ गांव और उन्नाव के वो परिवार हारे नहीं हैं, लड़ रहे हैं और न्याय मिलने तक लड़ते रहेंगे, हमें उनके साथ लड़ना है क्योंकि अब और नहीं झेला जाता.
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