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जल्लीकट्टू: कुछ तो रहम कीजिए मी लार्ड!

पूरे मामले में सबसे ज्यादा किरकिरी सुप्रीम कोर्ट की हुई है.

Akshaya Mishra

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के दो साल पुराने एक फैसले को बरकरार रखा. इस फैसले में दही-हांडी उत्सव में बनाए जाने वाले मानव-पिरामिड की ऊंचाई कम रखने को कहा गया था और नाबालिग लोगों को दही-हांडी के खेल में भाग लेने से मना किया गया था.

फैसला एकदम ठीक था. कोर्ट ने सदियों से चली आ रही रीत पर सीधे-सीधे रोक नहीं लगाई. कोर्ट ने मामले के सबसे जरूरी सवाल पर विचार किया- पिरामिड की उंचाई ज्यादा रहे तो उससे आदमी की जिंदगी खतरे में पड़ सकती है. दही-हांडी उत्सव का आयोजन करने वाले इस बात की अनदेखी कर रहे थे.


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जल्लीकट्टू पर कोर्ट का रुख कुछ अलग रहा. जल्लीकट्टू की परंपरा दो हजार साल से चली आ रही है और स्थानीय लोगों का कहना है कि यह खेल तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में बड़ा लोकप्रिय है. लेकिन कोर्ट ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया. कारण है कि सांढ़ को काबू में करने के लिए उसके साथ क्रूरता बरती जाती है.

तमिलनाडु में जल्लीकट्टू एक पारंपरिक खेल है

पशु-प्रेमियों का कहना है कि छुट्टे सांढ़ को गुस्सा दिलाने के लिए नौजवान उसपर कई तरह के अत्याचार करते हैं. सांढ़ के कान काटना, उसे शराब पिलाना या फिर उसके शरीर के कुछ चुनिन्दा हिस्सों पर चाकू से घाव करना इस खेल में आम बात है. निश्चित ही यह बेहद खराब बात है.

लेकिन क्या इस वजह से जल्लीकट्टू पर ही रोक लगा दी जाए? शायद कड़ाई से इतना भर कहना काफी होता कि पशु के साथ हिंसा का बरताव नहीं होना चाहिए. जानवर को कोई नुकसान न पहुंचे यह पक्का करने के लिए जिला प्रशासन और पुलिस को निर्देश दिए जा सकते थे. इससे विवाद का दोनों पक्षों के लिए संतोषजनक हल निकलता. अदालत के फैसले और जन भावना के बीच टकराव की नौबत नहीं आती. दुर्भाग्य कहिए कि जहां हथौड़े से बात बन सकती थी वहां कोर्ट ने पूरा बुलडोजर चला दिया.

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ऐसे टकराव से कोर्ट की नैतिक हैसियत कम होती है. दुर्भाग्य है कि कि हाल के दिनों में अपने असर से अनजान जान पड़ते अदालती फैसले लेने का चलन बढ़ा है. अगर तमिलनाडु की जनता अदालती फैसले को न माने तो क्या होगा? क्या होगा अगर सूबे की सरकार ही कह दे कि उसे अदालत का फैसला मंजूर नहीं है.

मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेलवम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करके मांग रखी है कि अदालत के फैसले को बेअसर करने के लिए अध्यादेश जारी किया जाए. प्रधानमंत्री का जवाब है कि मामले की अदालती सुनवाई चल रही है सो दखल देना ठीक नहीं होगा. अगर सरकार अध्यादेश जारी करने का फैसला लेती है तो माननीय अदालत की प्रभुता का क्या होगा? ऐसी स्थिति कतई अच्छी नहीं होती जब संस्थाएं खुद ही ऐसे अपनी साख पर प्रहार करें.

तमिलनाडु में जल्लीकट्टू पर बैन का विरोध जोरदार तरीके से हो रहा है. (पीटीआई)

देश का हर तीज-त्यौहार अपने साथ कुछ न कुछ सिरदर्दी का सामान लेकर आता है. पूजा के दौरान लाउडस्पीकर गरजते हैं, प्रतिमा-विसर्जन के समय ट्रैफिक की हालत खस्ता हो जाती है. लेकिन इन बातों का त्योहार के मूल भाव से कोई रिश्ता नहीं है. त्यौहार का मूल भाव अक्सर धार्मिक होता है. बहुत से लोगों को परेशानी होती है. परेशानी के मारे कुछ लोग अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं.

ज्यादा दिन नहीं हुए जब अदालत का फैसला आया था कि एक खास वक्त के बाद लाउडस्पीकर नहीं बजाया जा सकता. दीवाली के दिन ज्यादा शोर न हो, इसे लेकर भी एक सीमा निर्धारित की गई है. सिरदर्दी पैदा करने वाली ऐसी बातों पर रोक लगती है तो भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती. उल्टे लोग ऐसे कदमों की सराहना करते हैं.

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हालांकि छोटी-मोटी परेशानी को दूर करने के नाम पर पूरे के पूरे त्योहार पर ही रोक लगा दी जाए तो लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी नहीं रहेगी. रोक का फैसला तब सीधे लोगों की धार्मिक और अन्य भावनाओं पर चोट करता जान पड़ता है.

जल्लीकट्टू के साथ भी ऐसा ही हुआ.

तमिलनाडु की जनता जल्लीकट्टू को अपने इतिहास का हिस्सा मानती है, एक ऐसी परंपरा जो सदियों से जारी है. जल्लीकट्टू में वक्त बीतने के साथ कुछ बुराइयां आयी हैं, जैसे सांढ़ को चोट पहुंचाना. इन्हें रोकने के लिए कोई नियम बनता है तो लोग उसे मानेंगे. सांढ़ को चोट पहुंचाना जल्लीकट्टू का असल मकसद नहीं है. यह बहुत कुछ वैसा ही है जैसे कि त्योहार में लाउडस्पीकर बजाना. रोक लगाने की जगह ‘पेटा’(PETA) के कार्यकर्ताओं और कोर्ट को जल्लीकट्टू के इस पहलू पर विचार करना चाहिए था. महाराष्ट्र के दही-हांडी वाले मामले में जैसा आदेश दिया गया था, कुछ वैसा ही जल्लीकट्टू के मामले में कारगर होता.

पूरे मामले में सबसे ज्यादा किरकिरी सुप्रीम कोर्ट की हुई है. नतीजा चाहे जो निकले, आदेश को जनता के विरुद्ध माना जाएगा. जाहिर है कोई नहीं कह रहा कि अदालत जन-भावनाओं का ख्याल रखने के चक्कर में ऐसे आदेश सुनाए जिससे लगे कि एक न एक रुप में उसमें पक्षपात हुआ है लेकिन ऐसे मामलों में थोड़ी हमदर्दी और बुद्धिमानी से विचार किया जाए तो कहीं बेहतर होगा.