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'जरूरी है कि सेना प्रमुख रिटायरमेंट के 3 साल तक राजनीति से दूर रहे'

'देश में इमरजेंसी ने सैन्य तख्ता पलट की संभावना को लगभग खत्म कर दिया. जबकि इससे ठीक पहले 1971 की लड़ाई हुई थी.'

Animesh Mukharjee

कारगिल युद्ध के समय भारतीय सेना के जनरल वी पी मलिक का मानना है कि हमारे देश में सेना प्रमुख को रिटायर होने के कम से कम तीन साल तक किसी भी राजनीतिक गतिविधि से दूर रहना चाहिए. सेना के गैर-राजनीतिक चरित्र को बनाए रखने के लिए ऐसा करना जरूरी है. जनरल (रिटा.) मलिक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के साउथ एशिया कॉन्क्लेव में मौजूद थे. इस कॉन्क्लेव के एक सत्र का विषय था 'भारत में सेना और सिविल संबंध : आपसी बातचीत की कमी.'

सेना और सत्ता के संबंध दुनिया के तमाम देशों में अलग-अलग समय पर अलग-अलग तरीके से सामने आए हैं. सेना का मजबूत होना किसी भी देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है, लेकिन दुनिया के तमाम देशों में सेना मजबूत होने पर कई बार सत्ता पर कब्जा कर लेती है. आजादी के समय भारत-पाकिस्तान दोनों में लोकतंत्र था. देखते ही देखते पाकिस्तान में सेना न सिर्फ हद से ज्यादा ताकतवर हो गई बल्कि तख्ता पलट की आदी हो गई. वहीं भारत में स्थितियां इससे काफी अलग हैं.


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ताज मानसिंह होटल में हुए इस कॉन्क्लेव में इस विषय पर बात करने के लिए जनरल (रिटा.) मलिक के अलावा श्रीनाथ राघवन, कर्नल (रिटा.) अजय शुक्ला, सुशांत सिंह और अनित मुखर्जी थे. पूर्व सैन्य अधिकारी और अब असिस्टेंट प्रोफेसर अनित मुखर्जी ने इस विषय पर लंबी रिसर्च की है जो इस साल के आखिर तक किताब की शक्ल में भी आएगी.

भारत की आजादी और पश्चिम का नजरिया

भारत आजाद होने से पहले ब्रिटिश सरकार के बजट का सबसे बड़ा खर्च सेना का था. भारतीय सेना का चीफ ही रक्षा मंत्री होता था तो सेना के खर्च में कोई कमी नहीं थी. आजादी के तुरंत बाद के दस्तावेजों को खंगालने से पता चलता है कि दुनिया (खास तौर पर पश्चिमी देश) का मानना था कि आजाद भारत में कुछ ही एक दशकों में सेना सत्ता पर काबिज हो जाएगी. दक्षिण एशिया के देशों और उनमें मौजूद सैन्य संकट को देखते हुए ये बात गलत भी नहीं लगती. लेकिन भारत में लोकतंत्र की मजबूती बने रहने के पीछे कई कारकों ने काम किया. हालांकि इसके चलते सेना और सत्ता को एक दूसरे से कई समझौते भी करने पड़े.

सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत

कॉन्क्लेव की चर्चा में एक्सपर्टस का मानना ये भी था कि देश में इमरजेंसी ने सैन्य तख्ता पलट की संभावना को लगभग खत्म कर दिया. जबकि इससे ठीक पहले 1971 की लड़ाई हुई थी. सेना और सत्ता के बीच के संबंधों का पहला नमूना 1962 की लड़ाई में दिखा. यहां तालमेल की कमी भी दिखी. चर्चा में ये भी बात हुई कि इस तालमेल की कमी के वाजिब कारण थे. जब भारत आजाद हुआ तो कोई भी भारतीय अफसर ब्रिगेडियर स्तर से ऊपर नहीं था.

आजादी के बाद इन अफसरों को पूरी सेना की जिम्मेदारी संभालने के लिए अपेक्षाकृत कम समय मिला. 1962 में कई फैसले करने, कमांड के लिए सही अफसर चुनने, में कई गलतियां हुईं. लेकिन उस समय चुनने और फैसला करने के लिए कम ही विकल्प मौजूद थे. बाद के युद्धों में भारत में सेना और सत्ता दोनों ने इससे सबक लिया, जिसका नतीजा भी सामने आया.

हालांकि, वहां मौजूद सभी सैन्य जानकारों का मानना था कि देश में अब सेना से जुड़ी दूसरी चुनौतियां हैं. खतरा अब सेना के सत्ता पर कब्जा कर लेने का नहीं है बल्कि, सेना के गैर-राजनीतिक और सेक्युलर चरित्र में मिलावट का है. व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी से हो रहे प्रचार और सेना के नाम के जरिए हो रहे धार्मिक, राजनीतिक प्रचार से सबसे ज्यादा खतरा सेना को ही है.

फ़र्स्टपोस्ट के एक सवाल के जवाब में जनरल मलिक ने कहा कि देश ने कारगिल के नायकों को सम्मान दिया. उनका मानना है कि आज भी ज्यादातर लोग सेना और नायकों की वैसी ही इज्जत करते हैं जैसे करनी चाहिए. कुछ प्रतिशत हैं जो सेना और नायकत्व को गलत तरीके से भुनाने की कोशिश करते हैं मगर उनकी गिनती अभी भी कम है. वहीं, जनरल अशोक मेहता का कहना था कि आने वाले समय में सेना के राजनीतिकरण का खतरा हो सकता है.

जनरल मलिक ने फ़र्स्टपोस्ट से कहा कि कारगिल युद्ध के बाद उन्हें राजनीतिक पार्टी से जुड़ने के प्रस्ताव मिले थे लेकिन वो रिटायरमेंट के तुरंत बाद किसी पार्टी का चेहरा नहीं बनना चाहते थे. इसके साथ ही उनकी हमेशा कोशिश रही कि कारगिल की जीत या सेना की उपलब्धि का राजनीतिक इस्तेमाल न हो.

सेना और सत्ता की लगातार बनी हुई परेशानियां

जनरल मलिक ने सेना और सत्ता के बीच बातचीत की कमी को लेकर कई बातें कहीं. उन्होंने बताया कि 1999 में देश के सामने जो स्थिति थी, आज भी लगभग वही हाल हैं. पॉलिसी बनाने के स्तर पर सेना और सत्ता में संवाद नहीं है. बड़े अफसरों के प्रमोशन और ट्रांसफर में रक्षा मंत्रालय का खासा दखल रहता है. कई मंत्री और ब्यूरोक्रैट अक्सर डिफेंस प्लानिंग में शामिल होते हैं जबकि कई बार उन्हें विषय की जानकारी नहीं होती है.

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इसके साथ ही सेना की किस टुकड़ी को कहां लगाया जाए और कहां कब सीजफायर हो, जैसे फैसलों में भी सेना का दखल कम रहता है. युद्ध, किसी आपदा जैसी स्थिति में बातचीत और तालमेल दिखता है लेकिन स्थिति सामान्य होते ही हालात पहले जैसे हो जाते हैं. इससे मुश्किलें पैदा होती हैं और आने वाले समय में इससे समस्याएं और बढ़ेंगी. कई मामलों में सेना की ऑटोनॉमी कम हो रही है. उदाहरण के लिए कैंट रोड पर तमाम ऑनलाइन डिलीवरी वालों के जरिए कोई भी आ-जा सकता है.

भारत में युद्ध देखने वाले 5 प्रधानमंत्री हुए हैं- नेहरू (1962), शास्त्री (1965), इंदिरा गांधी (1971), राजीव गांधी (श्रीलंका) और वाजपेयी (कारगिल). इन सभी के समय सेना और सिविल सोसायटी का तालमेल देखा गया. लेकिन कारगिल के समय संवाद की जो समस्याएं थीं वो आज भी बनी हुई हैं. जनरल (रिटा.) मलिक के मुताबिक सेना प्रमुख का ज्यादातर समय अपने साथी अधिकारियों और मंत्रालयों के बीच बातचीत सुलझाने में ही निकल जाता है. कुल मिलाकर सेना और सत्ता दोनों की महारत अलग-अलग कामों में है. सेना और सत्ता के बीच के संबंधों की समय-समय पर समीक्षा होती रहनी चाहिए.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)