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डॉ. राम मनोहर लोहिया को भारत रत्न न मिलना सरकारों से ज्यादा समाजवादियों की नाकामी

डॉ.राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद सत्ता को ध्येय में रखने वाले समाजवादी चुनाववादी हो गए, उसी प्रकार सत्ता की राजनीति से दूर रहने वाले समाजवादी मानों अभी तक डॉ.लोहिया का पातक मना रहे हैं.

Abhishek Ranjan Singh

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर केंद्र सरकार ने देश के सर्वोच्च नागरी सम्मान ‘भारत रत्न’ की घोषणा की. जिन तीन शख्सियतों को यह सम्मान प्राप्त हुआ, उनमें समाजसेवी नानाजी देशमुख, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रख्यात गायक भूपेन हजारिका शामिल हैं. सम्मान की घोषणा होते ही इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जाने लगे. कुछ हल्के, दुर्भावना से प्रेरित तो कुछ बेहद सटीक व तार्किक. ‘भारत रत्न’ या ‘पद्म’ सम्मानों को लेकर पहली बार इस तरह की प्रतिक्रियाएं नहीं आई हैं। इसे लेकर पूर्व में भी सवाल उठते रहे हैं. वर्ष 1954 में पहली बार देश के तीन महापुरूषों क्रमशः सी.राजगोपालचारी,सर्वपल्ली राधाकृष्णन और सी.वी.रमन को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. ‘भारत रत्न’ से सम्मानित होने वाले शख्सियतों की कुल संख्या 2019 की घोषणा के बाद 48 हो गई है.

भारत रत्न सम्मान में निष्पक्षता जरूरी


हम ऐसा नहीं कह सकते कि अब तक जिन व्यक्तियों को यह सर्वोच्च सम्मान मिला है,उनमें सभी इसके योग्य ही थे. लेकिन सच तो यह भी है कि कई महापुरुष जिन्हें यह सम्मान मिला है वे वाकई इसकी पात्रता रखते थे. लेकिन इसे लेकर जिस प्रकार की बहसें या सतही चर्चा हो रही हैं, वह ‘भारत रत्न’ जैसे प्रतिष्ठित नागरी सम्मान की मर्यादा बढ़ा तो नहीं रही. बल्कि रोजमर्रा की घटनाक्रमों की तरह गंभीर विमर्श की मांग करने वाले मुद्दों को भी गैरसंजीदा बना रही हैं. हमारे कई ऐसे महापुरुष हैं जिन्हें अभी तक ‘भारत रत्न’ से विभूषित नहीं किया गया है.

अमूमन ‘भारत रत्न’ के ऐलान के बाद हमें अपने महापुरुषों की याद आती है लेकिन उसके बाद में वर्षों तक खामोशी छाई रहती है. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य जी.बी. कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले कई महापुरुषों को अब तक ‘भारत रत्न’ से सम्मानित नहीं किया गया है. जबकि देश के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है.

डॉ.लोहिया को क्यों मिलना चाहिए भारत रत्न

कुछ वर्षों से डॉ. राममनोहर लोहिया को ‘भारत रत्न’ से अंलकृत करने की मांग हो रही है. डॉ. लोहिया के निधन को पचास वर्ष से अधिक हो गए. करोड़ों की संख्या में उनके अनुयायी भारत समेत अन्य देशों में हैं. डॉ.लोहिया अक्सर कहा करते थे, ‘किसी व्यक्ति की महानता का सही आकलन तो उसकी मृत्यु के सौ वर्षों बाद संभव है. जो तात्कालिक प्रभाव और राजनीतिक समीकरणों से सम्मानित होता है वे बहुत शीघ्र ही जनता की स्मृति से विस्मृत हो जाते हैं’. इसलिए डॉ. लोहिया जैसे देशभक्त और विचारकों का सम्मान और उनकी प्रासंगिकता ज्यों-ज्यों समय बीतता जाएगा और अधिक होगी. लेकिन यह सवाल तो लाजिमी है कि क्या मृत्यु के आधी सदी बाद भी डॉ.लोहिया को ‘भारत रत्न’ नहीं मिलना चाहिए? यह एक सरकारी नागरी सम्मान है अगर कोई सरकार अपने महापुरुषों को सम्मानित करती है तो इससे सम्मान और सरकारें दोनों गौरवान्वित होती हैं.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से लेकर आजाद भारत में डॉ.लोहिया के संघर्षों की अनगिनत किस्से हैं. उसे समग्र रूप से दोहराने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं कि डॉ.लोहिया एक मौलिक चिंतक थे. राजनीति में रहते हुए भी राजनीति के संगदोष से वह मुक्त रहे.

भारत की आजादी की लड़ाई की बात हो या गोवा मुक्ति संग्राम की, इसमें डॉ. लोहिया ने जो किरदार निभाया देश उसका ऋणी है. यहां तक कि नेपाल और बर्मा में लोकतंत्र की बहाली के लिए जो प्रयास उन्होंने किया भला उसे कौन भुला सकता है? जब देश के विभाजन का मसौदा तैयार हो गया और उसके नतीजे में देश जब सांप्रदायिकता की आग में जल रहा था. तब डॉ.लोहिया दंगे की आग में जल रहे पूर्वी बंगाल में गांधी जी निर्देश पर शांति अभियान में जुटे थे. जबकि उनके समकालीन कई नेता विभाजित भारत की नई सरकार में अपनी मुकम्मल भागीदारी सुनिश्चित करने में जुटे थे. डॉ. लोहिया भारतीय उपमहाद्वीप के पहले ऐसा नेता थे, जिन्होंने तिब्बत की आजादी का प्रश्न उठाया था. तिब्बत पर चीन के कब्जे को उन्होंने बर्बर और अन्यायपूर्ण करार देकर विश्व का ध्यान दिलाया.

अगर देखा जाए तो स्वतंत्रता से पूर्व और उसके बाद जब तक डॉ.लोहिया जीवित रहे तब तक गैर-बराबरी और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते रहे. राजनीति की शुचिता की बात हो या किसानों, मजदूरों, छात्र-नौजवानों, स्त्रियों या फिर देश की कला,संस्कृति और इतिहास के संरक्षण और बेहतरी की. इन सबके प्रति उनका आग्रह अनुकरणीय था.

बिहार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं के साथ डॉ. लोहिया. साथ में कर्पूरी ठाकुर

डॉ. लोहिया कर्मकांड के विरोधी थे लेकिन भारत की संस्कृति को वे किसी भी बड़े धार्मिक आयोजन से अधिक महत्व देते थे. महात्मा गांधी ने ‘रामराज्य’ की कल्पना की थी, किंतु डॉ.लोहिया राम में मर्यादा की प्रतिष्ठापना एवं राज्य सुशासन का भाव देखते थे. इसीलिए उनका स्मरण जनसाधारण में बना रहे इसके लिए उन्होंने ‘रामायण मेला’ को वैश्विक स्तर पर मनाने की कल्पना की थी.

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1951 में कागोडू किसान सत्याग्रह का सफल निर्देशन करने वाले डॉ.लोहिया का मानना था कि राजनीतिक आजादी का मिलना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. जब तक कि देश में असमानता और सामाजिक बुराइयां खत्म न हों.

सरकारों से ज्यादा समाजवादी हैं लोहिया के गुनहगार

पिछले साल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री को खत लिखकर डॉ. राममनोहर लोहिया को ‘भारत रत्न’ देने की मांग की. वहीं लालू प्रसाद और मुलायम सिंह जैसे समाजवादी नेताओं ने इस बाबत कभी रुचि नहीं दिखाई.

हालांकि सवाल तो नीतीश कुमार से भी पूछा जाना चाहिए कि गांधी और लोहिया के प्रति उनका प्रेम पिछले दो-तीन वर्षों से ही क्यों दिख रहा है? अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब वह केंद्र सरकार में मंत्री थे, तब तो कभी उन्होंने डॉ.लोहिया को ‘भारत रत्न’ से विभूषित करने की मांग नहीं की. लेकिन अब उन्हें डॉ.लोहिया किन वजह और परिस्थितिवश याद आ रहे हैं? 26 जनवरी को ‘भारत रत्न’ की घोषणा के बाद आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव ने ट्वीट कर इसका स्वागत किया. साथ ही केंद्र सरकार से उन्होंने डॉ.लोहिया को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने की मांग की.

लेकिन सवाल तो यहां राष्ट्रीय जनता दल की मंशा पर भी उठते हैं. कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में दस वर्षों तक आरजेडी शामिल रही और लालू प्रसाद उसमें कैबिनेट मंत्री भी रहे. लेकिन इस दौरान कभी भी उनकी तरफ से डॉ.लोहिया, कर्पूरी ठाकुर और ज्योतिबा फुले जैसे महापुरुषों को ‘भारत रत्न’ दिए जाने संबंधी कोई मांग नहीं उठी. जबकि उस सरकार में आरजेडी की इतनी हैसियत तो जरूर थी कि वह इस बाबत मनमोहन सरकार पर दबाव बना सकती थी.

दरअसल,सच्चाई तो यह है कि समाजवादी पृष्ठभूमि से जुड़ी पार्टियां जब सत्ता में या उसकी भागीदार होती हैं, तब उन्हें डॉ.लोहिया याद नहीं आते. लेकिन जब विपक्ष में होते हैं तब उन्हें अपने महानायकों के सम्मान की चिंता ज्यादा होती है.

अगर आरेजडी के लिए डॉ.लोहिया इतने ही प्रेरक व्यक्तित्व होते तो इन दलों की अधिकृत वेबसाइट पर डॉ.लोहिया की तस्वीरों के साथ-साथ उनके महत्वपूर्ण विचार होते न कि इसका नब्बे फीसद हिस्सा राजद प्रमुख, उनकी पत्नी, उनके बेटे-बेटी की तस्वीरों के लिए आरक्षित होता. क्या यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि इनमें थोड़ी सी जगह तो कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी नेताओं को भी मिलनी चाहिए?

वैसे समाजवादी जो सत्ता की राजनीति से दूर हैं, उनमें कई लोगों का मानना है कि डॉ.राममनोहर लोहिया पूरे उपमहाद्वीप में एक प्रखर विचारक और मौलिक चिंतक के रूप में शुमार हैं. उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करना उनके मान को कम करना है. कई ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि इस सरकार के हाथों उन्हें मरणोपरांत सम्मानित करना एक लिहाज से उनका अपमान होगा.

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ये दोनों की तर्क खोखले और पलायनवादी सोच की तरफ इशारा करते हैं। एक सवाल तो उन समाजवादियों से भी पूछा जाना चाहिए कि- सत्ता की राजनीति से अलग रहकर उन्होंने डॉ. लोहिया के विचारों को आगे बढ़ाने में क्या योगदान दिया है? दिल्ली और राज्यों की राजधानियां स्थित वातानुकूलित सभागारों में सिर्फ लोहिया को याद कर लेने और चंद सरकारों की मौखिक आलोचना के अलावा और कौन सा काम किया है ?

लोहिया साहित्यों का संरक्षण क्यों नहीं?

इस सवाल का उत्तर भी सत्ता वाले और बिना सत्ता वाले समाजवादियों को देना पड़ेगा कि डॉ.लोहिया द्वारा लिखित कई महत्वपूर्ण किताबें मसलन, ‘सिविल नाफरमानी : सिद्धांत और अमल’, ‘संपूर्ण और संभव बराबरी’, ‘कर्म, अनुशासन और संगठन’, ‘नया समाज-नया मन’, ‘जनतंत्र में गोलीकांड’, ‘वाल्मिकी और वशिष्ठ’, ‘इलेक्शन लॉज एंड प्रैक्टिसेस इन इंडिया’ आदि किताबों एवं दस्तावेजों का पुनर्मुद्रण नहीं कराए जाने का जिम्मेदार कौन है?

इटावा में डॉ.लोहिया की एक दुर्लभ छवि ( खाट पर उनके साथ बैठे हैं कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया) उनके ठीक पीछे खड़े हैं मधु लिमये.

लोहिया के इन सभी ऐतिहासिक साहित्यों का आज कहीं कोई अता-पता नहीं है. क्या डॉ.लोहिया के साहित्य एवं उनके विचारों को देश की नई पीढ़ी से अवगत कराने की जिम्मेदारी उन पर नहीं थी. वैसे समाजवादी जो लोहिया के समकालीन थे उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी लोहिया की वैचारिकी को सहेजने का काम बखूबी किया. उनमें हैदराबाद के बदरीविशाल पित्ती, कलकत्ता में दिनेश दासगुप्ता, ठाकुर जमुना सिंह, बालकृष्ण गुप्त,अशोक सेकसरिया, योगेंद्रपाल सिंह, विजय ढांढनिया, भोजपुर में राम इकबाल सिंह वरसी, दिल्ली में डॉ.हरिदेव शर्मा और अध्यात्म त्रिपाठी आदि समाजवादी प्रमुख हैं, जो अपने आखिरी समय तक लोहिया के साहित्य व उनके विचारों को संरक्षित करने और उसे जन-जन तक पहुंचाने की कोशिशों में जुटे रहे. उस पीढ़ी के समाजवादियों में राजनीतिक पद की लालसा कभी नहीं रही, लेकिन आज के समाजवादियों का सारा ध्येय सत्ता केंद्रित है. किसी तरह सरकार बनाना या सत्ता में भागीदार बने रहना ही जैसे उनके लिए एकमात्र लक्ष्य रह गया हो.

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दूरदर्शन और फिल्म डिवीजन में लोहिया के वीडियो फुटेज नहीं

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आकाशवाणी के मुख्य अभिलेखागार में डॉ.लोहिया के सिर्फ दो ऑडियो भाषण ही संरक्षित हैं. जबकि दूरदर्शन और फिल्म डिवीजन में उनका कोई वीडियो फुटेज उपलब्ध नहीं है. जबकि डॉ.लोहिया से वरिष्ठ और समकालीन कई भारतीय नेताओं से जुड़ी सामग्रियां कमोबेश मौजूद हैं.

इसे महज इत्तेफाक कहकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है. अगर इस दुर्भाग्य के लिए तत्कालीन सरकारें दोषी हैं तो उससे कहीं ज्यादा गुनहगार डॉ. लोहिया के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वाले समाजवादियों भी हैं. 1932-33 में डॉ. राममनोहर लोहिया ने जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की. उनके शोध प्रबंध का विषय था-भारत में ‘नमक कर और गांधी का सत्याग्रह’. लेकिन उनका यह ऐतिहासिक शोध प्रबंध हम्बोल्ट विश्वविद्यालय से गायब है. लेकिन लोहिया के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वाले उनके अनुयायियों को शायद ही इस बारे में कोई जानकारी हो?

दरअसल, डॉ.राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद सत्ता को ध्येय में रखने वाले समाजवादी चुनाववादी हो गए, उसी प्रकार सत्ता की राजनीति से दूर रहने वाले समाजवादी मानों अभी तक डॉ.लोहिया का पातक मना रहे हैं. डॉ.लोहिया की मृत्यु के बाद उनकी अप्रकाशित रचनाओं का संग्रह किया जाना जरूरी था. लेकिन इस दिशा में कोई खास प्रयास नहीं हो रहा है.