'यहां सआदत हसन मंटो दफन है. उसके सीने में फ़ने-अफ़सानानिगारी के सारे इसरारो रमूज़ दफ़न हैं- वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे दबा सोच रहा है, कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा !'
18 जनवरी... यह मंटो की पुण्यतिथि है. ऐसे में ‘कतबा’(समाधि-लेख) के नाम से लिखे गए ये लफ़्ज कहानीकार मंटो के चाहनेवालों को बेसाख्ता याद आएंगे. मौत की नजदीक आती आहट को भांपकर ही लिखी होगी मंटो ने ये बात! ‘कतबा’ 18 अगस्त 1954 को लिखा गया. इसके ठीक पांच महीने बाद लाहौर के हॉल रोड के एक अपार्टमेंट (31, लक्ष्मी मैन्शंज) में ‘मंटो’ नाम की बेचैन रूह ने हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया.
अजब यह कि मंटो की कब्र पर वह ना लिखा गया जो उन्होंने चाहा था. उनकी कब्र पर जो लिखा मिलता है वो कुछ यों है: 'यह सआदत हसन मंटो की कब्र है जो अब भी समझता है कि उसका नाम लौह-ए-जहां पे हर्फ-ए-मुकर्रर नहीं था.'
एक सवाल
सवाल उठता है- जो कतबा मंटो ने अपनी कलम से लिखा और जो कतबा उनकी कब्र पर लिखा गया- उनमें फर्क क्यों है ?
एक जवाब तो यही होगा कि ‘फर्क बस कहने भर को है’ या फिर यह कि ‘फर्क देखने का मतलब होगा बाल की खाल निकालना.’ मंटो के लिखे कतबे में उनके बेमिसाल कथाकार होने का ऐलान है और कब्र पर लिखे कतबे में भी उनके इसी यकीन को दर्ज किया गया है कि मंटो जैसा कोई दोबारा ना होगा दुनिया में.
काश! मसला इतना सीधा होता ! बात चाहे मंटो के अफ़सानों की हो या मंटो की जिंदगी और मौत की- उनमें सीधा-सपाट कुछ भी नहीं है. ऐसा होता तो मंटो अपनी कहानियों को लेकर हो रहे चर्चे के बारे में ये ना कहते:
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‘पहले तरक़्क़ीपसंद मेरी तहरीरों को उछालते थे कि मंटो हममें से है. अब यह कहते हैं कि मंटो हम में नहीं है. मुझे ना उनकी पहली बात का यक़ीन था, ना मौजूदा पर है. अगर कोई मुझसे पूछे कि मंटो किस जमायत में है तो अर्ज़ करूंगा कि मैं अकेला हूं…’
मंटो की कब्र और सियासत
मंटो की लिखी फिल्म मिर्ज़ा ग़ालिब(1954) उनके मौत के वक्त सिनेमाघरों में खूब शोहरत बटोर रही थी. मिर्ज़ा ग़ालिब का ही एक शेर है:
या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए।
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूं मैं।।
तो, यों कहें कि लाहौर में बनी मंटो की कब्र पर इसी शेर की छाया है. ‘लौह-ए-जहां’ के मायने हुए संसार रूपी तख्ती और जिसे दोबारा लिखा जाए वह ‘हर्फ-ए-मुकर्रर’ कहा जाता है. सो, ग़ालिब के शेर का एक अर्थ हुआ कि मनुष्य अपने अस्तित्व में अनूठा होता है और उसे दोहराया नहीं जा सकता. लेकिन बात एक शेर में अदा हुई और कहने वाला शायर है तो यों समझें कि यहां शायर अपने अनूठेपन (अद्वितीय) की दलील पेश कर रहा है.
इतने भर से शेर का अर्थ नहीं खुलेगा- साथ में यह भी याद रखना होगा कि यह शेर इस्लामी मान्यताओं के भीतर आकार लेता है. इस्लाम में ‘पुनर्जन्म’ की धारणा नहीं है. सो, ‘हर्फ-ए-मुकर्रर’ में यह मायने भी पेवस्त है कि मनुष्य (जाहिर है, इस्लाम में आस्था रखने वाला) का दुनिया से जाना एक बार के लिए होता है और वही अंतिम होता है- फिर उसका कोई पुनर्जन्म नहीं है इस फ़ानी(नश्वर) दुनिया में.
ग़ालिब के शेर में बंधी यह इस्लामी मान्यता सोचने पर बाध्य करती है: क्या दो धर्म और दो कौम के सिद्धांत पर बने पाकिस्तान में मंटो की कब्र के साथ कोई सियासत हुई? क्या चाहे-अनचाहे अफसानानिगारी के फ़न को नहीं, बल्कि उनकी मुस्लिम पहचान को पाकिस्तान में ज्यादा तरजीह दी गई – क्या मंटो के कथाकार होने से ज्यादा अहम उनके मुसलमान होने को माना गया ?
मंटो पाकिस्तान में
तकरीबन साढ़े छह दशक गुजर चुके मंटो को दुनिया से कूच किए. लेकिन यह बहस अब भी जारी है कि आखिर 1948 में वे पाकिस्तान क्यों जा बसे ? पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के विद्वानों में कोई सीधे-सीधे कह देता है कि ‘मंटो मुस्लिम थे और इस नाते पाकिस्तानी भी, सो पाकिस्तान आ बसे’ तो कोई घुमा-फिराकर कहता है कि दरअसल ‘बंटवारे के बाद मंटो को लगने लगा था कि हिंदुस्तान उनके रहने-बसने के लिए अब सुरक्षित जगह नहीं रह गई, सो वे पाकिस्तान आ बसे ’.
छह साल पहले पाकिस्तान के अखबार ‘डॉन’ में इस मसले पर एक रोचक बातचीत छपी थी. उसमें ये दोनों बातें (मंटो का स्वाभाविक मुल्क पाकिस्तान तथा मंटो का मजबूरी में चुना हुआ मुल्क पाकिस्तान) लिखी मिल जाती हैं.
मजे की बात यह कि पाकिस्तान में ऐसा कहने-सोचने वाले एक खास किताब के कुछ अंशों को अपनी बात के सबूत के तौर पर पेश करते हैं. मंटो के लिखी यह मशहूर किताब (संस्मरण) है ‘मीनाबाजार’ और इसमें एक जिक्र आता है पुराने जमाने के अभिनेता श्याम (पूरा नाम सुंदर श्याम चड्ढा, हाल की मंटो फिल्म में यह किरदार ताहिर राज भसीन ने निभाया है) का. सियालकोट में जन्मे श्याम मंटो के जिगरी दोस्त थे और मंटो ने मीनाबाजार में उन्हें याद करते हुए एक जगह लिखा है:
‘काफी दिन बीत चुके जब हिंदू और मुसलमानों में खूंरेजी तारी थी और दोनों ओर से हजारों आदमी रोजाना मरते थे, श्याम और मैं रावलपिंडी से भागे हुए एक सिख परिवार के पास बैठे थे. उस कुनबे के व्यक्ति अपने ताजा जख्मों की कहानी सुना रहे थे जो बहुत ही दर्दनाक थी.श्याम प्रभावित हुए बिना ना रह सका. वह हलचल जो उसके दिमाग में मच रही थी, उसको मैं अच्छी तरह समझता था. जब हम वहां से विदा हुए तो मैंने श्याम से कहा- 'मैं मुसलमान हूं, क्या तुम्हारा जी नहीं चाहता कि मेरी हत्या कर दो?' श्याम ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, 'इस समय नहीं, लेकिन उस समय जब, जब मैं मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार की दास्तान सुन रहा था, तुम्हें कत्ल कर सकता था!' श्याम के मुंह से यह सुनकर मुझे जबर्दस्त धक्का लगा...’
आगे यह जिक्र भी आता है कि मुंबई (तब बंबई) में ‘सांप्रदायिक तनातनी रोजाना बढ़ती जा रही थी और बंबई टॉकीज (मंटो ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी छोड़ने के बाद यहां मुलाजिम हो गए थे) का इंतजाम जब अशोक (प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार) और वाचा (फिल्म प्रोड्यूसर सावक वाचा) ने संभाली तो बड़े बड़े पद संयोग से मुसलमानों के हाथ में चले गए. इससे बंबई टॉकीज के हिंदू स्टाफ में घृणा और क्रोध की लहर दौड़ गई. गुमनाम पत्र प्राप्त होने लगे जिनमें स्टुडियो को आग लगाने और मरने-मारने की धमकियां होती थीं...’
तो क्या मंटो मुसलमान होने के नाते सचमुच हिन्दुस्तान को अपने लिए असुरक्षित मानकर पाकिस्तान जा बसे, जैसा ‘मीनाबाजार’ में आए इस जिक्र से लग सकता है?
...तो क्या मंटो हिंदुस्तान में रहते?
‘ना, ऐसा नहीं कह सकते’- हिन्दुस्तान के मंटो-प्रेमी इस सवाल के जवाब में यही कहते हैं. वे आपको ऐसा कहने के ढेर सारे कारण गिनाते हैं जिनमें जोर मंटो के मजहब और सियासत पर नहीं बल्कि निजी जिंदगी की जरूरतों पर होता है.
मसलन यह कहा जाता है कि मंटो तुनकमिजाज थे, किसी एक जगह टिककर नौकरी नहीं कर पाते थे. उपेन्द्रनाथ अश्क से झगड़ा हुआ हुआ तो ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी छोड़ी और बंबई टॉकीज की मुलाजमत कर ली और बंबई टॉकीज में जब उनकी लिखी कहानी पर फिल्म बनाने से पहले कमाल अमरोही की फिल्म (‘महल’) और शाहिद लतीफ (इस्मत चुगताई के शौहर और 1949 की फिल्म जिद्दी के निर्देशक) की फिल्म को तरजीह दी गई तो नाराज हो गए- सोच लिया कि अब बंबई टॉकीज की मुलाजमत नहीं करनी- जीविका लाहौर में ढूंढनी है.
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हिन्दुस्तान में आपको कुछ मंटो-प्रेमी यह कहते हुए भी मिल जाएंगे कि दरअसल मंटो के पाकिस्तान जा बसने के पीछे पारिवारिक मजबूरी थी. पत्नी सफिया अपनी तीन बेटियों के साथ लाहौर चली गई थीं, वहां घर ढूंढ लिया था और शौहर के पास लगातार चिट्ठियां आ रही थीं कि लाहौर चले आओ- मंटो की जिंदगी का एक पक्ष यह भी है कि उन्हें अपने परिवार से बड़ा प्रेम था, सो वे पाकिस्तान जा बसे.
एक तर्क यह भी दिया जाता है कि बेशक मंटो पाकिस्तान जा बसे थे लेकिन उनका जी वहां लगता नहीं था. जिन्दगी के आखिर के सालों में उन्होंने इस्मत चुगताई (उर्दू की मशहूर कहानीकार) को कई चिट्ठियां लिखीं कि ‘कोई इंतजाम करो और मुझे हिंदुस्तान बुला लो’ मगर तब तक काफी देर हो चुकी थी- मंटो की जिंदगी के कुछ ही दिन शेष रहे गए थे. इस तर्क के जरिए जताया यों जाता है कि मंटो पाकिस्तान भले जा बसे हों लेकिन आखिर को लौटना हिंदुस्तान ही चाहते थे- सेहत ने साथ ना दिया वर्ना उनका स्वाभाविक मुल्क तो हिंदुस्तान ही को होना था !
मंटो का मुल्क और ‘नो मैन्स लैंड’
जाहिर है, मंटो के बारे में आज भी तय नहीं हो पाया है कि उनका स्वाभाविक मुल्क पाकिस्तान को होना था या हिंदुस्तान को. तर्क दोनों ही तरफ से दिए गए हैं और उन पर यकीन करने वालों की एक बड़ी जमात भी है. कोई तर्क यकीन में बदल जाए तो उसे खारिज करना मुश्किल होता है. लेकिन जरा ये सोचें कि इन तर्कों को मंटो सुनते तो उनका क्या जवाब होता ?
मंटो का जवाब उनकी लिखी कहानियों और चिट्ठियों में दर्ज है. लेकिन मुल्कों को बांटने वाले सरहद के इस पार या उस पार खड़े होकर सुनने-देखने के कारण उस जवाब की अक्सर अनदेखी की गई. याद करें, मंटो की मशहूर कहानी टोबा टेक सिंह के किरदार बिशन सिंह की मौत का जिक्र - ‘उधर खरदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान, दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था.
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और, ये मानने की वजहें हैं कि दो मुल्कों के बीच दरम्यानी जगह खोजता एक ‘बिशन सिंह’ खुद मंटो के भीतर मौजूद था.
याद करें उन नौ चिट्ठियों को, जिसे मंटो ने सुई चुभोने वाले अपने खास अंदाज में ‘अंकल सैम’ के नाम (ये चिट्ठियां 1951 से 1954 के बीच लिखी गईं. उस दौर में अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और आइजनहावर थे) लिखी थीं. इन चिट्ठियों में एक जगह आता है:
‘जिस तरह मेरा मुल्क (पाकिस्तान) कटकर आज़ाद हुआ, उसी तरह मैं कटकर आज़ाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे हमादान आलिम से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए कि जिस परिंदे को पर काटकर आज़ाद किया जाएगा, उसकी आज़ादी कैसी होगी.’
अपने को परकटा परिंदा क्यों कहा मंटो ने? यह भी अंकल सैम के नाम लिखी चिट्ठियों में दर्ज है: ‘मैं एक ऐसी जगह पैदा हुआ था जो अब हिंदुस्तान में है- मेरी मां वहां दफ़न है, मेरा बाप वहां दफ़न है, मेरा पहला बच्चा भी उसी ज़मीन में सो रहा है जो अब मेरा वतन नहीं- मेरा वतन अब पाकिस्तान है, जो मैंने अंग्रेज़ों के ग़ुलाम होने की हैसियत से पांच-छह मर्तबा देखा था.’
जिंदगी के जो साल (1948-1955) पाकिस्तान में गुजरे उनके बारे में ये लिखा मिलता है : ‘मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूं. यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है.. मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूं.’
बेचैनी की वजह खोजना मुश्किल नहीं है. एक कलाकार के रूप में मंटो को लगता था, हिंदुस्तान और पाकिस्तान उनकी कला की परवाज़ को रोकने वाली जगहें साबित हुई हैं- ‘मैं पहले सारे हिंदुस्तान का एक बड़ा अफ़सानानिगार था, अब पाकिस्तान का एक बड़ा अफ़सानानिगार हूं..सालिम हिंदुस्तान में मुझ पर तीन मुक़दमे चले और यहां पाकिस्तान में एक, लेकिन इसे अभी बने कै बरस हुए हैं.’
मुल्कों का होना मनुष्यता के लिए एक कटघरे से ज्यादा नहीं- यह मंटो ने होश में रहकर जाना था और अपनी नीम-बेहोशी में भी. मीनाबाजार के जिस संस्मरण (‘श्याम’) के आधार पर उनका मुल्क पाकिस्तान ठहराया जाता है उसे खूब गौर से पढ़ना चाहिए. इसकी शुरुआत में ही दर्ज है: ‘कुछ समझ में नहीं आता था कि होशमंदी का इलाका कहां से शुरू होता है और मैं बेहोशी की दुनिया में कब पहुंचता हूं. दोनों की सीमाएं कुछ इस तरह गड्ड-मड्ड हो गई थीं कि मैं खुद को नो मैन्स लैंड में भटकता हुआ महसूस करता था.’
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