इस सवाल को सीधा पूछा जाए. आखिर उमर खालिद और शेहला राशिद को रामजस कॉलेज में आयोजित सेमिनार में क्यों नहीं बोलने दिया गया? क्या कॉलेज प्रशासन ने एबीवीपी को लेक्चर के बीच बाधा पहुंचाने से रोकने के लिए पर्याप्त कदम उठाए थे?
ये तमाम सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं. खासकर, तब जबकि हमारे देश के कॉलेजों के कैंपस में बड़ी तेजी से दबाव और धमकी की संस्कृति अपनी जड़ मजबूत करने लगी है.
ये मामला बस पहले से आयोजित सेमिनार में दो लोगों को उनके विचार व्यक्त करने से रोक देने का ही नहीं है. बल्कि ये मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का है.
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वैचारिक मतभेद ठीक है. हर व्यक्ति अपनी राय रखने को स्वतंत्र है. लेकिन क्या सभी चीजें बेढंगे शक्ति प्रदर्शन के स्तर पर आकर तय होंगी? दुर्भाग्य से देश की सियासत में ऐसा होने लगा है.
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कॉलेज कैंपस में भी ऐसे हालात पनपने लगें. अगर ये हताशा में किया गया एक आग्रह लगता है तो लगे, हम इससे भाग नहीं सकते.
क्योंकि रामजस कॉलेज में जो विवाद जारी है वो इसी खतरनाक ट्रेंड की कड़ी का अगला हिस्सा है. जेएनयू में पिछले साल 9 फरवरी को जो हुआ था वो कभी भूला नहीं जा सकता.
सेमिनार रद्द
जो इस बात को नहीं जानते कि तब कॉलेज को एक सेमिनार रद्द करना पड़ा था. क्योंकि इस सेमिनार में राशिद और खालिद को वक्तव्य देने के लिए बुलाए जाने पर तब एबीवीपी ने विरोध किया था.
खालिद जेएनयू का छात्र है. वो चर्चा में तब आया जब पिछले वर्ष उसने कॉलेज में एक मीटिंग का आयोजन किया था और इसी मीटिंग में 2001 संसद पर आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु के पक्ष में नारेबाजी की गई थी.
देशद्रोह के आरोप में उसकी गिरफ्तारी हुई थी. जबकि राशिद वामदल समर्थित ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एआईएसए) का सदस्य है. राशिद छात्र और यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई को लेकर किए जाने वाले विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहा था.
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खालिद को बुधवार और राशिद को गुरुवार को सेमिनार में बोलना था. लेकिन जो विवाद कल से शुरू हुआ था उसे लेकर बुधवार को थोड़ी बहुत हिंसा भी हुई.
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक एआईएसए और एबीवीपी के सदस्यों के बीच झपड़ होने से करीब 20 छात्र घायल हो गए.
दिलचस्प बात तो ये है कि सेमिनार में चर्चा का विषय ‘कल्चर ऑफ प्रोटेस्ट’ था. लेकिन, रामजस कॉलेज में जो भी कुछ हुआ वो विरोध की स्वस्थ संस्कृति को बढ़ावा नहीं देती है.
अब तक इस तरह के विवाद कैसे बढ़ते हैं इसका तय फॉर्मेट होता है. पहले कैंपस में होने वाले किसी आयोजन में किसी की मौजूदगी को लेकर एक छात्र संगठन विरोध करते हैं.
फिर यही लोग हिंसा और उग्र आचरण करने लगते हैं फिर जबकि कॉलेज प्रशासन बचाव की मुद्रा में आ जाता है और ऐसे संगठनों के आगे मजबूर होकर उनकी मांगे मान लेता है.
विजिलेंट ग्रुप का वार
ये ठीक उसी तरह है जैसे कि सरकारें तब खुद को उन मामलों से अलग रखती है जब कोई विजिलेंट ग्रुप निशाने पर वार करता है. लेकिन दोनों ही मामलों में खतरा और धमकी की भूमिका होती है.
इस लेख का ये कतई आशय नहीं है कि छात्र जिनका वामपंथी विचारधारा के प्रति झुकाव है वो मौजूदा दौर में निशाने पर हैं. सही अर्थ में तो कैंपस के अंदर विचारधारा की लड़ाई में लेफ्ट स्टूडेंड यूनियन अपने हिंसात्मक रवैयों के लिए ज्यादा कुख्यात रहे हैं.
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ये संभव है कि उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक पर निशाना साधा होगा. दूसरों से कहीं ज्यादा भावनाएं आहत की होंगी. लेकिन जब यही बात एबीवीपी दोहराती है तो फिर ये चिंता की बात क्यों बन जाती है?
सत्ता में बैठी सरकारों का समर्थन हमेशा से वामपंथी विचारधारा रखने वालों को मिलता रहा है. ऐसे में अगर मौजूदा सरकार एबीवीपी को समर्थन देती है तो फिर इस बात को लेकर हायतौबा बचाने की क्या जरूरत है?
जिस दौर में हम रह रहे हैं वहां ‘जैसे को तैसा’ अगर स्वीकृत है तो ऐसा नहीं होना चाहिए. क्या छात्र समुदाय को ऐसे किसी प्रतिक्रियावादी नियम का हिस्सा बनना चाहिए?
कैंपस हर तरह के विचारों के लिए खुले मंच की तरह होता है. छात्रों के बौद्धिक विकास के लिए ये बेहद जरूरी है. तब-तक इस बात में कोई नुकसान नहीं है कि आप अलग-अलग दृष्टिकोण को सुनते हैं और इसके बाद आप इनके तोड़ में तर्कसंगत जवाब तैयार करते हैं.
लेकिन आज जो कुछ हम देख रहे हैं वो बेहद शर्मनाक और घृणा की संस्कृति का हिस्सा है और तो और ऐसे बदलावों को रोकने के लिए कोई उपाय न सूझा कर छात्र खुद को एक समुदाय के तौर पर नुकसान पहुंचा रहे हैं.
जबकि छात्रों को विचारधार की लड़ाई में उनकी भूमिका बताने को लेकर शिक्षकों की भूमिका भी स्वस्थ नहीं कही जा सकती है. लेकिन फिर सवाल उठता है कि कैंपस में शांति का माहौल लाने की जिम्मेदारी किसकी है?
और...इस सवाल का जवाब देना इतना आसान नहीं है.