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एडीआर रिपोर्ट: कालेधन को लेकर सरकार की नीयत में खोट

अगर सरकार राजनीतिक दलों की काली कमाई के खिलाफ कदम नहीं उठाती तो काले धन को लेकर उसकी नीयत साफ होने के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता.

Dinesh Unnikrishnan

24 जनवरी को एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (ADR) की एक रिपोर्ट में पता चला कि तमाम राजनीतिक दलों ने 2004-05 से 2014-15 के बीच बेनामी स्रोतों से 7855 करोड़ रुपए की फंडिंग हासिल की. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म वो संस्था है जो राजनीतिक दलों के काम-काज के बारे में आंकड़े इकट्ठे करती है.

इसकी रिपोर्ट के मुताबिक ये 7855 करोड़ की रकम, राजनीतिक दलों की पूरी कमाई का 69 फीसद है. अज्ञात स्रोतों से आमदनी को राजनीतिक दलों ने अपने इन्कम टैक्स रिटर्न में तो बताया है. मगर ये पैसा उन्हें किससे मिला, इसकी जानकारी वो छुपा गए हैं. ये वो चंदे हैं जो बीस हजार से कम वाले हैं. ये वो रकम है, जिसका पूरा हिसाब राजनीतिक दलों ने नहीं दिया. इस पर उन्होंने टैक्स भी नहीं भरा. कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि ये राजनीतिक दलों का काला धन है.


चलिए इस समस्या को विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं. राजनीतिक दलों की आमदनी और खर्च को लेकर मौजूदा नियमों में इतने झोल हैं कि उनसे तमाम पार्टियां आमदनी का ठीक-ठीक हिसाब देने से बच जाती हैं. क्योंकि बीस हजार से कम के चंदे का न तो उन्हें स्रोत बताना पड़ता है और न ही उस पर टैक्स देना होता है. इसीलिए राजनीतिक दल बीस हजार से कम चंदे वाली तमाम पर्चियां बनाकर बीस हजार से कम के चंदे में अपनी आमदनी दिखा देते हैं.

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बड़े चंदे की रकम को भी वो छोटे टुकड़ों में करके दिखा देते हैं. इनमें से कई बार उन कंपनियों से मिली रकम भी होती है, जिसको ये राजनीतिक दल सत्ता में आने पर फायदा पहुंचाते हैं. चंदे की छोटी रकम दिखाने पर उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती.

खामियों को दूर करना जरूरी

अब राजनीतिक दलों की आमदनी का हिसाब रखने के इस खामी को दूर नहीं किया जाएगा तो हम तमाम पार्टियों के कामकाज में पारदर्शिता की उम्मीद नहीं कर सकते. आम तौर पर राजनीतिक दल, चंदों की रसीद भी नहीं रखते. मोदी सरकार ने इस समस्या पर अब तक कोई ध्यान नहीं दिया है.

हालांकि उनकी सरकार का पूरा जोर है कि जनता अपनी आमदनी और खर्च की पाई-पाई का हिसाब दे. मगर राजनीतिक दलों की आमदनी और खर्च के मामले में पारदर्शिता पर मोदी ने पूरी तरह से खामोशी अख्तियार कर रखी है. ये बात तब और अखरती है जब पीएम मोदी बार-बार दावा करते हैं कि उन्होंने काले धन के खिलाफ धर्म युद्ध छेड़ रखा है, वो देश से काला धन मिटाकर ही दम लेंगे.

8 नवंबर को नोटबंदी का ऐलान करके मोदी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था में से चलन की 86 फीसद मुद्रा को गैरकानूनी घोषित कर दिया. नवंबर के आखिरी हफ्ते में सरकार ने देश को कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने का बड़ा अभियान छेड़ दिया. सरकार ने बताया कि वो हर लेन-देन को डिजिटल बनाकर उसकी निगरानी करना चाहती है. ताकि काले धन का लेन-देन और जमाखोरी को रोका जा सके.

अब लोगों को कैशलेस लेन-देन की तरफ आगे बढ़ाने के लिए एक एक्सपर्ट पैनल ने सिफारिश की है कि पचास हजार रुपए से ज्यादा के नकद लेन-देन पर टैक्स लगाया जाए. ताकि लोग नकद लेन-देन से परहेज करें. नोटबंदी की वजह से आम आदमी को काफी मुसीबतें उठानी पड़ीं. अर्थव्यवस्था की विकास की रफ्तार धीमी हुई. लाखों लोगों के रोजगार छिन गए. कारोबार में मंदी आ गई.

हमारे देश की अर्थव्यवस्था जो 70 से 90 फीसद तक का लेन-देन नकद में करती है, वहां नोटबंदी का असर भूकंप आने जैसा रहा. फिर भी इस फैसले को लेकर मोदी सरकार को पूरा जनसमर्थन हासिल रहा. क्योंकि जनता को लगा कि पहली बार देश के रईसों और ताकतवर लोगों के खिलाफ सरकार ने एक्शन लेने की सरकार ने हिम्मत दिखाई है.

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लेकिन, अगर अब मोदी सरकार राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए कोई कदम नहीं उठाती है, तो, लोगों का इस सरकार की नीयत पर से भरोसा उठने लगेगा. फिर चाहे पीएम मोदी काले धन के खिलाफ कितने भी बड़े धर्मयुद्ध को छेड़ने की बात करें, जनता उन पर ऐतबार नहीं करेगी.

सरकार नाकाम

राजनीतिक दलों के संदिग्ध लेन-देन को रोकने में नाकामी पर सरकार के बहानेबाजी पर लोगों को यकीन नहीं हो रहा. पिछले साल राजस्व सचिव हंसमुख अधिया ने कहा था-अगर कोई रकम किसी राजनैतिक दल के खाते में जमा हो रही है तो उसे छूट हासिल है. मगर कोई रकम किसी आदमी के निजी खाते में जमा हो रही है तो उसकी पूरी पड़ताल की जाएगी.

राजस्व सचिव के इस बयान पर हंगामा मच गया था. इस बयान का साफ मतलब था कि राजनैतिक दल काले धन का लेन-देन बड़े आराम से जारी रख सकते हैं. मगर आम आदमी को अपने एक-एक पैसे का हिसाब देना होगा, फिर चाहे वो ईमानदारी की कमाई ही क्यों न हो.

हंसमुख अधिया ने ये बयान उस वक्त दिया था, जब नोटबंदी का अभियान चल ही रहा था. हालांकि सरकार ने फौरन ही इस बयान पर सफाई देनी शुरू कर दी. ये कहा कि राजनीतिक दलों की आमदनी का हिसाब भी लिया जाएगा.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि, 'देश के हर नागरिक और संस्था की तरह राजनीतिक दलों को भी अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब देना होगा. राजनीतिक दल भी आम लोगों की तरह पुरानी नोटों को 30 दिसंबर तक बैंकों में जमा कर सकते हैं. उन्हें इस रकम का स्रोत बताना होगा. ये रकम 8 नवंबर के पहले के उनके खातों में भी दिखनी चाहिए'.

वित्त मंत्री ने ये भी कहा कि राजनीतिक दलों की आमदनी और चंदा भी 1961 के इनकम टैक्स की धारा 15A के तहत जांच के दायरे में आते हैं. इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है. मगर सवाल ये है कि जब मोदी सरकार ने काले धन के खिलाफ इतना बड़ा अभियान छेड़ा हुआ है, तो, राजनीतिक दलों की आमदनी और चंदे की जांच में वो क्यों आनाकानी कर रही है?

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इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि सभी राजनीतिक दलों की हालत, 'हमाम में सब नंगे' वाली है. हर दल के आमदनी और खर्च के ब्यौरे में झोल है. कोई भी अपनी आमदनी का स्रोत नहीं बताना चाहता. मोदी सरकार ने आम नागरिकों के लिए इनकम टैक्स के नियम बदल दिए.

फिर वो राजनीतिक दलों के इन्कम टैक्स के नियम में बदलाव करने में क्यों नाकाम रहे? जब सरकार आम आदमी को कैशलेस लेन-देन करने के लिए कह रही है, तो, राजनीतिक दलों से सारा चंदा कैशलेस लेने के लिए क्यों नहीं कह रही? मोदी सरकार को इन सवालों के जवाब देने चाहिए.

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के आंकड़े-

एडीआर ने कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, एनसीपी, सीपीआई और सीपीएम के अलावा 51 क्षेत्रीय दलों के आंकड़ों की पड़ताल की है. इससे पता चला है कि अज्ञात स्रोतों से तमाम राष्ट्रीय दलों की आमदनी में 313 फीसद का इजाफा हुआ है.

2004-05 में ये रकम 274.13 करोड़ थी. जो 2014-15 में बढडकर 1150.92 करोड़ हो गई. वहीं बेनामी जरियों से क्षेत्रीय दलों की आमदनी में पिछले दस सालों में 632 फीसद का इजाफा हुआ है. 2004-05 में 37.39 करोड़ से 2014-15 में ये रकम 281.01 करोड़ हो गई, जो क्षेत्रीय दलों को बेनामी जरियों से मिली.

रिपोर्ट के मुताबिक 'तमाम क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों में बीएसपी ही ऐसी पार्टी है जिसने 2004-05 से 2014-15 के बीच एक भी चंदा बीस हजार रुपए से ऊपर का नहीं पाया. यानी बीएसपी को मिली सारी की सारी रकम बेनामी स्रोतों से आई. 2004-05 से 2014-15 के बीच बीएसपी की आमदनी 5.19 करोड़ से 111.96 करोड़ यानी 2057 प्रतिशत बढ़ गई.'

फंडिंग में पारदर्शिता

दुनिया के तमाम देशों में राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की कई कोशिशें की गई हैं. सूचना के अधिकार के तहत कई देशों में राजनीतिक दल अपनी आमदनी और खर्च का ब्यौरा जनता को देते हैं.

एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, 'भूटान, नेपाल, जर्मनी, फ्रांस, इटली, ब्राजील, बुल्गारिया, अमेरिका और जापान में राजनैतिक दल ऐसा कर रहे हैं. इन देशों में राजनैतिक दलों को आमदनी के 75 फीसद की जानकारी देनी ही होती है. वो इसको छुपा नहीं सकते. ऐसा सिर्फ भारत में ही मुमकिन है.'

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मोदी सरकार एक पुराने कानून का हवाला देकर राजनीतिक दलों की बेनामी फंडिंग पर पर्दा नहीं डाल सकती. अगर सरकार राजनीतिक दलों की काली कमाई के खिलाफ कदम नहीं उठाती तो काले धन को लेकर इसकी नीयत साफ होने के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता. एडीआर की रिपोर्ट न सिर्फ राजनीतिक दलों की बेईमानी उजागर करती है, बल्कि, सरकार की नीयत में खोट की तरफ भी इशारा करती है.