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बजट 2017: किसान पर कर्ज का फंदा ढीला हो तो कोई बात बने!

कर्जदारी के कारण एनडीए के शासन के बीते दो सालों में कर्जदार किसानों की दुर्दशा में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है

Chandan Srivastawa

कल्पवृक्ष के बारे में कहते हैं कि उसके नीचे बैठकर जो मांगो वही मिलेगा और, बजट से ऐन पहले किसानों की मुराद पूरी करने को लेकर सरकार भी किसी कल्पवृक्ष से कम नहीं जान पड़ रही. मुल्क के कृषि मंत्री के ब्लॉग पर चढ़ा एक चिट्ठा कुछ यही कहता लग रहा है.

अपने ब्लॉग पर कृषि मंत्री ने लिखा है, 'सरकार का मानना है कि किसान खेती बाड़ी करने के लिए जरूरी पैसे के लिए सरकारी कर्ज पर निर्भर ना रहे बल्कि अपने उद्यमों से इतनी आमदनी कर ले कि उन्हें कर्ज की जरूरत ही ना पड़े और अगर पड़े भी तो वे इसके दबाव में ना आए.'


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किसान हो या कारोबारी, कोई भी चाहेगा कि कर्ज अपनी आमदनी, अपना उद्यम बढ़ाने का साधन बने, ना कि किसी परेशानी का सबब. कृषि मंत्री ने इस लिहाज से बिल्कुल वही बात कही जो किसानों के दिल में है. लेकिन क्या 'सरकार की सकारात्मक सोच' के 'अच्छे नतीजे आने शुरु हो गये हैं', जैसा कि कृषि मंत्री ने अपने ब्लॉग में लिखा है ?

कर्जमाफी के इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरुरत नहीं बस चंद दिन पहले आए एक समाचार तक टहल लगाने की जरुरत है. बस इतने भर से तस्वीर दिख जायेगी कि नतीजे अच्छे आए हैं या बुरे ?

ऊंट के मुंह में जीरा

24 जनवरी के दिन खबर आई के कैबिनेट ने कॉपरेटिव बैंकों से ली गई छोटी अवधि के कृषि-कर्ज पर नोटबंदी के दो महीनों, नवंबर और दिसंबर का ब्याज माफ कर दिया है.

कृषि मंत्रालय के प्रेस विज्ञप्ति में यह जिक्र तो नहीं था कि कर्ज पर माफ की गई ब्याज की यह राशि कुल कितनी है.  हां, यह जरूर कहा गया कि ब्याज माफी से सरकारी खजाने पर 1060 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

दो माह के कर्ज पर ब्याज माफी का एलान प्रधानमंत्री 31 दिसंबर वाले भाषण में कर चुके थे और उसी वक्त किसान संगठनों ने इस ब्याज माफी की हकीकत भी बता दी थी.

प्रधानमंत्री के नाम लिखी खुली चिट्ठी में दो दर्जन से ज्यादा किसान संगठनों ने लिखा कि किसानों पर छोटी अवधि का यह कर्ज 50 हजार करोड़ रुपए का ठहरता है. इस कर्ज पर दो महीने की ब्याज-माफी का मतलब है किसानों को अपने कर्ज पर 333 करोड़ रुपए का सूद नहीं देना होगा.

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लेकिन नोटबंदी की मार के सामने इतनी भर ब्याज माफी तो ऊंट के मुंह में जीरा है. भारत कृषक समाज ने ध्यान दिलाया कि जो किसान फल और सब्जियां बोते हैं, नोटबंदी के फैसले से उन्‍हें औसतन 20 से 50 हजार रुपए प्रति एकड़ का नुकसान झेलना पड़ा है.

ब्याज माफी की प्रेस विज्ञप्ति में कृषि मंत्रालय यह बात बताना शायद भूल गया कि जिस ब्याज सब्सिडी योजना के तहत दो माह के कर्ज पर सूद माफ किया गया है, उसके दायरे में निजी बैंक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से लिए गए छोटी अवधि के कृषि कर्ज भी शामिल हैं.

सवाल पूछा जाएगा कि ब्याज केवल सहकारी बैंकों से लिए गए कृषि-कर्ज का ही क्यों माफ किया गया ?

कर्जदारी किसान आत्महत्या की बड़ी वजह

कृषि मंत्री को भले विश्वास हो कि कर्जदार किसानों को राहत देने के उपायों से किसानों की हालत पहले की तुलना में सुधरी है लेकिन सरकारी आंकड़ों से तस्वीर कुछ और ही निकलकर आती है.

हाल ही में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने एक्सीडेंटल डेथ्स् एंड स्यूसाइड इन इंडिया नाम की अपनी सालाना रिपोर्ट जारी की. रिपोर्ट के तथ्य बताते हैं कि कर्जदारी के कारण एनडीए के शासन के बीते दो सालों में कर्जदार किसानों की दुर्दशा में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है.

2014 में कुल 5650 किसानों के आत्महत्या कले प्रकाश में आये जबकि 2015 में आत्महत्या करने को मजबूर किसानों की संख्या बढ़कर 8007 हो गई है. दो सालों के भीतर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में तकरीबन 41 फीसदी का इजाफा हुआ है और किसान आत्महत्या के ज्यादातर मामलों में बड़ी वजह साबित हुआ है, कर्ज का बढ़ता बोझ.

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में कुल 3097 किसानों ने कर्जदारी के बोझ से टूटकर आत्महत्या का रास्ता चुना. दूसरे शब्दों में कहें तो 2015 में कुल किसान-आत्महत्याओं के तकरीबन 38 फीसद मामलों में कर्जदारी ने किसान के गले में फांसी का फंदा डाला.

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2014 में तस्वीर इससे अलग नहीं थी. तब किसान-आत्महत्या के लगभग 40 फीसद मामलों में बड़ी वजह कर्जदारी और फसल मारे जाने की घटनाएं रहीं.

आम मान्यता है कि सूदखोर महाजन किसानों का कहीं ज्यादा शोषण करते हैं लेकिन एनसीआरबी के आंकड़े इस चलताऊ ख्याल को झूठलाते हैं.

2015 में आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर लगभग 40 प्रतिशत (कुल 3097 किसान) किसानों ने बैंक या फिर माइक्रो फाइनेंन्स की रिजस्टर्ड संस्थाओं से कर्जा लिया था जबकि ऐसे 302 किसान सूदखोर महाजनों के कर्जदार थे.

आत्महत्या की राह चुनने वाले केवल 321 किसानों पर वित्तीय संस्थानों जैसे बैंक और माइक्रो फायनेन्शियल इंस्टीट्यूशन के साथ-साथ महाजनों का भी कर्जा था.

कर्ज परेशानी का सबब

कृषि मंत्री की सोच के उलट कर्जदारी किसानों के लिए आमदनी बढ़ाने का जरिया नहीं परेशानी का सबब बनता जा रहा है. चिंता की बात यह भी है कि देश में बीते पच्चीस सालों में कर्जदार किसानों की संख्या लगातार बढ़ी है और उनपर चढ़े कर्ज का भार भी.

देश के खेतिहर परिवारों की दशा बताने वाली नेशनल सैंपल सर्वे की सबसे नई रिपोर्ट 2014 के दिसंबर महीने में आई. इस रिपोर्ट में कहा गया कि देश के 9 करोड़ किसान-परिवारों में 52 फीसद परिवार कर्जदार हैं.

2003 की रिपोर्ट में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या 48.6 फीसदी थी और 1991 में आई रिपोर्ट में कर्जभार में डूबे किसान परिवारों की संख्या 26 प्रतिशत बतायी गई थी.

दूसरे शब्दों में दो दशक के भीतर देश में कर्जदार किसानों परिवारों की संख्या दो गुनी बढ़ी है. साथ ही बीस सालों के भीतर किसानों पर चढ़ा औसत कर्जभार चार गुना बढ़कर 12,585 रुपए से 47000 रुपए हो गया है.यह भी पढ़ें: आम बजट 2017: क्या ये साल किसानों के लिए रिफॉर्म लाएगा?

आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में 80 से 90 फीसदी किसान परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. केरल, आंध्रप्रदेश तथा पंजाब जैसे राज्यों में किसान-परिवारों पर औसतन सवा लाख से सवा दो लाख रुपये का कर्जा है.याद रहे, नेशनल सैंपल सर्वे की गणना में देश के किसान-परिवार की औसत मासिक आमदनी 6426 रुपए बताई गई है. सालाना यह आमदनी 77112 रुपए निकलकर आती है. हिसाब बड़ा साफ है कि खेतिहर आमदनी से खेतिहर कर्ज चुकाना किसान के लिए बहुत मुश्किल है.इस वजह से, ब्याज माफी और सस्ते कर्ज के विस्तार की योजनाओं वाले किसी बजट पर खुश होने से पहले सरकार को सोचना होगा कि किसान किस तरह कर्जे के फंदे से निकले.