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बीएचयू ग्राउंड रिपोर्ट: सोशल मीडिया से अलग है कैंपस की सच्चाई

बीएचयू राजनीति का एक तंदूर बन चुका है जिसमें रोटियों के साथ शायद अब बोटियां भी सिकेंगी

Utpal Pathak

बीएचयू में पिछले तीन दिनों से चल रहे आंदोलन और उसके बाद हुई क्रमवार गतिविधियों पर अब तक बहुत कुछ लिखा और लिखवाया जा चुका है, समाचार समूहों के अलावा सोशल मीडिया के प्रखर लेखकों ने भी अपने अपने ढंग और अपने-अपने सूत्रों के आधार पर ढेरों जानकारियां परोसीं हैं जिनमें से कुछ जानकारियां उन लोगों के लिए भी नई थीं जिन्होंने बीएचयू को दशकों से देखा है.

बहरहाल घटनाक्रम और उसके बाद से उपजे सुनियोजित बवाल के बाद अब बीएचयू राजनीति का एक तंदूर बन चुका है, जिसमें रोटियों के साथ शायद अब बोटियां भी सिकेंगी. लेकिन छात्राओं के इस आंदोलन ने कुछ नए सवाल भी खड़े किए हैं जिसके जवाब दे पाना शायद अभी किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति के लिए मुश्किल है.


अफवाहों से लबालब सोशल मीडिया

महानगरों में बैठे राष्ट्रवादी, प्रगतिशील, समाजवादी, वामपंथी और गैर वामपंथी पत्रकारों, कलमकारों और समाज के पहरुओं के एक बड़े वर्ग ने अधिकांश तस्वीरें एवं सूचनाएं बिना जाने-समझे साझा कीं, जिसके बाद अचानक से मामले को अलग-अलग स्वरूप में देखा जाने लगा. दिल्ली समेत दूसरे महानगरों में बैठे कुछ लोग जो कभी बनारस गए नहीं, उनका ज्ञान विश्वविद्यालय के इतिहास भूगोल के लिये प्रस्फुटित हुआ जो शायद बनारस के बाशिंदों समेत विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों और प्रोफेसरों के लिए भी नया था.

पूरा मामला जाने बगैर अति उत्साह में तरह तरह की गल्प कथाएं और अधकचरा ज्ञान सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया. वाराणसी जिला प्रशासन ने 'बीएचयू बज़' नामक फेसबुक पेज पर भ्रामक सूचनाएं फैलाने के आरोप में मामला तो दर्ज किया है लेकिन नामचीन लोगों के द्वारा किए गए इसी काम के संदर्भ में प्रशासन की मंशा अब तक स्पष्ट नहीं है.

लाठीचार्ज के कुछ घंटों बाद ही अस्पताल के बिस्तर पर खून से लथपथ एक युवा लड़की की तस्वीर सोशल मीडिया पर तैरने लगी और उस लड़की को बीएचयू की छात्रा बताया गया. असल में वो तस्वीर लखीमपुर खीरी से जुड़े एक अन्य मामले की थी लेकिन बड़े ही सुनियोजित तरीके से उसे बीएचयू के साथ जोड़कर चलाया गया. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि लाठीचार्ज होने के बावजूद पीटी गयी छात्राओं की मूल तस्वीरों में वो भयावह स्वरूप नहीं आ पा रहा था जिसकी उम्मीद की गई थी.

फरमानों का अम्बार

पिछले दो सालों से विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा जारी किए गए अनेक तुगलकी फरमानों ने छात्र छात्राओं के लिए परेशानियां खड़ी की हैं. कभी साइबर लाइब्रेरी को रात में चलते रहने की मांग, कभी मेस के खाने की शिकायत कभी शोध प्रक्रिया में गड़बड़ी और कभी संविदाकर्मियों की नियुक्ति के मामलों को लेकर छोटे-छोटे समूहों में छात्र-छात्राओं ने प्रदर्शन किए हैं. कुछ ने थक-हारकर कोर्ट का सहारा लिया है और राहत पाकर चैन के सांस ली है.

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इसके अलावा कुछ भयावह मामले भी हुए हैं जिनमें कुछ माह पूर्व एक छात्र के साथ परिसर में ही चलती कार में कुछ लोगों ने दुष्कर्म किया था, परिसर से जुड़े एक व्यक्ति का नाम आया था लेकिन किसी को दर्द नहीं हुआ. पीड़ित युवक ने स्थानीय पुलिस समेत हर सबंधित अधिकारी के समक्ष गुहार लगाई लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ साबित हुए. ऐसे में इस प्रकार के अन्य मामलों में भी पहरुओं की चुप्पी आजतक कायम है.

छेड़छाड़ और अन्य प्रयास

परिसर में परिसर की छात्राओं के साथ परिसर के छात्रों द्वारा छेड़छाड़ किए जाने की घटनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है या संख्या उस तुलना में काफी कम है जिस तुलना में परिसर में घूमने वाले बाहरी तत्व परिसर की  छात्राओं समेत परिसर में घूमने या इलाज करवाने आई लड़कियों या महिलाओं के साथ करते हैं. आज भी परिसर में विश्वविद्यालय की अधिक शहर से घूमने आने वाली लड़कियों से छेड़छाड़ होती है, उनका पुरसाहाल जानने की कोशिश कभी किसी ने नहीं की.

सुरक्षा मानक और उनके उपयोग

परिसर की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि अधिकांश महिला छात्रावास कुलपति आवास के आसपास हैं और सिंहद्वार के करीब हैं, ऐसे में वहां सुरक्षा माकूल रहती है, नवीन महिला छात्रावास और गांधी महिला छात्रावास भी ऐसी जगह है जहां रास्ता भले ही रात आठ बजे के बाद सुनसान हो जाता है लेकिन परिसर के छात्रों द्वारा वहां खड़े होकर अपमानजनक गतिविधियां करना रोज-रोज संभव नहीं.

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विधि संकाय से लगी सड़क जो केंद्रीय कार्यालय तक जाती है उसे सबसे सुनसान रास्ता माना जाता है लेकिन वहां शाम 5 बजे के बाद कोई शैक्षिक गतिविधि होती नहीं लिहाजा छात्राओं का उस रास्ते का प्रयोग करने का कोई मतलब ही नहीं होता. परिसर के प्रमुख चौराहों पर प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सुरक्षाकर्मी रहते हैं लेकिन कई प्वाइंट ऐसे हैं जहां सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं होता. परिसर में सीसीटीवी कैमरों के बारे में निर्देश कुछ महीनों पहले दिए गए थे लेकिन अब तक किसी कार्यदायी संस्था ने इस बाबत ठोस निर्णय नहीं लिए.

नियमों को लेकर दोहरा मापदण्ड

परिसर से पान की दुकानें हटा दी गईं और इसके साथ ही तंबाकू उत्पादों की बिक्री पर भी रोक लग गई.  इसके अलावा परिसर की चाय की दुकानों में अंडा और उससे बने भोज्य पदार्थ भी बंद करवा दिए गए. बंदी आज भी कायम है और किसी ने हो-हल्ला भी नहीं मचाया, हालांकि दीगर बात है कि बिकना बंद हुआ लेकिन इस्तेमाल होना नहीं बंद हो पाया और न कभी हो पायेगा.

लेकिन मुद्दा यहां ये नहीं है बल्कि मुद्दा ये है कि रात 8 बजे के बाद नहीं आना और मेस में निरामिष भोजन नहीं बनना जैसे फरमान सिर्फ संकाय विशेष के छात्र छात्राओं के लिए ही क्यों होते हैं? और यदि सबके लिए होते हैं तो आईआईटी, मेडिकल कॉलेज और अंतरराष्ट्रीय संकुल के विद्यार्थियों के लिए इन नियमों को न मानने की अघोषित छूट क्यों होती है इस बाबत किसी सबंधित अधिकारी ने कभी भी कुछ भी नहीं कहा.

छात्र आंदोलन बनाम राजनीति से प्रेरित संगठित अभियान

दोनों तरफ से इस बात को लेकर चिकचिक है कि आंदोलन वाकई आंदोलन था या सुनियोजित रणनीति से सबंधित कोई उपक्रम. बहरहाल, छात्राएं जब जुटीं तो आंदोलन ही था लेकिन बाद में इन्हीं छात्राओं को आगे करके पहले एक गुट ने राजनैतिक चूल्हा जलाकर उस पर रोटियां सेकीं उसके बाद दूसरे गुट ने उनपर कीचड़ उछालकर अपनी रोटियां सेंक ली, फिर तीसरा गुट उन पर लाठीचार्ज करवाकर अपने काम में लग गया, छात्राएं अब अपने घरों की ओर जा चुकी हैं लेकिन अब विभिन्न गुट और राजनीतिक दल बीच में आ गए हैं जिन्होंने छात्रों के मुद्दों पर कब्जा करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना शुरू कर दिया है.

मुंबई यूथ कांग्रेस के सदस्यों ने बीएचयू में छात्राओं पर हुए लाठीचार्ज के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया.

इसके अलावा इस बात पर भी बहस होनी चाहिए कि प्रदर्शन का समय छात्राओं ने सोच समझ कर चुना था या उन्हें इसके लिए प्रेरित किया गया था. कुछ लोगों का ये मानना है कि प्रदर्शन का समय बहुत सोच-समझ के चुना गया था क्योंकि प्रधानमंत्री के दौरे को देखते हुए अतिरिक्त सुरक्षा बल का जमावड़ा पहले से था, बात बढ़ने पर बल प्रयोग होता इस बात का अंदेशा सबको था, ऐसे में ये सब करना तय था या तय करवाया गया था इस पर भी विचारमंथन आवश्यक है.

जिला प्रशासन और बीएचयू

प्रधानमंत्री के सुरक्षा दस्ते में आए आला अधिकारियों समेत अन्य सुरक्षा एजेंसियों के अफसरों ने कुलपति डा. जीसी त्रिपाठी को बार बार समझाया कि उन्हें सिंहद्वार जाकर छात्रों से बात करके मामले को खत्म करना चाहिए लेकिन कुलपति ने लगातार इन छात्राओं को बाहरी और गैर राष्ट्रवादी करार देते हुए उनकी छवि बिगाड़ने की साजिश बताया. ऐसे में एसपीजी दस्ते को प्रधानमंत्री के रुट को बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा.

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जिले के आला अफसरों ने भी कुलपति से लगातार बात करके मामले को उनके स्तर से खत्म करवाने की अपील की लेकिन उनका रिकार्ड गैर राष्ट्रवाद पर जाकर अटक गया था. उत्तर प्रदेश सरकार ने स्थानीय थानाध्यक्ष समेत क्षेत्राधिकारी का स्थानांतरण करके कार्रवाई का कोरम पूरा कर लिया लेकिन अगर इन्हें स्थानांतरित न करके इनसे ही निष्पक्ष जांच करवाई जाती तो बहुत से पन्ने अपने आप पलट जाते.

इन परिस्थितियों में जिला प्रशासन के अधिकारियों को दोष देना व्यर्थ है और प्रदेश सरकार अगर उन पर कार्रवाई करके ढोल पीटेगी तो वो और गलत है. विश्वविद्यालय के स्वघोषित मालिकान जब जिले के अफसरों के सामने रिरियाते हैं तो अफसरों का कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए बीच में आना तय है.

अनसुलझे सवाल

लाठीचार्ज के पहले हुई आगजनी और पथराव में प्रदेश की पुलिस के आला अफसर घायल हुए हैं और उनपर हमला छात्राओं ने नहीं किया था, पुलिस पर हमला होते ही पुलिस हरकत में आ जाती है, ये बात भोली-भाली छात्राओं को भले ही पता न हो लेकिन जिसको भी अंदाजा था उसने इसका बखूबी फायदा उठाया और पुलिस पर हमला करके उन्हें लाठीचार्ज के लिए उकसाया भी. इसके अलावा घटनाक्रम का समाचार संकलन कर रहे पत्रकारों पर हमला करना और उनकी गाड़ियां जलाना भी सुनियोजित था ताकि मीडिया में बात और प्रसारित हो जाए.

बीएचयू मामले में ऐक्शन लेते हुए यूपी सरकार ने तीन अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट, सीओ और एसओ को हटा दिया गया है.

और इन सब गतिविधियों के लिए छात्राओं को दोष देना व्यर्थ है क्योंकि उन्हें इतना मीडिया मैनजेमेंट नहीं आता और वे समूह में अपनी मूलभूत समस्यायें लेकर बैठी थीं. इसके अलावा जिस तरीके से एक ही तरह की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया के माध्यम के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित हुए उन्हें देख कर साफ जाहिर था कि उनको किसी एक जगह से ही संचारित किया जा रहा है. क्योंकि अक्सर ऐसी घटनाओं में तरह-तरह के वीडियो और तस्वीरें आती हैं लेकिन इस बार कुछ विशेष एंगल ही इस्तेमाल में लिए गए.

क्या लाठी चलाने वाले पुलिसकर्मी और पीएसी कर्मी थे?

बीएचयू के सुरक्षाकर्मी भी खाकी वर्दी पहनते हैं और पुलिस/पीएसी की भीड़ में उनका शामिल हो जाना सामान्य है, ऐसे में रात के अंधेरे में छात्राओं पर महिला महाविद्यालय में घुसकर बलप्रयोग उन्होंने किया या किसने किया यह अब भी एक यक्ष प्रश्न है. जहां तक पीएसी की कार्यशैली का सवाल है तो उन्हें महिलाओं पर लाठीचार्ज करने की इजाजत नहीं और ऐसी किसी स्थिति में उनके साथ रैपिड एक्शन फोर्स की महिला इकाई या उत्तर प्रदेश सरकार की महिला पुलिस भी रहती है.

अंधेरे का लाभ उठाकर किसने क्या किया और कब किया इसके बारे में बीएचयू के अधिकारी बेहतर बता पाएंगे. हालांकि, वाराणसी जिला प्रशासन ने इस बार इस बात को गंभीरता से लिया है और जिलाधिकारी योगेश्वर राम मिश्र ने बीएचयू प्रशासन को अल्टीमेटम दिया है कि वे न सिर्फ सीसीटीवी कैमरों समेत अन्य उपकरणों का इंतजाम जल्द से जल्द करें साथ ही इस बात का जवाब दें कि प्रॉक्टरकर्मियों को किस आधार पर खाकी वर्दी पहनने की छूट है. इसके साथ ही कुछ अन्य प्रमुख बिंदुओं पर भी प्रदेश सरकार का शासनादेश बीएचयू के कुलसचिव को भेजा गया है जो इस रिपोर्ट के साथ संलग्न है.

प्रोफेसरों की चुप्पी

आज भले ही देश के बड़े नेताओं और स्वयंसेवियों का जुटान बनारस में हो गया है और कुछ प्रोफेसरों ने अपनी जुबान खोलने की कोशिश भी की है. हालांकि अधिकांश प्राध्यापक पहले से निज़ाम के फरमाबरदार हैं और शेष ने इस बदले मौसम में लंबी चुप्पी साध रखी है लेकिन घटनाक्रम के दौरान विश्वविद्यालय के कुछ क्रान्तिकारी/ प्रगतिशील प्रोफेसरों का छात्राओं के समर्थन में आगे न आना कुछ लोगों को खल गया.

एबीवीपी की छात्राओं ने बैनर पोस्टर के साथ हाथों में चूड़ियां लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ नारेबाजी करते हुए आरोपी पुलिस वालों पर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की.

हालांकि उन सबके लिए नौकरी की अपनी विवशताएं हैं, और प्राक्टोरियल बोर्ड हर बात की वीडियोग्राफी भी करवाता है जिसकी जद में आने के बाद कार्रवाही होना तय है. ऐसे में उन विभूतियों का बनारस के घाट पर, चाय की दुकानों पर परिसर के बाहर के किसी मंच पर सरोकार की बातें करना आसान है लेकिन परिसर में थोड़ा अलग लोकाचार चलता है जिसका पालन करना उन प्रोफेसरों की भी मजबूरी है .

साझी बात

चिकित्सा विज्ञान संस्थान के जिन डॉक्टरों पर परिसर के छात्र और प्रॉक्टरकर्मी यदा-कदा हमला करने से नहीं चूकते, उन्होंने लाठीचार्ज की अगली सुबह सबसे पहले काली पट्टी बांधकर विरोध किया और शांति मार्च निकाला. इसके अलावा कुछ अन्य संगठनों ने भी बगैर मीडिया में हल्ला किए छात्र-छात्राओं का पुरसाहाल जाना और मदद भी की लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उनकी तारीफ में किसी ने कुछ नहीं किया.

छात्राओं पर लाठीचार्ज परिसर के इतिहास में एक काला अध्याय है और इसकी हर जगह निंदा होनी चाहिए. कुलपति महोदय की कार्यप्रणाली की भी निन्दा होनी चाहिए लेकिन अब जो हो रहा है वो कुछ अलग है. आयातित आंदोलनकारी एक तरफ बनारस आकर मीडिया में नाम चमका रहे हैं वहीं दूसरी तरफ सरोकार से जुड़े लोग 'लग्गी से पानी पिला रहे हैं.'

बनारस इन सबके लिए दुर्गापूजा के दौरान एक अच्छा पर्यटन स्थल है, इसी बहाने इन सब क्रांतिकारियों का आना-जाना, घूमना-फिरना, नारे लगाना भी बनारस की उत्सवधर्मिता का हिस्सा बन गया है. सरोकार का आडंबर बनारस बखूबी समझता है, और विश्वविद्यालय की छात्राएं जब वापस आएंगी तो क्या होगा यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन तब तक देखते रहना ही नियति है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)