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भीमा कोरेगांव हिंसा: आनंद तेलतुंबड़े की मदद की गुहार राजसत्ता के क्रूर चेहरे पर एक धब्बा है!

ये इस सरकार की सहज प्रवृत्ति बन गई है कि जो कोई भी उसका विरोध करे वो उसे झूठे केस में फंसाकर उसका उत्पीड़न करे

Ajaz Ashraf

फ़र्स्टपोस्ट के पाठकों के लिए यहां पर हम एक सामान्य सा क्विज़ रख रहे हैं. आप लोग एक ऐसे आदमी के भविष्य की भविष्यवाणी कीजिए जिसने आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए किया हो. उसके बाद उसने भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड के लिए एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर के तौर पर काम किया हो, जो ऊर्जा उत्पादन करने वाली कंपनी पेट्रोनेट इंडिया लिमिटेड का मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ रहा हो, जो पांच सालों तक आईआईटी खड़गपुर में प्रोफेसर रहा हो, इस वक्त गोवा के गोवा इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट का मनोनीत सीनियर प्रोफेसर हो, जो डाटा एनालिटिक्स के साथ-साथ दलित मामलों का भी विशेषज्ञ हो, जिसके नाम अनगिनत किताबें हों और जो देश के एक ख्यातिप्राप्त साप्ताहिक अखबार में कॉलम लिखता हो?

इस तरह का परिचय सुनने के बाद हो सकता है कि आप चहक उठें और सोचें कि इस व्यक्ति का भविष्य सुनहरा से कम क्या होगा. उनके बस कहने या चाहने की देर होगी, वो जैसा चाहे वैसी जिंदगी पा सकता है. आपको ये भी लग सकता है कि उन्होंने ने अपने कुशाग्र दिमाग के बलबूते मुमकिन है अब तक बहुत पैसा इकट्ठा कर लिया होगा.


लेकिन, सच ये है कि अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो बुरी तरह से गलत साबित होंगे.

इस व्यक्ति की जो उपलब्धियां है, उसको देखकर किसी को भी उनसे ईर्ष्या हो सकती है, लेकिन इस व्यक्ति को डर है कि कहीं उसे किसी ऐसे अपराध की सजा न मिले जो उसने किया ही नहीं है. लेकिन भारतीय सरकार ऐसा नहीं मानती है और एक आम सोच के मुताबिक भारत की सरकार कभी गलत हो ही नहीं सकती है. अगर नहीं तो कम से कम ऐसा माहौल तो जरूर बना दिया गया है.

अगर आपने अब तक अंदाजा नहीं लगाया है तो हम बता दें कि इस व्यक्ति का नाम आनंद तेलतुंबड़े है.

तेलतुंबड़े ने वक्तव्य जारी कर लगाई है मदद की गुहार

16 जनवरी वाले दिन तेलतुंबड़े ने एक वक्तव्य जारी किया, जिसमें उन्होंने लोगों या यूं कहें कि अपने शुभचिंतकों के सामने शोकाकुल होकर मदद की गुहार लगाई है. ऐसा इसलिए हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने दो दिन पहले 14 जनवरी को, उस एफआईआर रिपोर्ट को खारिज करने से इंकार कर दिया, जिसे पुणे पुलिस ने तेलतुंबड़े के खिलाफ दाखिल किया था. पुणे पुलिस ने ये एफआईआर 1 जनवरी, 2018 को हुए भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा से जुड़े मामले में उनके खिलाफ किया था. हालांकि, उन्हें बाद में अगले चार हफ्तों तक के लिए गिरफ्तारी से मुक्त कर न सिर्फ सुरक्षा दी गई, बल्कि उन्हें ये अनुमति भी मिली कि वो इन चार हफ्तों में गिरफ्तारी से बचने के लिए अग्रिम जमानत की अर्जी भी डाल सकते हैं.

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आपको लगेगा कि भला ऐसा कौन व्यक्ति या अदालत होगी जो तेलतुंबड़े को जमानत देने से इंकार कर देगी? आखिर वो न तो नीरव मोदी हैं, न ही विजय माल्या या फिर ललित मोदी ही हैं जो कानून को चकमा देकर विदेश भाग जाएंगे. और हमें ये बात अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि तेलतुंबड़े को किसी तरह की कोई दिमागी बीमारी भी नहीं है– न ही वो किसी अन्य बीमारी से पीड़ित हैं.

जमानत तक की मशक्कत

तेलतुंबड़े का डर, यथार्थ है, क्योंकि उनपर काफी सख्त माने जाने वाला कानून UAPA यानी अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट लगाया गया है, जिसमें ज़मानत की उम्मीद काफी कम होती है. आसान शब्दों में कहें तो- अगर एक पुलिस ऑफिसर सिर्फ ये कह भर देता है कि उसके पास आरोपी के खिलाफ सबूत है तो आरोपी के पास जेल में लंबे समय तक सड़ने के अलावा कोई चारा नहीं होता है. जब तक कि लंबी कोर्ट कार्रवाई के बाद उसे बेगुनाह न साबित कर दिया जाए.

यही वो कारण है जिसकी वजह से तेलतुंबड़े ने वक्तव्य जारी कर अंदेशा जताया है कि उन्हें अब जमानत के लिए एक कोर्ट से दूसरी कोर्ट भटकना पड़ेगा. वे लिखते हैं, ‘मेरी उम्मीदें अब पूरी तरह से खत्म हो गईं हैं और मेरे पास सिर्फ ये चारा बचा है कि मैं पुणे के सेशंस कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जमानत की अपील करता रहूं. अब समय आ गया है कि मुझे बचाने के लिए जमीन पर एक कैंपेन चलाने की जरूरत है, जिसमें समाज के हर वर्ग के लोग शामिल हों, ताकि मुझपर गिरफ्तारी की जो तलवार लटक रही है, मुझे उससे बचाया जा सके.’

हो सकता है कि इसे पढ़कर आप हैरान हो उठेंगे.

लोगों की प्रतिक्रिया का अंदाजा लगाते हुए तेलतुंबड़े आगे समझाते हुए कहते हैं, ‘अगर मेरी गिरफ्तारी होती है तो, जेल में कैद रहना उसका कठिन पक्ष नहीं है, उसका मतलब है मुझे मेरे लैपटॉप से दूर कर देना, वो लैपटॉप जो मेरे शरीर का हिस्सा बन चुका है, मेरे छात्र जिन्होंने मेरे साथ जुड़कर अपना भविष्य दांव पर लगाया है या फिर मेरी प्रोफेशनल छवि.’

भारतीय राजनीति से कोई उम्मीद नहीं

अगर हम तेलतुंबड़े के बताए कारणों को भूल भी जाएं तो भी, कोई भी व्यक्ति ये नहीं चाहेगा कि उसका जुर्म साबित होने से पहले, उससे उसकी आजादी छीन ली जाए.

आप कहेंगे कि तेलतुंबड़े को जनता के बजाय, हमारे देश के राजनीतिक वर्ग से अपील करनी चाहिए. हमें ये बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि भारतीय राजनीति वर्ग न सिर्फ क्रूर बल्कि पाखंडी भी है. हम उसके पाखंड को इस उदाहरण से समझ सकते हैं- तेलतुंबड़े की शादी बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की पोती के साथ हुई है, जिन्हें हम भारत का संविधान निर्माता मानते हैं. पीएम मोदी से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और बीएसपी सुप्रीमो मायावती, ऐसा एक भी नेता नहीं है, जो ये दावा न करे कि वो अंबेडकर के अनुयायी हैं. लेकिन, इसके बावजूद इनमें से एक भी नेता ऐसा नहीं है जो उस आदमी के समर्थन में खड़ा हो जिसकी शादी अंबेडकर के परिवार में हुई है. इस बात की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है कि इस आदमी ने भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के दौरान भीड़ को उकसाने का काम किया होगा या फिर ये कि उसके माओवादियों के साथ संपर्क होंगे.

(फोटो: फेसबुक से साभार)

आपके दिमाग में ये सवाल उठ सकता है कि: अगर तेलतुंबड़े सच में दोषी हों तो क्या होगा? अगर उनके खिलाफ लगाए गए आरोप सच साबित हो तो क्या हो? क्या ये अदालत का काम नहीं है कि वो उनकी बेगुनाही साबित करे? तेलतुंबड़े ने अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए जो वक्तव्य सार्वजनिक किया है, उसको अगर हम नजरअंदाज भी कर दे तो भी हमारे पास ऐसे कई कारण हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्हें जमानत क्यों दिया जाए.

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10 कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी से समझिए

इसे समझने के लिए हमें वापिस उन 10 कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी याद करनी चाहिए, जिनके घरों पर छापा मारा गया था और उन्हें दो टुकड़ियों में गिरफ्तार किया गया था. 6 जून को शोमा सेन, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, रोना विल्सन और सुधीर धवाले को गिरफ्तार किया गया था. फिर 28 अगस्त को, पुणे पुलिस ने गौतम नवलख़ा, अरुण फरेरा, वर्नॉन गोंजाल्विज, सुधा भारद्वाज और वरवरा राव को गिरफ्तार किया था. उनमें से सिर्फ नवलखा इस समय आजाद हैं, उन्हें अदालत ने इस समय गिरफ्तारी से सुरक्षित रखा है, लेकिन कहना मुश्किल है कि कब तक?

6 जून को इन कार्यकर्ताओं की पहली खेप की गिरफ्तारी के बाद अरुण फरेरा और वर्नॉन गोंजाल्विज जो उस समय आजाद थे, उन्होंने एक लेख लिखकर उस पूरी कार्रवाई से जुड़े ड्रामा का वर्णन किया, उन्होंने इस पूरी घटना को एक, ‘भयावह सनसनी’ करार दिया. उन्होंने बताया कि कैसे पुलिस नकली चिट्टियां मीडिया और जनता के सामने ला रही है, जिसका मकसद इस पूरे मामले में एक किस्म की मीडिया ट्रायल शुरू करना है. ये सब कुछ, ‘एक झूठी कहानी गढ़कर लोगों के दिमाग में एक किस्म का फितूर पैदा करके करना था’. इसके बाद फरेरा और गोंजाल्विज को 28 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन आप ये न समझें कि उनके आरोप मनगढ़त थे. उनका कहना है कि उन्हें इस बात का निजी अनुभव है कि पुलिस झूठी मीडिया ट्रायल कैसे गढ़ती है, ज़ाहिर सी बात है अपने राजनीतिक आकाओं की मर्ज़ी से.

जब मई 2007 में फरेरा की गिरफ्तारी हुई, तब मीडिया को बताया गया कि वे सीपीएम (माओवादी) के कम्यूनिकेशंस प्रमुख थे और नागपुर में स्थित दीक्षा भूमि को उड़ाने का षडयंत्र रच रहे थे, जहां अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन कर, बौद्ध धर्म अपना लिया था. ‘जिसके बाद मीडिया में इस घटना को बढ़ा-चढ़ाकर लगातार दिखाया गया, लेकिन अदालत में चार सालों तक चली सुनवाई के दौरान, एक बार भी इन आरोपों का जिक्र तक नहीं किया गया, उन्हें साबित करने के लिए सबूत पेश करने की तो छोड़ ही दीजिए.’ ये उन्होंने लिखा- 2012 में फरेरा को आरोपमुक्त कर दिया गया.

ठीक इसी तरह जब गोंजाल्विज को गिरफ्तार किया गया, तब उनपर एक शीर्ष नक्सल होने का आरोप लगाया गया- ये कि उनके पास बहुत सारे गोला-बारूद मिले हैं और ये भी कि वे नक्सलियों की आर्थिक मदद करते हैं. इतना ही नहीं एक गोंजाल्विज का प्रतिनिधित्व करते हए एक प्रतिनिधि मंडल जो उस समय महाराष्ट्र के तत्कालीन गृहमंत्री आर.आर.पाटिल से मिलने गया था, उन्हें ये कहा गया था कि महाराष्ट्र एटीएस को गोंजाल्विज के अकाउंट में बड़ी मात्रा में कैश मिले हैं. गोंजाल्विज और फरेरा ने बाद में लिखा, 'ये अदालती सुनवाई तक़रीबन छह सालों तक चली है, जिसमें उस फंड को लेकर किसी तरह का कोई सबूत अदालत के सामने लाया ही नहीं गया.’

अपनी सुविधा के हिसाब से गिरफ्तारी और मीडिया ट्रायल

गोंजाल्विज को 2013 में दोषमुक्त कर दिया गया. ये तो हुआ नहीं होगा कि पुलिस की फरेरा या गोंजाल्विज से उनकी कैद के दौरान उनसे दोस्ती हो गई हो. फरेरा ने बाद में जेल में बिताए अपने दिनों को याद करते हुए एक किताब भी लिखी जिसका नाम था, ‘कलर्स ऑफ द केज’, जिसमें उन्होंने जेल में बिताए गए अपने दिनों और वहां हुए उत्पीड़न के बारे में लिखा है. उन्होंने लिखा, ‘उनकी मांगों के सामने मैं हार जाऊं इसके लिए वे लोग मेरा शरीर खींचकर, मेरे हाथों को जमीन से काफी ऊपर खिड़कियों की छड़ से बांध दिया करते थे और दो पुलिस वाले मेरी जांघों पर खड़े हो जाया करते थे ताकि मैं जमीन से सटा रहूं.’

हमें इनके उत्पीड़न को दूसरी तरफ से भी देखना चाहिए. जब फरेरा को गिरफ्तार किया गया था, तब उनका बेटा सिर्फ ढाई साल का था. पांच साल बाद, उनका बेटा जो अब सात साल का है शायद अपने पिता से वैसा जुड़ाव महसूस ही न कर पाए, ये तो भूल ही जाएं कि वो इस बात को समझ पाएगा कि उसके पिता जेल में क्यों थे. फरेरा न कहा भी था कि उन्हें अपने बेटे के साथ अपने संबंधों को नए सिरे से शुरू करना पड़ा है.

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फरेरा वापिस फिर से जेल में हैं, इस बार उनपर माओवादियों से संबंध होने के आरोप लगे हैं. पूछताछ के दौरान उन्हें लगातार इतनी जोर-जोर से थप्पड़ मारा गया था कि कुछ खबर के अनुसार उन्हें हाल ही में इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

28 अगस्त को मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की दूसरी खेप की गिरफ्तारी के बाद, पांच पब्लिक इंटेलेक्चुअल ने एक साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डालकर ये निवेदन किया है कि उसे एक स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम का गठन करना चाहिए, जो इन 10 कार्यकर्ताओं के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच कर सके. हालांकि- सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यीय जजों की पीठ ने इस याचिका को अस्वीकार कर दिया था. पीठ के दो जजों जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एएम खानविल्कर जहां याचिका से सहमत नहीं थे, वहीं जस्टिस चंद्रचूड़ दोनों जजों की राय से एकमत नहीं थे.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने बताई थी स्वतंत्र जांच की जरूरत

यहां ये जरूरी हो जाता है कि हम ये सामने लाएं कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने माइनॉरिटी जजमेंट में केस पर क्या राय दी थी, 'कोर्ट के सामने पर्याप्त दस्तावेज पेश किए गए हैं, जिसके आधार पर इस मामले में स्वतंत्र जांच की जरूरत साबित होती है.'

जस्टिस चंद्रचूड़ ने न सिर्फ स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम के गठन का आदेश दिया, बल्कि वो ये भी चाहते थे कि 28 सितंबर को दिए गए उनके आदेश के बाद अगले तीन दिनों के भीतर याचिका को लिस्ट कर लिया जाए, जिसमें ये भी तय कर लिया जाए कि इन्वेस्टीगेशन टीम के सदस्य कौन-कौन होंगे.

जस्टिस चंद्रचूड़ के इस आदेश ने मीडिया में कई तरह की खबरों को जन्म दे दिया. क्या चंद्रचूड़ एक सर्वसम्मत फैसला सुनाने जा रहे थे, लेकिन बाकी दोनों जजों की अलग राय इतने देर से आई कि उस फैसले को बदलना मुश्किल हो गया जिसमें ये कहा गया था कि याचिका को अगले तीन दिनों के भीतर लिस्ट किया जाए. ऐसे में सवाल ये उठता है कि एक जज वैसा क्यों करेगा, जब उसकी राय अल्पमत में आती हो, और इस वजह से लागू भी नहीं हो सकती? (इसे समझाने के लिए अंतिम फैसले के साथ एक फुटनोट भी लगाया गया था.)

हो सकता है कि ये मीडिया के अतिउत्साह का एक उदाहरण हो. इसके बाद भी जिस बात को काटा नहीं जा सकता है वो जस्टिस चंद्रचूड़ के फैसले में दिखाए गए आंकड़े हैं. वरवरा राव 28 अगस्त को गिरफ्तार हुए, उन्हें इससे पहले 25 ऐसे ही मामलों में आरोपी बनाया गया था, जिसमें से 13 में उन्हें दोषमुक्त कर दिया गया, तीन में उन्हें डिस्चार्ज किया गया और 9 में अभियोजन पक्ष ने अपने आरोप वापिस ले लिए थे. फरेरा उन सभी 11 मामलों में बरी कर दिए गए थे जिनमें उन्हें आरोपी बनाया गया था. ये सब पिछले साल उन्हें दोबारा गिरफ्तार करने से पहले हुआ था.

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ठीक इसी तरह, गोंजाल्विज को भी उनपर लगाए गए 19 केसों में से 17 में से बरी कर दिया गया है. बाकी दो में, चंद्रचूड़ ने चिह्नित करते हुए बताया कि ‘एक डिस्चार्ज एप्लिकेशन हाईकोर्ट के नागपुर बेंच के पास पेंडिंग है, जहां वे पहले ही अपनी सजा काट चुके हैं.’ अब ये सोचकर देखिए कि अगर गोंजाल्विज अपने 19वें केस में भी बरी हो जाते हैं तो उनके जीवन के कितने साल इन फर्जी मामलों में बर्बाद हो गए. हालांकि, अब उनके सिर पर 20वां केस भी मंडरा रहा है.

इस पूरी पृष्ठभूमि के बाद, ऐसा कोई कारण नहीं बनता है जिसके आधार पर ये कहा जाए कि तेलतुंबड़े को इस उत्पीड़न से गुजरना चाहिए क्योंकि ये इस सरकार की सहज प्रवृत्ति बन गई है कि जो कोई भी उसका विरोध करे वो उसे झूठे केस में फंसाकर उसका उत्पीड़न करे. अगर एक व्यक्ति जिसने अंबेडकर की पोती से शादी की है और उसके नाम ऐसी कई उपलब्धियां और उपाधि है जो अपने आप में असाधारण है, उसके साथ इतने क्रूर तरीके से बर्ताव किया जाए, तब आप जानते हैं कि आप अंधेरे में जी रहे हैं.

(फीचर्ड इमेज- हाशिया ब्लॉगस्पॉट से साभार)