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एनआरसी के शोर में हमें 1951 की वो गलती भी नहीं भूलनी चाहिए....

1951 का एनआरसी और 2018 का एनआरसी तैयार करने का उद्देश्य और मुद्दा एक ही था कि, देश में अवैध रूप से रह रहे शरणार्थियों की पहचान कर उनपर कार्रवाई की जा सके

Yatish Yadav

बात 1951 की है जब देश में पहली बार जनगणना के आंकड़े प्रस्तुत किए जाने थे. जनगणना के आंकड़े और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस के आंकड़ों  के जारी होने की पूर्व संध्या पर तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री सी. राजगोपालाचारी ने अपने अधिकारियों को साधारण लेकिन महत्वपूर्ण संदेश देते हुए कहा ‘हमें मूलभूत तथ्यों के एक ऐसे रिकॉर्ड को तैयार करना है जो कि हमारे गणराज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति और उनके परिवार के जीवन और जीविका से जुड़ा हुआ हो.’

कुछ इसी तरह का विचार उस समय असम के मुख्यमंत्री बी. आर. मेढ़ी ने अपने अधिकारियों के सामने रखे. उस समय लगभग 18,850 राज्य सरकार के अधिकारी आकंड़ों को प्राप्त करने की जटिल प्रक्रिया से जूझ रहे थे. मेढ़ी ने अपने अधिकारियों से कहा कि उनके द्वारा दिए गए आंकड़ों के आधार पर ही राज्य सरकार जन कल्याण की नीतियों का निर्धारण कर सकेगी जिससे हमें गरीबी,अशिक्षा और पिछड़ेपन से लड़ने में सहायता मिल सकेगी.


1950 के फरवरी-मार्च महीने में असम के कछार, ग्वालपाड़ा, कामरूप, नौगांव और दारांग जिलों में काफी सांप्रदायिक हिसंक घटनाएं घट रही थीं ऐसे में उस समय इन जिलों में भारी संख्या में शरणार्थी आने लगे थे. देश के गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री इन समस्याओं को गहराई से समझ रहे थे और यही वजह है कि उन्होंने अपने अधिकारियों को जब आंकड़ों के संबंध में संबोधित किया तो उनका मकसद साफ था कि वो देश और राज्य के सीमित संसाधनों पर शरणार्थियों का बोझ न बढ़ाएं.

पहले एनआरसी में असम में केवल 2,74,000 रिफ्यूजी होने की बात ही स्वीकार की गई थी

तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार के 1951 के अनुमान के मुताबिक उस समय तक असम में लगभग 5 लाख शरणार्थी घुस चुके थे. लेकिन उस समय के नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस के आंकड़ों में जो दर्ज किया गया वो अनुमान का लगभग आधा ही था. पहले एनआरसी में असम में केवल 2,74,000 रिफ्यूजी होने की बात ही स्वीकार की गई थी. इससे संबंधित एक फाइल लंबे समय तक गृह मंत्रालय में बंद पड़ी हुई थी, उसमें भी ये बात स्वीकार करते हुए लिखा गया था कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शरणार्थी मुख्य रूप से एक जगह से दूसरे जगह तक घूमते रहते थे जिससे उनके रिकॉर्ड को दर्ज करने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा था.

1951 का एनआरसी और 2018 का एनआरसी तैयार करने का उद्देश्य और मुद्दा एक ही था कि, देश में अवैध रूप से रह रहे शरणार्थियों की पहचान कर उनपर कार्रवाई की जा सके. विरासत में मिले एनआरसी के आंकड़ों और उसकी सटीकता पर बहस की जा सकती है और उसपर होनी भी चाहिए लेकिन इस पूरी कवायद पर राजनीति भारी पड़ती दिखाई दे रही है. एनआरसी के आंकड़ों पर की जा रही राजनीति देश और राज्य हित में नहीं है और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की राजनीति से भयावह सच से मुंह मोड़ा नहीं जा सकता.

1951 की नेहरू सरकार की तरह ही अभी की एनडीए सरकार उन 40 लाख लोगों के मन से डर निकालने की कोशिश कर रही है जिनके नाम एनआरसी की ड्राफ्ट लिस्ट में नहीं है. सरकार कह रही है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं है उनको नागरिकता साबित करने के लिए अभी और मौका दिया जाएगा और फिलहाल उनके खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं की जाएगी. उस समय की नेहरू सरकार के लिए ये सब करना आसान था. लेकिन उसके बाद के 67 सालों ने देश की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल दी है ऐसे में भले ही राज्य और केंद्र सरकार ये आश्वासन दे रही हो कि इन आंकड़ों में बदलाव संभव है. कई राजनीतिक दल अभी भी इस भड़काने वाली आग में घी डालने का काम कर रहे हैं.

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इन आंकड़ों के जारी होने के बाद भी कई सवाल है जो कि लोगों के जेहन में उठ रहे हैं. उन लोगों का क्या होगा जो अंतिम सूची में होंगे? क्या जिन लोगों के बांग्लादेशी होने की पहचान हो चुकी है उन्हें क्या बांग्लादेश वापस डिपोर्ट किया जाएगा? इन सबका जवाब वो है जो कि सरकार के द्वारा मंगलवार को संसद में लिखित रूप से दिया गया. सरकार ने अपने जवाब में स्पष्ट किया है कि बांग्लादेशियों को बांग्लादेश डिपोर्ट किया जाना एक अनवरत क्रिया है और साल 2016-17 में कुल 39 बांग्लादेश के नागरिकों को असम के डिटेंशन सेंटर से डिपोर्ट किया जा चुका है.

गृह मंत्रालय ने ये भी कहा कि बांग्लादेश सरकार ने हाल ही में असम में 53 बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान सुनिश्चित की है और उनके डिपोर्टेशन के लिए यात्रा कागजात जारी किए हैं. लेकिन अभी के मामले में आंकड़े लाखों में है ऐसे में उन्हें डिपोर्ट करना आसान नहीं होगा. वैसे गृह मंत्रालय के एक अधिकारी का कहना है कि सरकार के पास कई और भी विकल्प खुले हुए हैं.

उस अधिकारी के अनुसार ‘अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय जब नागरिकों की पहचान के लिए बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र की परिकल्पना की गई थी तब इस मामले पर विचार किया गया था और इस पर ये प्रस्ताव दिया गया था कि पिछले दो पीढ़ियों से रह रहे अवैध नागरिकों को डिपोर्ट न करके देश में ही रहने दिया जाए. इस आइडिया को देने का मकसद ये था कि भारत में अवैध रूप से रह रहे लोगों की पहचान हो सके और उन्हें देश में रहने और काम करने के लिए वर्क परमिट दिया जाए. लेकिन उन्हें सामान्य नागरिकों को मिलने वाली सुविधा तब तक नहीं मिलती जब तक कि उन्हें नियम और कायदे के तहत यहां की नागरिकता नहीं मिल जाती. वर्तमान सरकार को भी कुछ इसी तरह की योजना बनानी चाहिए लेकिन उसके लिए जरूरी है कि पहले अंतिम सूची का प्रकाशन हो जाए क्योंकि अभी तक ये पूरी प्रक्रिया संपन्न नहीं हो सकी है.’

एनआरसी ड्राफ्ट के नवीनतम आंकड़ों की सूची जारी होने के बाद इस बात की भी आलोचना हो रही है कि कुछ वास्तविक नागरिकों को नाम भी सूची से बाहर रह गए हैं. इस पर गृह मंत्रालय के अधिकारी का कहना है कि 1951 के डेटा में भी कुछ समस्या थी क्योंकि वो शुद्ध रूप से आंकड़ों की कहानी थी. उन्होंने ये भी कहा कि 2014 की शुरुआत में रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के अधिकारियों की एक केंद्रीय टीम ने असम का दौरा किया था. अपने दौरे के दौरान उन्होंने एक जिले का चयन किया और उसके 1951 के एनआरसी के आंकड़ों की जांच की और ये पता लगाने की कोशिश की कहीं उसके साथ छेड़छाड़ तो नहीं हुई है.

ये पूरी कवायद देश में रह रहे अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए की गई थी

अधिकारी के मुताबिक ये जांच कामरूप जिले में की गई थी और जांच के बाद आरजीआई के अधिकारियों ने पाया कि केवल कुछ रिकॉर्डों के साथ छेड़छाड़ की गई है जो कि रिकॉर्डों की विशाल संख्या को देखते हुए नगण्य के बराबर थी. दरअसल कुछ जगहों पर लोगों के नाम उसी सूची में जोड़े गए थे लेकिन जोड़ने के लिए जिस तरह की स्याही को इस्तेमाल किया गया था उससे साफ पता चल रहा था कि आंकड़ों के साथ हेरफेर की गई है. बावजूद इसके कुल मिला कर कहें तो रिकॉर्ड में ठीक ठाक ही पाया गया. अधिकारी ने इस बात से भी इनकार किया कि एनआरसी और जनगणना के आंकड़ें धर्म के आधार पर जारी किए गए थे, ये पूरी कवायद देश में रह रहे अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए की गई थी.

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1951 में एनआरसी के लिए केंद्र सरकार और असम सरकार के 39,674 रूपए खर्च हुए थे लेकिन इस बार की कवायद में 1200 करोड़ रूपए का खर्च आया है. विपक्ष का आरोप है कि इतना ज्यादा खर्च इसलिए हुआ क्योंकि इसे सही तरीके से लागू नहीं किया गया था. ये सही है कि इतनी बड़ी कवायद में कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है लेकिन इसमें बदलाव लाना जरूरी है जिससे कम से कम वास्तविक नागरिक तो इसमें शामिल हो जाएं. लेकिन इसको सुधारते समय सरकार को इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अवैध प्रवासियों के मुद्दे पर उनका ध्यान नहीं भटके.

1951 में भी एनआरसी तैयार करने में लगे अधिकारी भी इससे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने ये माना था कि रिकॉर्डों में गड़बड़ियां हैं. जोरहाट के तत्कालीन डीएसपी ने 1951 के मई में कहा था कि ‘मैं इस काम की मुश्किलों को समझ सकता हूं लेकिन किसी भी तरह की बाधा के सामने आने से इसकी पुनरावृत्ति की संभावना ज्यादा होती है खास करके जब विशाल काम में व्यवस्था अस्थाई होती हो तो. ऐसे में भविष्य के अधिकारियों को इसे सुलझाने के लिए धैर्य के साथ कड़ी मेहनत करनी पड़ सकती है.’