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क्या एएमयू में फिर बोए जा रहे हैं भारत के बंटवारे के बीज?

जो काम इस्लाम नहीं कर सका उसे आरक्षण कैसे कर पाएगा.

Tufail Ahmad

भारतीय सेना से रिटायर्ड ब्रिगेडियर सैयद अहमद अली ने 2012 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो-वाइस चांसलर (प्रति कुलपति) का काम संभाला. सेना में 35 साल काम करने के बाद भी ब्रिगेडियर साहब उसकी धर्मनिरपेक्षता को आत्मसात नहीं कर पाए.

केवल नाम से ही सही लेकिन सैयद अहमद अली का वास्ता पैंगबर मोहम्मद के वंश से है. मुसलमानों में सैयद ऊंची जाति मानी जाति है और इनका निकाह निचली जातियों में अमूमन नहीं होता. एएमयू की वेबसाइट भी ब्रिगेडियर अली को जाने-माने जमींदारों के परिवार से बताती है. मुसलमानों के पिछड़ेपन में इन जमींदारों का भी उतना ही हाथ है जितना उलेमाओं का.


अब ब्रिगेडियर अली ने भारतीय मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठाई है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में संविधान की धारा 341 और मुस्लिम आरक्षण पर आयोजित सेमिनार के दौरान सैयद अहमद अली ने ये मांग की. ब्रिगेडियर साहब शायद बंटवारे के दौरान हुए खून-खराबे को भूल गए. जिन हालातों में संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाया था.

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सेमिनार में मुख्य अतिथि ब्रिगेडियर अली ने कहा,’मुसलमानों का पिछड़ापन दूर करने के लिए शिक्षा में आरक्षण जरुरी है.’ होना तो यह चाहिए था कि भारत पर 1000 साल के मुस्लिम शासन के दौरान शिक्षा और विज्ञान के दम पर वो देश को चार-चांद लगा देते. लेकिन मुस्लिम शहंशाहों को मस्जिद, महल और मकबरे बनवाने से फुर्सत मिलती तब तो वे रेलवे, बस और टेलीफोन विकसित करने के बारे में सोचते.

अपने उद्देश्य से भटका एएमयू

नई खोज और अविष्कार की बात करने के बजाए जब एक विश्वविद्यालय का प्रो-वाइस चांसलर आरक्षण की बात करे, तो अफसोस होना लाजमी है. उसपर से सैयद अहमद अली सेना में ब्रिगेडियर भी रहे चुके हैं. ब्रिगेडियर साहब सेना से इतना नहीं सीख पाए कि तवज्जो काबिलियत को मिलनी चाहिए.

मुस्लिम समाज को आगे बढ़ना हो तो उसे वैज्ञानिक नजरिया अपनाना होगा. उदार सोच रखनी होगी. तभी अकलियत के मसले और उनसे जुड़े सही सवाल उठा पाएगा. लेकिन ब्रिगेडियर साहब 35 साल सेना में रहने के बावजूद यह नजरिया नही बना पाए.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के पीछे भी सर सैयद की खास सोच थी. उन्होंने मुस्लिम समुदाय में वैज्ञानिक और तार्किक सोच पैदा करने के लिए इसकी नींव रखी थी. उनकी ऊर्दू पत्रिका तहजीबुल अख़लाक़ भी मुस्लिम छात्रों में नई सोच पैदा करना चाहती थी. लेकिन लगता है एएमयू के प्रो-वाइस चांसलर ने इसके संस्थापक सर सैयद से इतना भी नहीं सीखा.

संविधान की धारा 341

संविधान की धारा 341 में दो उपखंड हैं. इन दोनों में कहीं भी धर्म के आधार पर आरक्षण की बात नहीं कही गई है.

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इनमें साफ तौर पर लिखा है कि राष्ट्रपति किसी राज्य या उसके राज्यपाल की  अनुशंसा या सलाह पर कुछ विशेष जाति, समुदाय या वर्ग को अनुसूचित जाति में शामिल कर सकती है. इसी तरह संसद भी किसी जाति, समुदाय या वर्ग को ही अनुसूचित कर सकती है.

संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने की बात कहीं भी नहीं कही गई है. संविधान की इसी धारा 341 को खत्म करने की मांग करने के लिए यह सेमिनार बुलाया गया था. सेमिनार के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि इसका आयोजन एएमयू की सबसे बड़े सभागार केनेडी हॉल में किया गया था.

बंटवारे का इतिहास

इस सेमिनार में हिस्सा लेने आए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील महमूद पार्चा ने दावा किया कि आरक्षण धर्म के आधार पर भी दिया जा सकता है. भारतीय युवाओं को यह याद दिलाने की जरुरत है कि 1947 में धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की नींव भी इसी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रखी गई थी. चौंकाने वाली बात यह है कि 21वीं सदी में एक बार फिर भारत को बांटने की बात यहां से हो रही है.

ऐसा कतई नहीं है कि भारत के बंटवारे के लिए सर सैयद जिम्मेदार थे. एएमयू कैम्पस में पाकिस्तानपरस्ती का सर सैयद के शिक्षा आंदोलन से निकलना महज एक संयोग था. संस्थान के प्रो-वाइस चांसलर के तौर पर ब्रिगेडियर अली को यहां इतिहास दोहराए जाने से रोकना बेहतर होता, न कि धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग करना.

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अली ने धर्म के आधार पर आरक्षण की वकालत की. धर्म के आधार पर इस तरह की वकालत का नतीजा एक और बंटवारा ही होगा. दुख की बात यह है कि एक बार फिर एएमयू इसका गवाह बन रहा है.

हाल के दिनों में भारत में इस्लाम के पैरोकारों ने अपना मकसद पूरा करने के लिए दलितों से दोस्ती गांठी है. महमूद पार्चा ने संविधान की धारा 341 को दलितों और मुसलमानों की इस दोस्ती की गांठ बता दिया. सेमिनार में पार्चा ने कहा कि धारा 341 पर बहस न होना दलितों और मुसलमानों के अधिकारों का हनन है. इसे तुरंत हटाया जाना चाहिए.

रोजाना सहाफत में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, समाजशास्त्र के एक अध्यापक मुहिब उल हक ने भी धारा 341 को खत्म करने की मांग की. उन्होंने कहा कि आरक्षण के लिए धर्म को आधार न बनाना दलितों और मुसलमानों के साथ नाइंसाफी है. एएमयू की ही एक और अध्यापक नजर अब्बास ने कहा कि मुसलमानों में सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने के लिए आरक्षण जरुरी है.

मुझे हैरानी इस बात की है कि आखिर जो काम इस्लाम नहीं कर सका उसे आरक्षण कैसे कर पाएगा. सेमिनार में एक युवा शोधकर्ता मुहम्मद रिजवान ने समझदारी की बात की और कहा कि देश की तरक्की के लिए हर तबके का विकास होना चाहिए.

अगर मुहम्मद रिजवान के विचारों को छोड़ दिया जाए तो एएमयू में जो हालात बन रहे हैं उससे एक और बंटवारा टाला नहीं जा सकता. और इसके लिए ब्रिगेडियर सैयद अहमद अली और उनके जैसी सोच रखने वाले ही जिम्मेदार ठहराए जाएंगे.

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साल 2017 सर सैयद (1817-1898) की 200वीं जन्मशती है. इस मौके पर एएमयू को अगला सेमिनार इस विषय पर रखना चाहिए- क्या एएमयू एक बार फिर भारत के बंटवारे के आंदोलन की अगुवाई तो नहीं कर रहा?