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समलैंगिकता पर बड़ी जीत के बाद नई चुनौतियों के लिए तैयार हो रहा है LGBTQ समुदाय

फैसला आ चुका है लेकिन समलैंगिकों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग मानते हैं कि असली काम तो अब होना है

Phalguni Rao

6 सितंबर, 2018 की सुबह भारत लंबे समय तक याद रखेगा. सुबह 11.30 बजे सिर्फ आधे घंटे की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 को गलत ठहरा दिया. यानी ऐसे संबंध रखना अब अपराध नहीं माना जाएगा. भारत के समलैंगिकों के लिए ये बड़ी राहत देने वाला फैसला था.

अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 377 के वे कुछ हिस्से, जो सहमति से अप्राकृतिक संबंध बनाने को अपराध मानते हैं, मूर्खतापूर्ण और साफ तौर पर एकपक्षीय है. इस तरह इस फैसले से भारत दुनिया का 126वां देश बन गया है, जहां समलैंगिकता अब कानूनी तौर पर मान्य है. अदालत ने माना कि यौनेच्छा ‘प्राकृतिक और बुनियादी’ जैविक प्रक्रिया है, न कि किसी की इच्छा का मुद्दा. फैसले के बाद देश और दुनिया हर जगह, मानवाधिकार कार्यकर्ता, सेलिब्रिटी और समलैंगिक लोगों ने जम कर जश्न मनाया.


समलैंगिकों ने साझा किए अनुभव

भारत से 12,500 किलोमीटर दूर कैलिफोर्निया में बैठे ऋषि साथवाने आमतौर पर रात 10 बजे तक सोने चले जाते हैं. लेकिन 6 सितंबर को वे अदालत की कार्यवाही जानने के लिए आधी रात तक जगते रहे. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में पांच जजों की बेंच ने जब एकमत होकर 158 साल पुराने इस कानून को अवैध करार दिया, साथवाने का दिल बल्लियों उछलने लगा. उन्होंने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'अद्भुत महसूस हो रहा है आज. जैसे समलैंगिकों पर से शर्मिंदगी का बोझ हटाया रहा हो.'

अमेरिका में रहने वाले साथवाने समलैंगिक हैं और हाल ही में इसलिए खबरों में थे क्योंकि पिछले साल दिसंबर में उन्होंने महाराष्ट्र के यवतमाल में अपने गे पार्टनर से शादी कर ली थी.

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बहरहाल, बेंगलुरु में तो ‘ड्रैग परफॉर्मर’ एलेक्स मैथ्यू फैसला सुनते ही रोने लगे, 'जैसे ही मैंने फैसला सुना, मैं फूट-फूटकर रो पड़ा. मैं खुद को रोक नहीं सका क्योंकि मैंने इसकी तकलीफ खूब झेली है, इसलिए आंसुओं के जरिए मुझे वह बाहर निकालना ही था.' मैथ्यू समलैंगिक हैं और कहते हैं कि 'समलैंगिकता को पहचान दिलाने के लिए जो लंबी यात्रा होनी है, उसका ये पहला कदम है. पहले मैं सार्वजनिक तौर पर किसी लड़के का हाथ पकड़ने से डरता था. अब कम से कम मैं ये आराम से बिना डरे कर सकता हूं. मुझे नहीं मालूम कि सार्वजनिक तौर पर प्रेम-प्रदर्शन को लेकर हम कितने उदारवादी हैं, लेकिन धीरे-धीरे उस ओर बढ़ा जा रहा है.'

2014 से ही ड्रैग परफॉर्मर का काम कर रहे मैथ्यू अपनी कला का इस्तेमाल लोगों को समलैंगिकों के बारे में सही जानकारी देने के काम में कर रहे हैं. वे कहते हैं, 'ज़्यादातर लोग समलैंगिकों के बारे में कुछ जानते ही नहीं. मुझे कई नौकरियों से तो सिर्फ इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि मैं ‘गे’ था. इतनी तकलीफ, अस्वीकृति और कुंठा उपजती थी कि मैं क्या बताऊं. कई बार मुझे डिप्रेशन से भी गुजरना पड़ा. लेकिन हर रात के परफॉर्मेंस के बाद मुझे लगता था कि धारा 377 एक दिन खत्म होगी और आज वो हसरत पूरी हो गई.'

मुंबई में रहने वाले समलैंगिकों के वैष्णव एसोसिएशन के मुखिया अंकित भूपतानी खुद को आज़ाद महसूस कर रहे हैं. वे कहते हैं, 'मैं पैदा होते ही इसलिए अपराधी मान लिया गया क्योंकि मेरी यौन प्रवृत्ति दूसरों से अलग थी. अब मैं अपराधी नहीं हूं. पहली बार मैं आज़ाद भारत में सांस ले रहा हूं.'

कानून से मिलेगी सुरक्षा, अब नई चुनौतियों से लड़ने को तैयार समुदाय

अदालत में जब फैसला पढ़ा जा रहा था, मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने समलैंगिकों के समर्थन में कहा, 'मैं वहीं हूं, जो मैं हूं. इसलिए मुझे वही समझो, जो मैं हूं. मेरे साथ वैसा ही बर्ताव करो जैसा सबके साथ होता है. कोई अपनी वैयक्तिकता से भाग नहीं सकता.' अदालत ने यह भी कहा कि अपराध की श्रेणी से इसे हटाना पहला कदम है और समलैंगिकों को भी समानता का मूल अधिकार प्राप्त है.

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खुद को खुल्लमखुल्ला ‘गे’ बताने वाले और बेंगलुरु में मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले 32 बरस के रोमल सिंह कहते हैं, 'देश की सबसे ऊंची अदालत आपको ये अधिकार दे रही है और कह रही है, ‘सुनो, समाज और तुम्हारा परिवार चाहे जो कहे, तुम लोग जो कर रहे हो, वह गलत नहीं है,’ कम से कम देश के कानून की तो यही राय है.'

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ये निर्देश भी दिया है कि वह फैसले को प्रचारित करने के लिए हर संभव कोशिश करे. जस्टिस आर एफ नरीमन ने कहा कि केंद्र सरकार को, जनता को इस संदर्भ में जागरूक करने के लिए समाज, सरकारी अधिकारी और पुलिस के जरिए समलैंगिकों के ऊपर लगे लांछन को धीरे-धीरे घटाना और खत्म करना होगा. इसके लिए लोगों को समलैंगिकों की परेशानियों और उनकी मुश्किलों से अवगत कराना होगा.

रोमल सिंह कहते हैं, 'अगर सरकार ये नहीं भी करती है, तो हम इसे करेंगे. हम जैसे लोग जो इसके लिए काम कर रहे हैं, हमारा काम अभी खत्म नहीं हुआ है. हम लोगों को जागरूक करेंगे. हम दफ्तरों में जा-जाकर लोगों को बताएंगे कि हम आपको बताना चाहते हैं कि हम कौन हैं, जिससे आप भी समझ पाएं कि हमारे साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए. हमें अब डर नहीं है क्योंकि अब हम अपराधी नहीं हैं और हमें अब गिरफ्तारी का डर नहीं है.'

अदालत ने संवैधानिक सदाचार बनाम सामाजिक सदाचार के बारे में भी कहा कि बहुमत संविधान पर हावी नहीं हो सकता. अदालत ने समलैंगिकों के सामूहिक तकलीफ की बात भी कही और कहा कि उनका दर्द देखते हुए, देश को समलैंगिकों से माफी मांगनी चाहिए.

क्यों जरूरी भी है धारा 377?

इस मामले को कोर्ट तक ले जाने वाले और हमसफर ट्रस्ट के सह-संस्थापक अशोक राव कवि का कहना है, 'ये बहुत बड़ी बात अदालत ने कही है. ब्रिटिश सरकार के समय के काले कानूनों में से ये सबसे भयावह था. 2013 के अपने फैसले में कोर्ट ने कहा था कि समलैंगिक ‘अल्प अल्पसंख्यक’ हैं, यानी कि उनकी संख्या बहुत कम है. ऐसा लगता है कि पिछला फैसला देने वाले जज ने उन आंकड़ों को ठीक से देखा ही नहीं, जो उनके सामने रखे गए थे. ये ‘अल्प अल्पसंख्यक’ क्या है? कोई अल्पसंख्यक ‘अल्प’ नहीं होता. वे अल्पसंख्यक इसलिए हैं, क्योंकि वे संख्या में कम हैं. कवि बताते हैं कि समलैंगिकों की संख्या को लेकर देश में कोई साफ तस्वीर फिलहाल नहीं है. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के फैसले को उलटते हुए समलैंगिकता को फिर से अपराध बना दिया था. उस वक्त जज थे जस्टिस जी एस सिंघवी, जिन्होंने ये फैसला अपने रिटायर होने से ठीक एक दिन पहले दिया था.'

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हालांकि दो वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक यौन संबंध को अब अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया है, बिना सहमति बनाए गए इस तरह के संबंध धारा 377 के तहत अब भी अपराध माने जाएंगे. कवि कहते हैं, 'छोटे बच्चों के साथ किए जाने वाले अपराध के लिए पॉक्सो है ही, बेशक रेप की परिभाषा अब भी अधूरी है. समलैंगिकता में रेप जैसी कोई चीज है ही नहीं. ये कानून यह नहीं जानता कि एक आदमी किसी दूसरे आदमी के साथ भी बलात्कार कर सकता है. इसके लिए हमें धारा 377 की जरूरत है.'

सेक्स एजुकेशन, मैरिज एक्ट और बच्चे गोद लेने के पहलुओं पर अब भी बाकी है लड़ाई

फैसला आ चुका है लेकिन समलैंगिकों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग मानते हैं कि असली काम तो अब होना है. कवि का कहना है, 'असली काम तो अब शादी, विरासत, यौन शिक्षा, समलैंगिकों के मानसिक और यौन स्वास्थ्य के लिए करना है.' कवि कहते हैं कि 'स्कूलों में सेक्स एजुकेशन है ही नहीं, जो बच्चे स्त्रैण हैं, उनको स्कूल में परेशान किया जाता है. गांवों में रहने वाले ऐसे बच्चे तो मुंबई जैसे महानगरों में भाग जाते हैं. समलैंगिकों में शराब का सेवन भी खूब होता है, खासकर किन्नरों में.'

समलैंगिकों के लिए ज़मीन पर काम करने वाले लोग मानते हैं कि लिंग और यौन प्रवृत्ति के आधार पर भेदभाव, भागीदारी के अधिकार और गोद लेने के अधिकार पर भी कानून आना बहुत जरूरी है. कवि मानते हैं, 'जब धारा 377 के खिलाफ लड़ाई शुरू की गई थी, हमारी सारी ऊर्जा और संसाधन कानून से लड़ने में खर्च हो गई. अब, जब ये अपराध की श्रेणी से हट गया है, हमें फिर से बैठ कर रणनीति तैयार करनी होगी.'

शादी के बराबर के अधिकार की मांग करते हुए कवि कहते हैं, 'आगे का रास्ता आसान नहीं है. भारत में शादियों में धर्म की भूमिका बहुत बड़ी है क्योंकि शादी धर्मों के अपने कानूनों के अनुसार होती है, जिसके मुताबिक शादी तो सिर्फ एक आदमी और एक औरत के बीच हो सकती है. चर्च और कुरान दोनों, समलैंगिक विवाह को पाप मानते हैं. तो क्या अब किसी ‘स्पेशल मैरिज ऐक्ट’ के बारे में भी सोचा जाएगा?'

कवि एक दूसरा उदाहरण देते हैं, 'मुस्लिम शरिया गोद लेने को मान्यता ही नहीं देता है. मान लीजिए कि किसी मुस्लिम समलैंगिक जोड़े ने किसी बच्चे को गोद लेना चाहा तो शरिया कानून के तहत उस बच्चे की कोई पहचान नहीं होगी.'

समलैंगिक समाज में कई लोग महसूस करते हैं कि इन सब में थोड़ा वक्त तो लगेगा ही. फिलहाल बराबरी के अधिकार को लेकर लोगों को खासी उम्मीदें हैं. समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले भूपतानी का सपना है कि वे अपने पार्टनर के साथ शादी करें और एक बच्ची को गोद लें. वे कहते हैं, 'मैंने तो उसका नाम भी तय कर लिया है, ‘कथा’. मुझे उम्मीद है कि कथा एक दिन वास्तविकता में बदलेगी.'