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कॉन्डम के विज्ञापनों को किसकी नजरों से बचा रही है सरकार?

लगता है ये फैसला लेते हुए काउंसिल 'कॉन्डम के टैबू' से आगे नहीं सोच पाई और वैसा फैसला ले बैठी, जिससे कॉन्डम एेड्स के पहले और जरूरी मकसद पर ही पानी फिर गया है

Tulika Kushwaha

एक फेयरनेस क्रीम के ऐड में शाहरूख अपनी सख्त त्वचा पर पिंक फेयरनेस क्रीम लगा रहे मॉडल को अपनी फीमेल फैंस को इम्प्रेस करने की राह दिखाते हैं. जिसका असर भी दिखता है, जब कुछ फीमेल मॉडल्स चिकनी और गोरी त्वचा हासिल कर चुके मॉडल से लिपटती और लिफ्ट के लिए पूछती नजर आती हैं.

टीवी पर आयुष्मान खुराना एक शेविंग क्रीम का ऐड कर रहे हैं, शेव करने के बाद उनके स्मूद चेहरे को एक फीमेल मॉडल छू कर ये साबित करती है कि उनके गाल सच में बहुत सॉफ्ट है.


एक परफ्यूम के ऐड में राहुल खन्ना फ्रेंच खुश्बू की मदद से लड़की को इम्प्रेस करते नजर आते हैं. लेकिन 1 सेकेंड पहले ही वो बता रहे होते हैं कि लड़कियों से घिरे होने का सीन बस फिल्मों में ही मुमकिन है.

फेयरनेस और शेविंग क्रीम के अलावा इनरवियर, डियोड्रेंट, कॉन्डम से लेकर खाने-पीने तक के विज्ञापनों में एक यौन अपील है, जिसे ले आना फीमेल मॉडल्स का काम है.

लेकिन सवाल है आदमियों के इस्तेमाल में जुड़ी हर चीज के विज्ञापन में फीमेल मॉडल्स का क्या काम है? क्या डियो की खुश्बू में डूबे लड़के के शरीर से लिपटी हुई और तरह-तरह के चेहरे बनाती लड़कियां अश्लील नहीं है? क्या विज्ञापन कंपनियां सेक्सुअलिटी के इस्तेमाल अपने प्रोडक्ट बेच पा रही हैं?

कॉन्डम पर दिक्कत क्यों?

अगर ये सब कुछ मंजूर है तो फिर कॉन्डम के विज्ञापन पर दिक्कत क्यों? अगर कॉन्डम के विज्ञापनों के सामग्री पर दिक्कत है, तो लिपटी बिखरी लड़कियों पर क्योंं नहीं? या फिर इन विज्ञापनों की सेक्सुअलिटी इसलिए नजरअंदाज की जा सकती है क्योंकि ये 'कॉन्डम' नहीं बेच रहीं, महज क्रीम, अंडरवियर या परफ्यूम बेच रही हैं.

भारतीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने कॉन्डम के ऐड्स को टीवी पर प्रसारित किए जाने के लिए टाइम स्लॉट बना दिया है. अब टीवी पर इन ऐड्स को रात के दस बजे से लेकर सुबह 6 बजे तक ही दिखाया जा सकेगा, बाकी के घंटों में ये एड टीवी पर दिखाई नहीं देंगे. क्योंकि ये ऐड असहज करने वाले हैं. क्योंकि बच्चे ये ऐड देखकर बिगड़ जाएंगे.

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इसका मतलब है कि मंत्रालय या ब्रॉडकास्टिंग कंटेंट कम्प्लेंट्स काउंसिल का ऐड्स के कंटेंट पर कोई कंट्रोल नहीं है, वो बस प्रसारण से जुड़े फैसले लेने के लिए हैं.

'कॉन्डम टैबू'

लेकिन लगता है ये फैसला लेते हुए मंत्रालय 'कॉन्डम के टैबू' से आगे नहीं सोच पाया और वैसा फैसला ले बैठा, जिससे कॉन्डम एेड्स के पहले और जरूरी मकसद पर ही पानी फिर गया है. कॉन्डम के एेड भारत में गर्भनिरोध के तौर पर शुरू हुए थे. उस वक्त इसके विज्ञापन को प्रचारित करने के पीछे कहीं न कहीं समाज में स्वीकार्यता का मुद्दा जरूर रहा होगा. धीरे-धीरे लोगों में कॉन्डम के एेड्स को टीवी पर देखने और इस शब्द का इस्तेमाल करने की हिचकिचाहट टूटी होगी.

लेकिन अपने इस फैसले से मंत्रालय ने ये संदेश दे दिया है कि कॉन्डम और सेक्स पर बात करना गलत और गंदी बात है. गर्भनिरोध और एड्स के बचाव के लिए शुरू हुए एेड्स के विज्ञापन आज प्लेजर और फ्लेवर के पचड़े में बदल गए हैं और लगता है कि इतने सालों में मंत्रालय की नजर में नहीं आए हैं.

सेक्स एजुकेशन का मुद्दा गोल

होना तो ये चाहिए कि कॉन्डम को लेकर लोगों में स्वीकार्यता कैसे आए, मंत्रालय इस पर सोचता. आखिर आप टीवी पर प्रसारित हो रहे किसी एेड को बच्चों की नजरों से कैसे बचाए रख सकते हैं? क्या इस बात को उससे छुपाने की बजाए उसे इसे समझाना ज्यादा समझदारी का काम नहीं है.

भारत में सेक्स एजुकेशन की हालत कितनी खराब है, इसका सबसे बड़ा नमूना जूलॉजी के आखिर में दिया हुआ चैप्टर ह्यूमन रिप्रोडक्शन है, अधिकतर बच्चों के साथ ऐसा हुआ होगा, जब उनके टीचर ने उन्हें खुद से वो चैप्टर पढ़ लेने को बोला होगा. जब सिलेबस में दिए गए एक विषय पर ही खुलकर बात नहीं होती तो अलग से सेक्स एजुकेशन पर कौन पढ़ाने आएगा.

सरकारी कॉन्डम के विज्ञापनों को खा चुकी कॉन्डम बेचने वाली प्राइवेट कंपनियों का ही फॉर्मूला लगता है स्कूलों के मामले में भी काम करता है. सेक्स एजुकेशन की हालत पब्लिक स्कूलों से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों में खराब है. पब्लिक स्कूलों में तो सरकार की तरफ से कभी-कभी ऐसे इनीशिएटिव लिए भी जाते हैं, लेकिन प्राइवेट स्कूलों में तो इस पर बात भी नहीं होती.

अगर आपको लगता है कि बच्चों की नजरों को कॉन्डम के एेड्स से बचाने की जरूरत है, तो ऐसी और भी कई चीजें मौजूद और आसानी से उपलब्ध हैं, जिनसे उन्हें बचाए जाने की जरूरत है. आजकल बच्चों को सेक्सुअलिटी की समझ 13-14 साल की उम्र से पहले ही हो जाती है. तो उन्हें उनके सामने आसानी से मौजूद पोर्न, ह्यूमन बॉडी और सेक्स के अधपके ज्ञान से बचाने के लिए आपकी भी पॉलिसी होनी चाहिए. ये वैसा ही है जैसे सामने खाई हो और आप खड्डे से बचने की सलाह दे रहो हों.

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जिस तरह सिगरेट के विज्ञापनों पर रोक लगा दी गई और इसके पैकेटों पर स्मोकिंग किल्स लिखने के निर्देश जारी किए गए, उसी तरह प्लेजर और फ्लेवर के ऑफर्स दे रही इन कॉन्डम की कंपनियों को भी कुछ निर्देश क्यों नहीं दिए जा सकते? क्यों नहीं उनसे भी अपने एेड में गर्भनिरोध या एड्स से बचाव पर भी बात करने की सलाह दी जा सकती है?

सेक्स पर, कॉन्डम पर, ह्यूमन रिप्रोडक्शन पर बात करिए, समझाइए कि ये कोई टैबू नहीं है. वैसे भी, कॉन्डम के एेड को एक टाइम स्लॉट में बांधकर आप कौन सा तीर मार लेंगे.